भाग 11 अध्याय 5

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

             भाग 11

             *अध्याय 5*

*अन्त्यज लोगों की जीवन यात्रा विधि*
ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्णों से अलग वर्णसंकर (जहां स्त्री उच्च वर्ण की तथा पुरुष निम्न वर्ण का हो , ऐसे विवाह को प्रतिलोग विवाह कहते हैं तथा इस प्रकार के वैवाहिक जीवन से उतपन्न सन्तान को वर्णसंकर कहते हैं)तथा अन्त्यज जाति के लोग अपनी जीवन यात्रा को चलाने के लिए अपने नीच कार्यों को छोड़कर शुद्र के नियमों का पालन करेंगे । ऐसा इसलिए क्योंकि इस संसार मे चार वर्णों को छोड़कर ऐसा कोई भी वर्ण नहीं है जिसका वे पालन कर सकें।

*संसारी व्यक्ति अपनी जीवन यात्रा में अपने अपने वर्ण के धर्मो का पालन करें*
ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र अपने वर्ण धर्म का पालन करते हुए शुद्ध श्रीकृष्ण भक्ति का आचरण करेंगे। ब्राह्मण,क्षत्रिय वैश्य, शुद्र व ब्रह्मचारी , ग्रहस्थ , वानप्रस्थ और सन्यासी -ये चारों वर्णाश्रमी अपने आश्रम और वर्ण का पालन करते हुए भी यदि कृष्ण भजन नहीं करते हैं , तब उन्हें रौरव नरक में जाना पड़ेगा। ग्रहस्थ अपने वर्ण धर्म का आचरण करते हुए जिससे जीवन यात्रा निर्वाह हो सके, उतना कमाते हुए श्रीकृष्ण का भजन करेंगें। संसार के विषयों से जब तक किसी का स्वाभाविक वैराग्य न हो जाये तब तक उसे अपने वर्ण तथा आश्रम के नियमों का पालन करना चाहिए। भक्ति योग में इसी तत्व को समझाया गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि भक्तियोग ही हमारे हृदय में भगवत भावों का उदय करवाएगा जिसके द्वारा सांसारिक नियमो के प्रति हमारी प्रवृति स्वाभाविक ही खत्म हो जाएगी अर्थात हरिभजन करते करते जब जीव के हृदय में भगवत भाव उतपन्न होने लगते हैं तो उसके अंदर सारी भोग प्रवृतियां खत्म हो जाती हैं और उसकी देह यात्रा तो स्वाभाविक रूप से ही चलने लगती है। अपने घर मे, स्त्री में व अपने शरीर सम्बन्धियों में आसक्त वैष्णवों को भक्तियोग रूपी अद्वितीय साधना को करना चाहिए। इस प्रकार की विष्णु भक्ति के द्वारा ही जीव का संसार के प्रति मैं और मेरा का झूठा भाव समाप्त हो जाता है। *भगवान के नाम और नामी अर्थात भगवान में कोई अंतर नहीं होता*
भेद बुद्धि के निवारण के लिए एक बात और भी है कि भगवान विष्णु का नाम, उनके रूप , उनके गुण में कोई अंतर नहीं है , इन्हें श्रीविष्णु से कभी पृथक नहीं मानना चाहिए। श्रीविष्णु तत्व अपने आप में चिन्मय हैं, अखंड हैं तथा विभु हैं। विष्णु तत्व से न तो कोई बड़ा है और न ही उसके बराबर है। अज्ञानता से भी यदि विष्णु के नाम, रूप, गुण आदि में भेद बुद्धि हो जाये अर्थात कोई भगवान को उनके नाम से अलग समझे , तो ऐसे जीव के लिए भगवत प्रेम की प्राप्ति असम्भव है। हाँ , ऐसी स्थिति में उसका नामाभास हो सकता है। सद्गुरु की कृपा से यदि उसकी भेदबुद्धि रूपी अनर्थ खत्म हो जाएं तो उसके हृदय में शुद्ध नाम प्रकाशित हो जाएगा।

*मायावादियों के कुतर्क एवं अपराध*
मायावादियों की शिक्षा के प्रभाव से अगर भगवान विष्णु के नाम, रूप, गुण आदि का भेद प्रकट होता है तो इससे श्रीकृष्ण के चरणों मे अपराध होता है। ऐसे अपराधों से कभी निवृति नहीं मिलती है। मायावादी कहते हैं कि -निरविशेष ,निर्विकार तथा निराकार ब्रह्म ही परतत्व है। मायावादियों का कहना है कि शून्यवाद ही सत्य है, बाकी सब केवल कुतर्क ही है। भगवान के नाम , उनका रूप आदि सब माया में ही कल्पित हैं। अर्थात अभी भगवान का जो स्वरूप आप देख रहे हो यह माया से बना है,जैसे ही माया हट जाएगी भगवान विष्णु निराकार ब्रह्म बन जाते हैं।परतत्व भगवान को सर्वशक्तिमान न मानना अर्थात परतत्व में सर्वशक्ति को न मानना ही प्रमाद है।जबकि यह सत्य है कि जो शक्तिमान ब्रह्मा हैं वही भगवान विष्णु हैं , सिर्फ नाम का ही अंतर है, यही वेदों का निर्णय है।

*विष्णु और ब्रह्म तत्व में सम्बन्ध*
भगवान विष्णु ही परतत्व हैं एवम सविशेष हैं। किंतु ज्ञान मार्गीय साधन से वह भगवान को निर्विशेष के रूप में अनुभव करते हैं। भगवान की अचिन्त्य शक्ति ही विचारों के इस विरोध का नाश करती है तथा साधक के हृदय में भगवान के प्रति एक सुंदर छवि को स्थापित करती है। जीवों की बुद्धि , स्वाभाविक ही अल्पकर है इसलिए वह परमेश्वर की अचिन्त्य शक्ति के भाव को ग्रहण करने में असमर्थ रहती हैं । अपनी बुद्धि से ईश्वर को स्थापन करने की कोशिश खण्डज्ञान होने के कारण ब्रह्मतत्व को भी छोटा कर देती है। मायावादी लोग तमाम देवताओं द्वारा आराधित भगवान विष्णु के परमपद को छोड़कर,एक कल्पित ब्रह्म में उलझकर भृमित से हो जाते हैं तथा अपना हित व अहित भी नहीं समझते। आत्मा के स्वरूपज्ञान को जो समझते हैं अर्थात जिन्हें अपने चिन्मय रूप का ज्ञान है , वे भगवान के रूप , गुण आदि को भगवान से अभिन्न मानते हैं। यही श्रीकृष्ण स्वरूप का विशुद्ध ज्ञान है, ये विशुद्ध ज्ञान श्रीकृष्ण से नित्य सम्बन्ध को जान लेने पर ही हो सकता है और ऐसा होने पर जीव , भगवान की हरिनाम के स्मरण व कीर्तन रूपी भक्ति को करता है।

*शिव और विष्णुतत्व में अभेदबुद्धि*
जड़ीय अर्थात दुनियावी नाम, रूप व गुण में जो भेद होता है , चिन्मयतत्व में वैसा भेद नहीं है। चिन्मयतत्व की यही तो विशेषता है । श्रीविष्णुतत्व में भेद ज्ञान ही अनर्थ है। शिव आदि देवताओं को भगवान से स्वतंत्र समझना बिल्कुल गलत है।

*भक्त और मायावादी के आचरण*
जिन भक्तों ने भगवान श्रीकृष्ण के नाम की शरण ले ली है वे अन्य देवता को छोड़कर एकमात्र श्रीकृष्ण का ही भजन करते हैं। हाँ, वे अन्य देवताओं व अन्य शास्त्रों की निंदा नहीं करते बल्कि वे तो सभी देवताओं को श्रीकृष्ण का दास मानकर उनका आदर करते हैं। ग्रहस्थ भक्त भगवान का प्रसाद अपने पितरों तथा देवी देवताओं को अर्पित करके उन्हें प्रसन्न करते हैं।वैष्णव लोग जहां जहां भी किसी देवी देवता का दर्शन करते हैं उन्हें श्रीकृष्ण का दास मानकर ही प्रणाम करते हैं।मायावादी लोग यदि भगवान की पूजा करते हैं , तो वैष्णव लोग उनका दिया प्रसाद इस भय से नहीं लेते क्योंकि उन्हें मालूम है कि मायावादी श्रीहरिनाम के चरणों मे अपराधी होते हैं तथा उनके द्वारा की गई पूजा भी श्रीहरि ग्रहण नहीं करते हैं। और और देवी देवताओं का प्रसाद नहीं लेना चाहिए, देवी देवताओं का प्रसाद लेने से अपराध होता है जो शुद्धभक्ति की साधना में हानि पहुचाता है। भक्त श्रीकृष्ण की पूजा करके उनका प्रसाद अन्य देवी देवताओं को अर्पित करते हैं । देवी देवताओं को दिया हुआ श्रीकृष्ण का प्रसाद लेने से अपराध नहीं होता तथा इस प्रकार देवी देवताओं का प्रसाद लेना हरिभक्ति में बाधक नहीं होता । शुद्ध भक्त श्रीहरिनाम के चरणों मे अपराधी नहीं होते हैं । वे हरिनाम संकीर्तन करके भगवत प्रेम प्राप्त करते हैं तथा हमेशा हरिनाम की जय जयकार करते हैं।

*अपराध की प्रतिक्रिया*
प्रमाद से यदि किसी और में विष्णु ज्ञान हो जाये, तब अनुताप करके, विष्णुतत्व का स्मरण करके , फिर से अपराध न हो इसके लिए सावधान रहना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण भक्तों के बांधव हैं , दया के सागर हैं। भगवान श्रीकृष्ण क्षमा के समुद्र हैं इसलिए वह अपने भक्तों के पहले किये हुए दोषों को क्षमा कर देते हैं। बहुत से देवी देवताओं की सेवा करने वाले का सँग त्याग देना चाहिए तथा अनन्य भाव से भगवान की सेवा करने वाले वैष्णव की सेवा पूजा करनी चाहिए। श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि जो लोग नामाचार्य श्रीहरीदास ठाकुर जी के चरणों में शरणागत होंगें , ये हरिनाम चिंतामणि उनका जीवन स्वरूप होगा।

पंचम अध्याय विश्राम

जय निताई जय गौर

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