mc 105

मीरा चरित 
भाग- 105

सबने मीरा से आरम्भ करने का आग्रह किया-

अब तो हरि नाम लौ लागी।
सब जग को यह माखन चोरा नाम  धरयो बैरागी॥
कित छोड़ी वह मोहन मुरली कित छोड़ी वह गोपी।
मूँड़ मुँड़ाई डोरी कटि बाँधे माथे मोहन टोपी॥
मात जसोमति माखन कारन बाँधै जाके पाँव।
स्यामकिसोर भये नव गौरा चैतन्य जाको नाँव॥
पीताम्बर को भाव दिखावै कटि कोपीन कसै।
गौर कृष्ण की दासी मीरा रसना कृष्ण बसै॥

पुन: आग्रह करने पर उन्होंने गाया-

आली म्हाँने लागे वृन्दावन नीको।
घर - घर  तुलसी ठाकुर पूजा दरसण गोविन्दजी को॥
निरमल नीर बहे जमुना को भोजन दूध दही को।
रतन सिंघासण आप विराज्या मुकट धरयो तुलसी को॥
कुंजन- कुंजन फिरूँ साँवरा सबद सुणत मुरली को।

श्री जीव गोस्वामी पाद ने मीरा के पूछने पर श्री चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांत और प्रेम भक्ति का वर्णन किया।अन्य संतों ने भी चर्चा में भाग लिया।श्री जीव गोस्वामी पाद मीरा के विचारों की विशदता, भक्ति की अनन्यता और प्रेम की प्रगाढ़ता से, भक्ति की अनन्यता और प्रेम की प्रगाढ़ता से बहुत प्रभावित हुये। पुनः पधारने के आग्रह के साथ कुछ दूर तक मीरा को पहुँचा कर उन्हें विदाई दी।

चिन्मय वृंदावन में मीरा.....

अचानक मीरा की नींद उचट गई। उन्हें लगा कोई खटका सा हुआ है।खटके का कारण जानने के लिए उन्होंने आँखें खालीं।मिट्टी की दीवारों और खपरैल से छाये हुये इस साधारण से कक्ष में भूमि पर ही मीरा के सोने के लिए बिछौना बिछा हुआ था।पैरों की ओर तीनों दासियाँ सोयी थीं। दोनों सेवक अन्य दूसरे कक्ष में थे।अंधेरे से अभ्यस्त हो जाने में आँखों को दो क्षण लगे।मीरा ने देखा कि चम्पा अपनी शय्या से उठ खड़ी हुई है, किन्तु क्या यह वही उनकी प्रिय दासी और सखी चम्पा है? हाँ और नहीं भी। वृन्दावन आते समय उनके स्वयं की और दासियों की देह पर एक भी अलंकार नहीं था। सबके वस्त्र सादे और साधारण किस्म के थे, किन्तु इस समय चम्पा दिव्य रत्न जड़ित वस्त्र आभूषणों से अलंकृत खड़ी थी।यों भी चम्पा गौरवर्णा थी, किन्तु इस समय उसका वर्ण स्वर्ण चम्पा के समान था।उसके नीलवर्ण वस्त्र, गुजरिया के समान ऊँचा घेरदार घाघरा, कंचुकी और ओढ़नी, पैरों में मोटे चैरासी घुँघरू के नूपुर गूँथे छड़े, हाथों में दो मोटे-मोटे स्वर्ण कंगनों के बीच पतली हीरक जटित चूड़ियाँ थीं।उसकी मुख शोभा के सम्मुख मीरा का अपना सौन्दर्य फीका लगता था। उसके नेत्रों में कैसी सरलता....।
मीरा ने देखा कि चम्पा उसकी ओर बढ़ी उसकी प्रथम पदक्षेप से नुपूरों की क्षीण मधुर झंकार ने ही उन्हें जगाया था। दो पद आगे बढ़कर वह नीचे झुकी और मीरा का हाथ थामकर बोली- ‘माधवी, उठ चल।’
मीरा चकित रह गई। चम्पा सदा उन्हें आदरपूर्ण शब्दों से सम्बोधित करती रही है। यद्यपि वे उसे दासी से अधिक सखी मानती थीं, पर उसने अपने को दासी से अधिक कभी कुछ नहीं समझा। वही चम्पा आज इस प्रकार बोल रही है और यह माधवी कौन है? क्षण मात्र में ये सब विचार उनके मस्तिष्क में घूम गये।
 चम्पा ने फिर उठने का संकेत किया तो वे उठकर खड़ी हो गईं। मीरा ने कुछ कहना चाहा, पर चम्पा ने अपनी चम्पक कलिका सी अंगूठी विभूषित तर्जनी अँगुली उनके पाटल अधरों पर धरकर चुप रहने का संकेत किया। ऐसा लगता था कि इस समय चम्पा स्वामिनी है और मीरा मात्र दासी। वे दोनों धीरे-धीरे चलकर द्वार के समीप आईं। अपने आप रूद्ध द्वार-कपाट उदघाटित हो गये और वे दोनों बाहर आ गईं।
मीरा ने देखा कि जिस वृन्दावन में वह रहती, घूमती हैं, वह यह नहीं है। वृक्ष, लता, पुष्प सब दिव्य हैं। पवन, धरा और गगन भी दिव्य हैं।उनकी दिव्यता कहने में नहीं आती।उसे कहने के लिएवैसे शब्दों का निर्माण नहीं हुआ है, अत: एक ही शब्द को बार बार दोहरा कर सब उतार चढ़ाव को बराबर कर देना पड़ेगा।हवा चलती है तो ऐसा लगता है कि कानों के समीप मानों चुपके-चुपके कोई भगवन्नाम ले रहा हो। वृक्षों के पत्ते हिलते हैं तो मानों कीर्तन के शब्द मुखरित होते हैं। रात्रि होने पर भी भवँरे गुनगुना रहे हैं और वह गुनगुनाहट और कुछ नहीं भगवन्नाममयी है।तनिक ध्यान देने पर लगता है कि सम्पूर्ण प्रकृति श्री राधाकृष्ण के गुणगान में व्यस्त है।सघन वन पार कर के वे दोनों गिरिराज की तरहटी में पहुँचीं। गिरिराज की नाना रत्नमयी शिलाओं से प्रकाश विकीर्ण हो रहा था। तरहटी में कदम्ब वृक्षों से घिरा हुआ निकुञ्ज भवन दिखाई दिया। कैसा आश्चर्य? इस भवन की भीतियाँ, वातायन आदि सब कुछ कमल, मालती, चमेली और मोगरे के पुष्पों से निर्मित हैं। गिरिराज जी का दर्शन करते ही मीरा को देखा-देखा सा लगा।ऐसा लगता था मानों उसकी स्मृति पर हल्का सा पतला पर्दा पड़ा हुआ है। अभी याद आया, अभी याद आया की ऊहापोह में वह चलती गई।

निकुञ्ज द्वार पर खड़ी एक रूपसी ने चम्पा को देखकर एकदम होते हुए पूछा- ‘अरे चम्पा ! आ गई तू?’
‘क्यों, बहुत दिन हो गये?- चम्पा ने उसे गले लगाते हुये कहा। 
‘नहीं अधिक कहाँ? अभी कल परसों ही तो गई थी तू? यह कौन? माधवी है न?’
‘माधवी? यह सब मुझे माधवी क्यों कहते हैं?’- मीरा के अन्तर में एक क्षण के लिए यह विचार आया और फिर जैसे बुद्धि लुप्त हो गई हो।
‘श्री किशोरीजू, श्री श्यामसुन्दर ....।’-चम्पा ने बात अधूरी छोड़ कर उसकी ओर देखा। 
‘आओ न, भीतर तुम दोनों की ही प्रतीक्षा हो रही है। मैं तुम्हारी अगवानी के लिए ही तो यहाँ खड़ी थी।चलो तुम्हें लिवा ले चलूँ।’
‘चलो रूप, कल और आज दो ही दिन में ऐसा लगता है कि मानों दो करोढ़ युग बीत गये हों।प्रियाधन प्रसन्न हैं न?’- चम्पा रूप के साथ चलते हुई कहने लगी।
‘हाँ, सब प्रसन्न हैं। किशोरीजू तो तुम्हारे त्याग और प्रेम की प्रशंसा करती रहती हैं।’
‘मेरी क्या प्रशँसा रूप और क्या त्याग? प्राणधन श्यामसुन्दर और प्राणेश्वरी श्री किशोरीजू जिसमें प्रसन्न रहे वही हमारा सर्वस्व है।जिससे ये प्रसन्न रहें, वही करने में हमें सुख है।’
प्रथम कक्ष में बहुत सी सखियाँ बैठी थीं।इन्हें देखकर हँसती हुई उठ खड़ी हुईं- ‘चलो, किशोरीजू प्रतीक्षा कर रही हैं।’
अगले कक्ष में प्रवेश करते ही जैसे मीरा, मीरा न रही।
क्रमशः

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