mc 104

मीरा चरित 
भाग-104

प्रातः होते ही मीरा ने यमुना-स्नान की रट लगा ली। यमुना अभी दूर है, कहकर उन्हें पालकी पर चढ़ाया गया। चम्पा साथ बैठी।
‘वृन्दावन धाम ! यह तो है ही प्रेम-परवश प्राणों का आधार, उनके ह्रदय सर्वस्व की लीलास्थली, रसिकों का निवास-स्थल। दूर-दूर से प्यासे प्राण इस लीलाधाम को ताकते हुये चले आते हैं। बड़े-बड़े राजाओं के मुकुट यहाँ धूल में लोटते नजर आते हैं। महान दिग्विजयी विद्वान रजस्नान करके वृक्षों से लिपटकर आँसू बहाते हुये दिखते हैं। कहीं नेत्र मूँदे हुये आँसू बहाते, प्रकम्पित पुलकित देह, किसी घाट की बुर्जी पर या किसी वृक्ष की छाया में, या किसी विजन कुटिया में भक्त प्रेमी जन लीला दर्शन सुख में निमग्न है। जिस वृन्दावन की महिमा महात्मय के वर्णन में स्वयं ब्रजराजतनय अपने को असमर्थ पाते है, उसे मैं मूढ़ शुष्क ह्रदय कैसे कहूँ?’

सेवाकुन्ज के पीछे की गली में एक घर लेकर दो सेवकों और तीन दासियों के साथ मीरा रहने लगी। यद्यपि वह प्रारम्भ से ही नहीं चाहती थी कि वृन्दावन यात्रा में कोई भी उसके साथ आये, पर जिन्होंने अपनी जिंदगी की डोर उसके चरणों में उलझा दी है, उनका वह क्या करें?  उन्हें कैसे छोड़ें? चमेली बाई अपने पति शंकर और केसर बाई अपने पति केशव को साथ लेकर वृन्दावन के लिए प्रस्थान करते समय मीरा के पीछे चल दी थी। चमेली के कोई सन्तान नहीं थी और केसर ने अपना एकमात्र पुत्र गोमती को सौंपा। जब केसरबाई स्वामिनी के पीछे-पीछे चली तो केशव भी चल दिया।माँ माँ पुकारते हुये पुत्र गोविंद की ओर उसने एक बार घूम कर देखा और फिर मुँह फेर लिया।मीरा ने बार बार आग्रह किया कि वह लौट जाये, तब केसर ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया- ‘माँ बाप ने सरकार के विवाह के समय इन चरणों में सौंपा था। सेवा में पटु न होने पर भी ऐसा क्या महान अपराध बन पड़ा हुकम कि इस दासी को अनाथ होने का दंड मिले? यदि सेवा में नहीं रखने का निश्चय हो फिर तो इस गरीब दासी का भला क्या वश है? केवल एक अनुरोध है, आपके पीछे पीछे चलकर वृन्दावन में आप जहाँ रहेंगी, वहाँ दूर से दर्शन कर लिया करूँगी। बस, इतनी नियामत बख्शें आप इस किंकरी को।’
चमेली ने कहा- ‘वहाँ तो सब सीधे-सीधे मिलेगा नहीं। चम्पा श्री चरणों की सेवा करेगी, तब मैं लकड़ी लाना, आटा पीसना, कपड़े धोना, बर्तन मांजना बुहारी लगाना आदि कार्य कर दिया करूँगी। इतना जीवन आपकी सेवा में रहा है तो बाकी का क्यों अभिशाप बनें?’
चम्पा ने विवाह किया ही नहीं था। वह मीरा की दासी ही नहीं, अंतरंग सखी भी थी,  उसके भावों की वाहिका, अनुगामिनी, अनुचरी। कभी-कभी जब अंतरंग भावों की चर्चा होती तो उसके भावों की उत्कृष्टता देखकर मीरा चकित हो उठती। चम्पा से मीरा को स्वयं चिन्तन में सहायता मिलती। वे पूछतीं- ‘चम्पा ! कहाँ से पा गई तू यह रत्नकोष?’
वह हँसती- ‘सब कुछ इन्हीं चरणों से पाया है सरकार, और किसी को तो जानती नहीं मैं।’
कथा, सत्संग, मन्दिरों के दर्शन, भजन, कीर्तन नृत्य आदि का उल्लास और उत्साह ऐसा था कि मानों परमानन्द सागर में डुबकी-पर-डुबकी लग रही हों। मीरा की भजन ख्याति यहाँ तक पहुँच चुकी थी। जिसने भी सुना, वही दौड़ा-दौड़ा आया। आकर कोई तो प्रणाम करता और कोई आशीर्वाद देता। व्रज के संतों से विचार-विनिमय और भाव चर्चा करके मीरा तीव्रतापूर्वक साधन-सोपानों पर चढ़ने लगी। यद्यपि मीरा स्वयं सिद्धा संत थीं, पर यहाँ इस पथ में भला इति कहाँ है?

श्री जीव गोस्वामी पाद से मिलन.....

एक दिन किसी से पूज्य श्री जीव गोस्वामी पाद का नाम, उनकी गरिमा, उनकी प्रतिष्ठा सुनकर मीरा बाईसा उनके दर्शन के लिए पधारी। सेवक द्वारा उनकी भजन कुटीर में सूचना भेजकर वे प्रतीक्षा करने लगीं। 
‘गोस्वामी पाद किसी स्त्री का दर्शन नहीं करते’- सेवक ने कुटिया से बाहर आकर कहा।
मीरा हँस कर खड़ी हो गईं- ‘धन्य हैं श्री गोस्वामी पाद ! मेरा शत-शत शिरसा प्रणाम निवेदन करके उनसे अर्ज करें कि मुझ अज्ञ दासी से भूल हो गई जो दर्शन के लिए विनती की। मैंने अब तक यही सुना था कि वृन्दावन में पुरूष एकमात्र रसिकशेखर ब्रजेन्द्रनन्दन श्री कृष्ण ही हैं। अन्य तो जीव मात्र प्रकृति स्वरूप नारी है। आज मेरी भूल का सुधार करके उन्होंने बड़ी कृपा की। ज्ञात हो गया कि वृन्दावन में कोई दूसरा पुरुष भी अवतीर्ण हुआ है’- अंतिम वाक्य कहते-कहते मीरा ने पीठ फेरकर चलने का उपक्रम किया।
मीरा द्वारा सेवक को कही गई बात भजन कुटीर में बैठे श्री जीव गोस्वामी जी ने सुनी- ‘अविनय क्षमा हो मातः’- ऐसा कहते हुए गोस्वामी पाद कुटिया से दौड़ते हुये बाहर आये और मीरा के चरणों में दण्डवत् करते हुये पड़ गये।
‘आप उठें आचार्य’- वे इकतारा एक ओर रखकर हाथ जोड़ते हुये झुकीं- ‘मैंने तो कोई नई बात नहीं कही प्रभु ! यह तो सर्वविदित सत्य है, जैसा संतों के मुख से सुना है।’
‘सत्य है, सत्य है’- कहते हुये श्री गोस्वामी पाद उठे- ‘सत्य और सर्वविदित होने पर भी व्यवहार में जब तक नहीं उतारता जानकारी अधूरी रहती है माँ और अधूरा ज्ञान अज्ञान से बढ़कर दु:खदायी होता है’- उन्होंने दोनों हाथों से कुटिया की ओर संकेत करते हुये विनम्र स्वर में कहा -"पधार कर कृतार्थ करें दास को।’
‘ऐसी बात न फरमायें श्री गोस्वामी पाद ! आप ब्राह्मण कुल-भूषण ही नहीं, श्री चैतन्य महाप्रभु के लाड़ले परिकर हैं। मेरी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न देह आपकी चरण-रज स्पर्श की अधिकारी है’- कहते हुये मीरा ने झुककर श्री जीव गोस्वामी पाद के चरणों के समीप श्रद्धा से मस्तक रखा। श्री पाद ना-ना कहते रह गये।
‘अब कृपा करके पधारें’-श्री पाद ने अनुरोध किया। 
‘आगे आप, गुरूजनों के पीछे चलना ही उचित है’- मीरा ने मुस्कराते हुये कहा। ‘मैं तो बालक हूँ। पुत्र तो सदा माँ के आँचल से लगा पीछे-पीछे ही चलता है’- श्री गोस्वामी पाद ने विनम्रता से आग्रह किया।
इस समय तक कई संत महानुभाव एकत्रित हो गये थे। वे यह विनय-प्रेम-पूर्ण अनुरोध और आग्रह देखकर गदगद हो गये। एक वृद्ध संत के सुझाव पर कुटिया के बाहर चबूतरे पर सब बैठ गये।
क्रमशः

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