mc 106

मीरा चरित 
भाग- 106

प्रेम पीयूष से मीरा का ह्रदय यों ही सदा छलकता रहता था, पर आज इस क्षण तो जैसे उनका अंग अंग, रोम रोम रस-सागर बन गया।नीलघनद्युति मयूरमुकुटी श्यामसुन्दर और स्वर्ण चम्पकवर्णीया श्री किशोरीजू की दृष्टि उस पर पड़ने से वह आपा भूल गई। रूप और सौरभ की घनछटा छाई थी।मीरा की प्रत्येक इन्द्रिय रस सागर में निमग्न होकर अपना अस्तित्व खो बैठी। नेत्र उस घनश्याम चिदघन वपु के सौन्दर्य-सिंधु की थाह पाने में असमर्थ-थकित होकर डोलना भूल गये। नासिका सौरभ सिन्धु में खो गई और कर्ण? तभी आकर्षण की सीमा समान उनके वे दीर्घ नेत्र उसकी ओर हुये और कर्णों में मधु सिंचन हुआ- ‘माधवी ! तुझे माधवी कहूँ कि मीरा?’- वे हँसे और चहुँ ओर माधुर्य की लहरें उठने फैलने लगीं।
श्री किशोरीजू के संकेत पर चम्पा मीरा को लेकर उनके समीप गई। मीरा और चम्पा दोनों ने राशि-राशि सौंदर्य के उदगम उन चरणों पर सिर रखा।उस महाभाव वपु के स्पर्श ने मीरा की चेतना हर ली।नेत्र खुले तो वनमाली का करकमल उसके मस्तक पर घूम रहा था, वे बड़े बड़े नयन उसके मुख पर टिके थे। मीरा के नेत्रों से आँसुओं की धारायें बह चलीं।
‘माधवी’- अतिशय प्यार भरा सम्बोधन सुनते ही मीरा ने आँसू से भरी आँखें उठाकर देखा और दोनों हाथ कटि में लपेट कर उनकी गोद में सिर घर दिया-‘सुन माधवी, अभी तेरी देह रहेगी कुछ समय तक संसार में’- उन्होंने कहा।
वह ऐसे चौंक पड़ी मानों जलते हुये अंगारों पर पैर पड़ गया हो। उसने मौन पलकें उठाकर उनकी ओर देखा। पीड़ा का महार्णव लहरा उठा हो मानों उस दृष्टि में- ‘जन्म जन्म की अपराधिनी हूँ मैं, पर तुम करूणासागर हो, दया निधान हो, मेरे अपराधों को नहीं, अपनी ओर देखकर अपनी माधवी को चरणों में पड़ी रहने दो। जगत की मीरा को मर जाने दो। अब और विरह की पीड़ा सही नहीं जाती... नहीं....  सही..... जाती।’- कलेजा फाड़कर रूदन का वेग मानों बाहर निकल पड़ना चाहता हो।ऐसे वह दबी दबी घुटी घुटी आवाज खो गई।

‘माधवी’- गला भर आया। करुणार्णव के नेत्रों से कई बूँद मीरा के मस्तक पर चू पड़ीं।चौंककर मीरा ने सिर उठाया।उनकी आँखों में आँसू देख वह व्याकुल हो उठी- ‘मैं रहूँगी..... रहूँगी, जहाँ कहो, वही रह लूँगी।आप प्रसन्न रहें, मेरे स्वामी।आप प्रसन्न रहें’- उसने अपने आँचल से कमल दृग पोंछ दिये।
‘प्राकृत देह से, यहाँ मेरी कृपा के बिना कोई प्रवेश नहीं कर सकता माधवी। यहाँ केवल भावदेह अथवा चिन्मयदेह का ही प्रवेश हो पाता है किंतु अब तेरी देह पूर्णत: प्राकृत नहीं रही। यहाँ प्रवेश पाकर अब यह देह आलौकिक हो गयी है। देखने में भले ही साधारण लगे, पर वसी है नही।तेरी इस देह को ना अग्नि जला सकती है, ना जल डुबा सकता है, ना पवन सुखा सकता है। वर्षों तक पड़ी रहने पर भी यह देह विकृत नहीं होगी। तेरी यह देह धरा पर पड़े रहने के योग्य नहीं हैं किन्तु.....।’
‘किन्तु क्या मेरे प्राण, अपनी सेविका से क्या संकोच? जो भी हो निःसंकोच कहिये। दासी वही करेगी, जो प्राणसंजीवन को प्रिय हो।’
‘संसार में रहकर कुछ वर्षो तक भक्ति भागीरथी प्रवाहित कर, माधवी। तेरी आलौकिक प्रीति, भक्ति, विरक्ति, रहनी, सहनी, करनी, कहनी और प्राण परित्याग लीला को देखकर घोर कलिकाल में भी भक्ति की ओर लोग आकर्षित होंगें।तेरा नाम पढ़-सुनकर के लोग कठिन से कठिन यातना सहकर भी भक्ति करेंगे। तेरी दृढ़ता उन्हें वैराग्य की असिधार पर चढ़ने की प्रेरणा देगी। लोक-कल्याण के लिए कुछ समय और ...!’- कंठ भर आया निजजनप्राण का।
‘लोक-कल्याण के लिए नहीं प्राणधन, आपकी इच्छा के लिए रहूँगी। जब तक आप चाहेंगे, तब तक रहूँगी।आप खेद न करें’ - मीरा उठकर हाथ जोड़ते हुये घुटनों के बल बैठ गयी 
‘खेद नहीं माधवी ! मुझे स्वयं तेरा वियोग असह्य हो जाता हैं। मैंने ही तो तुझे इस आनंद सागर से दूर जा पटका। अत्यंत कठोर हूँ मैं’- उन रतनारे नेत्रों में आँसू देख मीरा घबरा गई। 
‘जीव अपने ही कर्मों से कष्ट पाता है प्रभु ! आपने पल-पल मेरी सँभाल की है। आपकी कृपा ने प्रत्येक विपत्ति को फूल बना दिया’- मीरा उठकर जाने को प्रस्तुत हुई।उसने मन ही मन कहा- "इस दिव्य प्रदेश में प्रवेश ! अहा, इस करुणा की थाह कहाँ है?’
‘कुछ चाहिये’- मीरा के दोनों हाथों को अपने हाथों में लेकर उन्होंने पूछा।
‘सहन-शक्ति, नाम और यह मनोहारी मूर्ति मेरे तन मन नयन में बसी रहे’
‘यह तो पहले से ही तेरे अधिकार में हैं। मैं क्या प्रिय करूँ तेरा’
‘मुझे भुला ना दें’- कहते-कहते मीरा के नेत्र पुन: भर आये। 
असंयत होकर श्याम सुंदर ने उसे भुजाओं में भर लिया।
‘चम्पा अब यही रहेगी।वह अपनी इच्छा से तेरे साथ रही इतने समय तक।’

मीरा ने स्वीकृति में सिर हिला दिया- ‘उनका साथ बहुत बड़ा संबल रहा।’
उन्होंने ललिता को पुकारा।ललिता के आने पर उससे कहा- ‘ललिता, इसे पहुँचा आ और नित्य प्रति रात्रि इसे साथ लेकर यहाँ की लीला-स्थलियों के दर्शन करा देना। यदा-कदा यहाँ भी लाती रहना।’
‘राधा बहिन का आग्रह है कि पूर्व जीवन की स्मृति भी करा दी जाय।’
‘यही उचित है। समय और स्थान देखकर हो, अन्यथा....’
‘वह ध्यान में रख लूँगी’- ललिता ने कहा।
‘श्री किशोरीजू के दर्शन कर लूँ’- मीरा ने कहा।
‘चलो’-  कहकर ललिता उसे साथ ले निकुञ्ज महल के द्वार की ओर चली। ‘करूणामयी’- कहते हुये मीरा ने उन अमल धवल चरणों पर अपना सिर रख दिया।
‘उठ बहिन ! तेरे कलुष का निवारण हुआ’- कहते हुए श्री किशोरीजू ने मीरा के सिर हाथ रखा- ‘जब तक तुम वृन्दावन में हो, तब तक यह ललिता तुम्हें सब कुछ समझायेगी और दिखायेगी। तुम अधीर न होना। श्यामसुन्दर करूणावरूणालय हैं। उनके प्रत्येक विधान में जीव का मंगल ही मंगल निहित है, अतः घबराना नहीं। अन्त में तुम मुझे ही प्राप्त होओगी’- श्री जी ने अपने मुख का प्रसादी पान देकर पूछा- ‘कुछ और चाहिये माधवी?’
‘ऐसी उदार स्वामिनी से मैं क्या माँगू, जो सब कुछ देकर भी पूछती हैं कि क्या चाहिये? अब तो बस मात्र चरणरज का आश्रय ही चाहिये’- कहते हुए मीरा ने उनके चरणों के नीचे की धूलि मुठ्ठी में उठाकर अपनी आँचल के छोर में बाँध ली।
क्रमशः

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