mc 109
मीरा चरित
भाग-109
संत विभोर हो झूमने लगे, नेत्र बंद कर दोनों हाथ उठाकर वे गा उठे-
चाकरी में दरसण पास्यूँ सुमिरण पास्यूँ खरची।
भाव भगति जागीरी पास्यूँ तीनूँ बाताँ सरसी।
तीनूँ बाताँ सरसी, तीनूँ बाताँ सरसी॥
‘धन्य-धन्य मीरा ! आज मैं धन्य हो गया। वृन्दावन की प्रेममयी धरा और तुम सी प्रेमदीवानी का दर्शन पाकर मैं सचमुच धन्य हो गया।’
‘ऐसा क्यों फरमाते हैं महाराज ! प्रेम भक्ति मैं क्या जानूँ ? मुझे तो अपने गिरधरलाल अच्छे लगते हैं। उनकी बात करने वाला अच्छा लगता है।उनकी चर्चा अच्छी लगती है।उनसे सम्बन्धित सभी कुछ अच्छा लगता है।क्या अच्छा लगना प्रेम होता है? प्रेमी तो आप हैं भगवन ! न जाने कहाँ से इस अनधिकारिणी को दर्शन देकर कृतार्थ करने पधारे हैं’- संत के अलाप कंठ की गहराई और राग की शुद्धता ने मीरा को चकित कर दिया।उसने पुन: प्रार्थना की- ‘अब इन श्रवणों को पथ्य मिले।’
‘बेटा थक गई हो क्या?’
‘नहीं महाराज ! हरि गुणगान से थकान उतरती है, चढ़ती नहीं। फिर संतों के दर्शन और सत्संग में तो मेरे प्राण बसते है। यदि कुपात्र न समझेी गई होऊँ तो आपके परिचय की उत्कंठा उठआई है।’
‘साधु का क्या परिचय पुत्री’- वह हँस दिए- ‘कभी सचमुच आवश्यकता पड़ी तो स्वयं जान जाओगी’- वह फिर हँसे, ‘आज तुम्हें थकाये देता हूँ’
‘यह सहज सम्भव नहीं है प्रभु’- मीरा ने हँसकर उत्तर दिया और कर पल्लव में करताल खड़-खड़ा उठी-
मैं गिरधर के घर जाऊँ।
गिरधर म्हाँरो साँचो प्रीतम देखत रूप लुभाऊँ॥
मीरा नृत्य के लिए उठ खड़ी हो हुई।उसी समय श्री जीव गोस्वामी पाद आ गये। परस्पर नमन के पश्चात उन्होंने वृद्ध संत को प्रणाम किया और केसरबाई के द्वारा बिछाई गद्दी पर बैठ गये। केसर ने मीरा के चरणों में नुपूर बाँधे और वह मंजीरे लेकर चमेली के पास बैठ गई-
मैं गिरधर के घर जाऊँ।
गिरधर म्हाँरो साँचो प्रीतम देखत रूप लुभाऊँ॥
रैण पड़े तब ही उठि जाऊँ भोर भये उठी आऊँ।
रैण दिना वाँके संग खेलूँ ज्यूँ त्यूँ ताहि लुभाऊँ॥
जो पहिरावै सो ही पहिरूँ जो दे सोई खाऊँ।
म्हाँरी वाँकी प्रीत पुराणी उण बिन पल नू रहाऊँ॥
जहाँ बिठावैं तितही बैठूँ बैचे तो बिक जाऊँ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बार-बार बलि जाऊँ॥
मीरा को भावावेश हो आया।संत और गोस्वामी जी विभोर विह्वल थे।बिना रूके नाचते हुये मीरा ने दूसरा पद गाया-
आली रे म्हाँरे नैनन बान पड़ी।
चित्त चढ़ी म्हाँरे माधुरी मूरत हिय बिच आन गड़ी।
कब की ठाढ़ी पंथ निहारूँ अपने भवन खड़ी॥
अटक्या प्राण साँवरी सूरत जीवन मूल जड़ी।
मीरा गिरधर हाथ बिकाणी लोग कहे बिगड़ी॥
आली री म्हाँरे नैनन बान पड़ी।
राग तिलक कामोद की वर्षा में सब भीग गये।पद-गायन के बीच में ही वृद्ध संत ने ललक करके चमेली के हाथ से ढोलक ले ली और श्री जीव गोस्वामी पाद ने केसर से मञ्जीरें देने का संकेत किया। दोनों ही उमंग के साथ बजाने लगे। कभी-कभी महात्माजी बीच में लम्बा आलाप लेते और सम पर लाकर छोड़ते ही सब झूम जाते। मीरा भाव के अनुसार मंद, मध्यम और तीव्र गति में नृत्य कर रही थी। उसकी कनक वल्लरी सी कोमल देह और मृदुल मृणाल से बाहु सफल भावभिव्यक्ति की सार्थकता दर्शा रहे थे। मीरा के मुख की दिव्य कान्ति उसके किसी अन्य लोक में सन्निधि की साक्षी दे रही थी। नेत्रों की वर्षा कभी थमती और कभी तीव्र होती। कभी मीरा के सुन्दर नयन समर्पण के भावाधिक्य में मुँद जाते और कभी दर्शन के आह्रलाद में विस्फुरित हो पलकों को झपकाना भूल जाते। दिनमणि ढ़ल गये तो मीरा ने करताल रखकर संतों को प्रणाम किया।
द्वापर की माधवी ही कलि में मीरा.....
मीरा मध्य रात्रि तक ललिता की प्रतीक्षा में जागती। वह उनका संकेत पाते ही उठकर चल देती।नित्य नवीन लीलास्थली में नव-नव लीला दर्शन होता उन्हें। वे नित्य रात को ही जाती, किन्तु लीला यदि दिन की है जैसे धेणु-चारण, कालिय दमन, माखन चोरी, दान लीला, पनघट लीला इन सबका दर्शन करते समय उन्हें दिन ही दिखाई देता। वे भूल जातीं कि अभी अर्धरात्रि में वह शय्या से उठकर आयी हैं। वे केवल देखती ही नहीं, उन लीलाओं में सम्मिलित भी होती। ललिता उन्हें सदा अपने समीप रखती। लीलाओं में श्री किशोरीजू का सरल शान्त भोलापन देखकर वह न्यौछावर हो-हो जाती। श्यामसुन्दर की चतुराई, उनका औरों से छिपाकर नेत्रों द्वारा संकेत करना, अचगरी, अपनत्व, ठिठौली और उनका प्रेम मीरा के रक्त की एक एक बूँद में उतर गया। उसका रोम-रोम श्याममय हो गया। सबसे अन्त में देखा मीरा ने अपना माधवी रूप।
ब्रज के एक छोटे से गाँव में पितृहीन गोपकुमारी माधवी अपनी माँ की गोद में खेल रही है।पिता ने उसका ब्याह नंद व्रज के एक गोपकुमार सुन्दर से कर दिया हैं। विवाह के कुछ ही समय पश्चात् पिता का देहान्त हो जाता है।बड़ी होने पर नन्दीश्वर पुर से गौना करवाने का समाचार आया।माधवी की सुन्दरता की सभी लोग प्रशंसा करते।लोग उसे लक्ष्मी और शैलजी की उपमा देते। इसी बीच सुना कि नंदरायजी के पुत्र को जो एकबार देख लेता है, वह बौरा जाता है। स्त्रियाँ अग-जग कहीं की नहीं रह जाती। केवल उसके दर्शन से ही लोग पागल नहीं होते, जो कदाचित उसकी वाणी अथवा वंशी का स्वर भी कान में पड़ जाये, तब भी तन-मन का विघटन हो जाता है। डरकर मैया बेटी माधवी को शिक्षा देने लगी कि भूलकर भी वह कभी नंदरायजी के उस सलोने सुत को न स्वयं देखे न अपना मुख उसे दिखाये, अन्यथा उसके पातिव्रत्य की मर्यादा भंग हो जायेगी। माँ उसे पतिव्रत धर्म की महिमा एवं मर्यादा सुनाती और उसके भंग होने की हानि भी समझाती। भोली माधवी मैया की एक-एक बात एक-एक शिक्षा गाँठ में बाँध लेती। उसने मन-ही-मन प्रतिज्ञा की कि किसी प्रकार भी वह व्ररज के युवराज को नहीं देखेगी और न ही स्वयं को देखने देगी।
अंत में वह दिन भी उदित हुआ जब कि रथ लेकर उसक पति सुंदर उसे लिवाने आया। जैसा नाम था, वैसा ही सुंदर था सुंदर। समय पर माँ ने एक बार और अपनी शिक्षा की याद दिलायी। सबने आँखों मे आँसू भरकर उसे विदा किया।
क्रमशः
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