mc115

मीरा चरित 
भाग- 115

‘सो भी कहाँ हो पाता है....।’- उसने पश्ताचाप पूर्ण स्वर में कहा- ‘कृपा, मेहरबानी होगी यदि एक पद.... इस गुस्ताखी के लिए माफी बख्शें’- उसकी आँखों से आँसू ढ़ल पड़े।

सुणयाँ हरि अधम उधारण। 
अधम उधारण भव्-भय तारण॥
गज डूबताँ, अरज सुन,धाया   मंगल    कष्ट   निवारण॥
द्रुपद सुता सो चीर बढ़ायो,दुशासन मद मारण॥
प्रहलाद री प्रतिज्ञा राखी,हिरण्याकुश उदार विदारण॥
ऋषि पत्नी किरपा पाई,विप्र सुदामा विपद निवारण॥
मीरा री प्रभु अरजी म्हारो,अब अबेर किण कारण॥

‘प्रभु श्री गिरिधर गोपाल के दर्शन के यदि अनधिकारी न समझा जाये....’- उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
‘संगीताचार्य जी ! मानव तन की प्राप्ति ही उसका सबसे बड़ा अधिकार हैं। सबसे बड़ी पात्रता हैं। अन्य पात्रताएं हो या कि न हो, जैसा है, जिस समय है, भगवत्प्राप्ति का अधिकारी हैं। अब वह न चाहे, तो यह अलग बात है’- मीरा ने कहा।
‘क्या चाहते ही मानव को प्रभु दर्शन हो सकते हैं?’
‘हाँ ! एक यह ही तो मनुष्य के बस में है। अन्य सभी कुछ तो प्रारब्ध के हाथ में हैं। जैसे मनुष्य धन, नारी, पुत्र, यश चाहता है, वैसे ही यदि हरिदर्शन चाहे, उसकी अन्य चाहें तो प्रारब्ध के हाथों कुचली जा सकती हैं, किन्तु इस चाह को कुचलने वाला यदि वह (मनुष्य) स्वयं न हो तो महाकाल भी ऐसी हिम्मत नहीं कर सकते’- मीरा उठ खड़ी हुईं - ‘पधारे, दर्शन कर लें।’
मंदिर कक्ष में जाकर उन्होंने प्रभु के दर्शन किये। प्रौढ़ व्यक्ति के प्रणाम का अनुकरण करते हुये, युवक ने अपने खीसे में से हीरे की बहुमूल्य कंठी निकाली और आगे बढ़ कर प्रभु को अर्पण करने लगा। 
तभी मीरा बोल पड़ी- ‘नहीं शाह ! यह तो प्रजा का धन है। इसे उन्हीं दरिद्रनारायण की सेवा में लगाइये। जिस राज्य की प्रजा सुखी हो उस राज्य का नाश नहीं होता। आप उदारता और नीतिपूर्वक प्रजापालन करें। ये तो बस भाव के भूखे हैं -

भावना रो भूखो म्हारों साँवरो,भावना रो भूखो।
सबरी रा बेर सुदामा रा चावल, भर भर मुठ्या ढूका॥
दुरजोधन रा मेवा  तयाग्या, साग  विदुर  घर लुको।
करमा बाई रो खीच आरोग्यो लूको गण्यो नहीं सूखो।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, औसर कबहूँ  ना चुको॥
           
युवक ने एक बार डबडबायी आँखों से उनकी और देखा और हाथ की कंठी गिरधर के चरणों में रख दी। 
‘आज्ञा हो तो एक अर्ज करूँ?’- प्रसाद-चरणामृत ले लेने के पश्चात प्रणाम करके चलने को उद्यत होते हुए प्रौढ़ व्यक्ति ने पूछा।
‘फरमाईये’
‘आपने अभी इनको शाह कहकर सम्बोधित किया....’
‘क्या यह ठीक नहीं है?’- मीरा ने मुस्कुराकर कहा- क्’या ये इस देश के शासक और आप इनके दरबारी गायक नहीं?’
‘धृष्टता क्षमा हो सरकार।मैं तो यही जानना चाहता था, कि यह रहस्य आपको कैसे ज्ञात हुआ? हम तो दोनों छद्मवेश में हैं और हमारे अतिरिक्त कोई तीसरा व्यक्ति इसकी जानकारी भी नहीं रखता।’
‘मेरे भीतर भी तो कोई बसता है’- मीरा ने धीरे से हल्के स्वर में कहा।  
वह स्वर सुनते ही दोनों शरविद्ध पशुओं की भाँति मीरा के चरणों में गिर पड़े।

नवीन दुर्ग का निर्माण करने के विचार से बादशाह अकबर अपने दरबार के उमरावों के साथ स्थान का निरिक्षण करने के लिए आगरा आया। वहीं मीरा की प्रशस्ति सुनी। उनके रूप, वैराग्य, पद-गायन के बारे में सुना। चित्तौड़ जैसे प्रसिद्ध राजवंश की रानी होकर भी सब कुछ छोड़कर वृन्दावन की वीथियों में मीरा एकतारा ले गाते हुए ईश्वर को ढूँढती फिरती है। मंदिरों में जब वह पाँव में घुंघरू बाँध कर गाते हुए नाचती हैं तो देखने और सुनने वाले सुध-बुध भूल जाते हैं। किसी-किसी को उसके घुंघरूओं और एकतारे के साथ श्री कृष्ण की वंशी भी सुनाई दी। कोई कहते हैं कि वह गाते समय संसार भूल जाती हैं, कोई कहते हैं कवियित्री हैं और गाते समय पद अपने आप बनते चले जाते हैं।उसकी आँखों से धारा प्रवाह आँसू बहते हैं। वे इस लोक की स्त्री लगतीं ही नहीं, आदि-आदि।
बाईस वर्ष का युवक बादशाह उस राजपूती नाजनीन को देखने को आतुर हो उठा। अपने दरबारी गायक तानसेन से उसने अपने ह्रदय की बात कही।
‘हुजूरे आली, अगर जनाब बादशाही तौर-तरीके से उनके दर्शन के लिए तशरीफ ले जातें हैं तो वे कभी भी मिलना कबूल नहीं करेगीं। माना कि उन्होंने पर्दा छोड़ दिया हैं, मगर वे खुदा की दीवानी हैं। वह आपके रुतबे का ख्याल नहीं करेंगी। हो सकता है जहाँपनाह वह आपको मिलने से इन्कार कर दें।’
‘लेकिन मैं उनके दर्शनों के लिए बेताब हूँ तानसेन ! इतना ही नहीं, मैं उनका गाना भी सुनना चाहता हूँ।’
‘यह तो और भी मुश्किल कार्य हैं जहाँपनाह ! यदि आप मेरे साथ सादे हिन्दू वेश में पैदल तशरीफ ले जायें, तो मुमकिन हैं कि हुजूर की ख्वाविश पूरी हो जाए।’
‘कोई खतरे का अंदेशा तो नहीं होगा?’
‘नहीं आलिजाह ! खुदा के दीवाने ओलिया और फकीरों की ओर उठने वाले पाँवो के सामने आने का खतरा तो खतरे भी नहीं उठाते।अलबत्ता वैसा करने की हिमाकत कर भी लें तो उनका अपना वजूद खतरे में पड़ जाता है।’
‘यहाँ से घोड़ों पर चला जाय और फिर वृन्दावन में पैदल।’
मैं जैसे कहूँ-करूँ, हुजुर को नकल करनी होगी’-तानसेन हँसे।
‘मंजूर है मौसिकी आलिया ! जैसा तुम कहो। हम यह भी देखेगें कि कोई तुमसे ज्यादा बेहतर गा सकता हैं कि नहीं और राज्य, जर, जमीन सब छोड़ कर, फकीरी लेकर उसने क्या हासिल कर लिया है।’
पूछते-पूछते वे पहुँच गये।जो कुछ देखा, अकबर ने उसकी कल्पना भी नहीं की थी। 
‘तानसेन, औरतजात में इतनी अक्ल, हुस्न और हुनर? खुदा का ऐसा करिश्मा हर कहीं देखने में नहीं आता।सब कुछ छोड़ देने के बाद भी वे हम, तुम से ज्यादा खुश नजर आती है।उस पर नजर पड़ते ही दिल-दिमाग थम गये थे। एक अजीब ठंडक, एक सुकून महसूस होता था वहाँ’- अकबर तानसेन से लौटते समय कहा।
‘खुदा के दीवानों की दुनिया ही और होती है आलीजाह। उनका गाना खुदा के हुजूर में उनकी वह बन्दगी था, आह ! वह मिठास दुनियाँ का कोई गाने वाला नहीं पा सकता।’
‘तुमने जो वहाँ गाया तानसेन, वह भी तुम्हारे पहले के गाये सभी गानों से बेहतर था।मैं तो हैरान था कि तानसेन ने आज तक हमारे हुजूर में ऐसा क्यों नहीं गाया?’
क्रमशः

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला