mc113

मीरा चरित 
भाग- 113

स्वभाव और जीवन में परिवर्तन.....

पाँच वर्ष तक वृन्दावन में वास करते हुए मीरा व्रज में नित्य दिव्य लीला का रस लेती रहीं। आरम्भ में कुछ समय तो ललिता उन्हें लेने आती।कुछ समय पश्चात् वह वहाँ के आह्वान पर स्वयं ही उठकर चल देतीं और प्राप्त संकेत के अनुसार निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच जाती। वहाँ रहकर मीरा ने असंख्य लीलाओं में सम्मिलित हो लीला-रस का आस्वादन किया। उनका स्वभाव सर्वथा बदल गया था।
चमेली को आश्चर्य होता- ‘पहले चित्तौड़ में बाईसा हुकम को भावावेश होता तो कभी-कभी आठ-आठ दिन तक वे अचेत रहतीं, किन्तु सचेत होने पर, वे अपनी दिनचर्या में लग जातीं। चितौड़ में रहते समय हम दास-दासियों के पहनने-ओढ़ने, खाने-पीने और भाव-अभाव की खबर रखतीं। उत्सवों में सबके यहाँ प्रसाद पहुँचाने, पुरस्कार देने, गरीबो की सहायता करने और ब्राह्मणों को दान देने का उत्साह रखतीं।उनकी जागीरपुर मंडल के खेतिहर किसन आते, हिसाब रखने वाले कामदार आते और उनकी स्त्रियाँ बेटियाँ आतीं तो उन सबकी समस्याएँ तथा अभाव सुनतीं।विवाह, मरण आदि के अवसरों पर कुछ देने का हुक्म करतीं। चित्तौड़ से मेड़ते आ जाने पर ऐसा ही व्यवहार रहा किन्तु यहाँ वृन्दावन में जिस दिन से चम्पा लुप्त हुई हैं, इन्हें तो संसार जैसे सर्वथा विस्मृत हो गया है।अब कभी नहीं पूछतीं कि खाद्य सामग्री कहाँ से आती है? द्रव्य (धन) है कि समाप्त हो गया? तुमने प्रसाद पाया कि भूखी हो? पूरे दिन वाह्य ज्ञान-शून्य बैठी या लेटी हुई मुस्कराती या रोती रहतीं हैं।हम मुख में कुछ दे दें, तो जैसे-तैसे चबाकर निगल लेती हैं। जल-पात्र मुख से लगाये तो पी लेती हैं। कीर्तन के स्वर या संतो की उपस्थिति ही इन्हें सचेत करती हैं। ऐसे यह देह कितने दिना चलेगी?किससे पूछें?’
 एक दिन उनको तनिक सचेत देख चमेली ने पूछा- ‘यह चम्पा कहाँ मर गयी बाईसा हुकम?’
मीरा ने घबराकर उसके मुँह पर हाथ रख दिया- ‘उनके लिये ऐसी बात मत कह चमेली, अपराध लगता है’
चमेली चकित नेत्रों से स्वामिनी की ओर देखने लगी-‘चम्पा के लिये "उन" शब्द? वह आदरणीया कबसे हो गयी? इनके लिए अपनी बहिन जैसी बराबरी वाली से कुछ कहने पर अपराध कैसे लगेगा और क्यों लगेगा?’ उसने मन ही मन सोचा, फिर सहमते हुए कहा- ‘बाईसा, वह कहाँ चली गयी एकाएक, इसी से ऐसा कह गयी? 
‘जहाँ से वे पधारी थीं, वहीं वे चली गयीं’- मीरा ने गदगद् स्वर में कहा।उनकी देह रोमांचित हो उठी।चमेली को लगा कि अभी मूर्छित हो गिर पड़ेंगी।चम्पा के पधारने की बात करते-करते मुझे भी आदरयुक्त सम्बोधन न करने लगें, इस भय से वो वहाँ से हट गयी।
एक दिन उन्होंने अपने सेवक-सेविकाओं से कहा- ‘यह वृन्दावन साधारण भूमि नहीं है, यहाँ ठाकुर जी की कृपा के बिना वास नहीं मिलता। तुम किसी के प्रति मन-वचन और काया द्वारा अवज्ञा मत कर बैठना। इन नेत्रों से जैसा दिखाई देता हैं, वैसा ही नहीं है। यह परम दिव्य-ज्योतिर्मय धाम हैं, इसके कण-कण में, पेड़-पत्ते और प्रत्येक जन के रूप में स्वयं ठाकुर जी ही हैं।’
भोजन-पान उचित मात्रा में न लेने के कारण मीरा की देह दिनों-दिन क्षीण होती जा रही थी किन्तु उनका तेज, भक्ति का प्रताप और ह्रदय की सरसता उत्तरोंत्तर बढती ही जाती थी। वे बहुधा देहाध्यान से शून्य ही रहतीं। संतो-सत्संगियो के आने पर उन्हे कीर्तन द्वारा सचेत किया जाता था। बार-बार वे चमेली से पूछती, ‘ललिता आयी?’ धीरे-धीरे मीरा चमेली को ही ललिता मानने लगीं। चार-पाँच वर्ष में लोग भूल गये कि उसका नाम चमेली था। मीरा उससे ऐसे स्थान और लोगो की चर्चा करतीं, जो उसकी समझ में किसी प्रकार नहीं आती।चमेली बहुधा इसी चिंता में रहती कि यदि धन समाप्त हो गया तो, क्या खाया-पिया जायेगा और कैसे संतो और अतिथियों का सत्कार होगा? उसे कहीं कोई, कूल किनारा दिखाई नहीं देता था। ऐसे ही पाँच वर्ष बीत गये।

मंगलायतन की मंगलाभिलाषा......

‘माधवी’- एक रात श्यामसुन्दर ने कहा- ‘अब तू यहाँ नित्य लीला में न आकर भक्ति कर। तुम्हारे दर्शन, स्पर्श, भाषण से लोगों का कल्याण होगा। तुम्हारा प्रभाव देखकर लोग भक्ति-पथ पर अग्रसर होने का उत्साह पायेंगे। अभी यहीं रहो, कालांतर में किसी अन्य स्थान पर जाने के लिए प्रेरणा प्राप्त करोगी।’
सिर झुका कर मीरा सुनती रही। प्राणों में उठी हुई वियोग की असह्य पीड़ा को उजागर करने हेतु पलकें ऊपर उठी। वह भाव और पीड़ा के सम्मिलित अथाह महासागर में भी बड़वानल सी सुलग उठीं। देखते ही देखते उसकी वह स्वर्ण वल्लरी सी देह सूख कर कृष्ण वर्णा हो गई और वह सूखे पत्ते सी धरती पर झर पड़ी।चेतना लौटी तो उसने उन भुवन पावन चरणों पर सिर रख दिया।सीखे नेत्रों में जलन हो रही थी मानों हृदय में उठते दाह से झुलस गईं हों। मंगलायतन चरणों के स्पर्श से उसे राहत मिली जैसे शीतल लेप हुआ हो।
‘बहुत, बहुत कठोर हूँ न मैं मीरा।तुझ सुमन सुकुमार के लिये कंटक- बिद्ध होने का विधान कर रहा हूँ’- गदगद कंठ, भरे भरे नेत्र से दो बूँदे मीरा के मस्तक पर चू पड़ी।
मीरा ने उतावली में अधरों पर हाथ रख दिया- ‘नहीं, नहीं ऐसा न कहें।मेरे लिये जो मंगल आवश्यक है, वही विधान होगा, मुझे विश्वास है। आप ... आप जो कहें सिर माथे।वह तो .. इन चरणों से दूर होने की आशंका का ही अपराध है, मेरा नहीं।मैं तो आज्ञा पालन के लिए प्रस्तुत हूँ।’
‘मीरा ! माधवी’- उन्होंने उसका मुख अंजलि में भर लिया, भाव में विह्वल स्वर काँप गया- ‘तू जब चाहेगी, मुझे अपने समीप पायेगी।अब तेरी वह अचेतन अवस्था नहीं रहेगी, बस इतना ही। सदा भावावेश में डूबे रहना भले ही तेरे लिए कितना ही रूचिकर हो,प्रिय हो, उससे दूसरों का क्या भला होना है? तेरे सचेत रहने से ही उनके भावों को पोषण मिलेगा। उनके प्रश्नों का तू उत्तर दे पायेगी। तेरी सेवा उनका कल्याण करेगी, तेरा स्पर्श ....।’
‘यह लोकैष्णा ज़हर....लगती....है।’ 
‘तुझे आक्रान्त करे, इतना साहस उसमें नहीं है।इतने पर भी अपनी प्रिया का सुयश मुझे सुख देता है’- वे मुस्कराये- ‘न तुझे ज्ञात होगा और न ही उन्हें, जिनका कल्याण होगा। दोनों ही बेखबर रहेंगे, तब तो ठीक है न?’
क्रमशः

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