mc 112

मीरा चरित 
भाग- 112

जैसे जिस भूमि खंड में अभी शरद विलास है, वहाँ कुछ ही देर बाद श्याम सुंदर और रासेश्वरी के पधारते ही वसंत का वैभव छा जायेगा।लीला की आवश्यकतानुसार पेड़ पौधे लता अथवा पशु पक्षी कोई भी उपकरण बन जाते हैं।
ललिता जू के साथ कुछ ही पद चलकर उसने देखा कि जल स्त्रोत के पास शिला पर एक अर्ध मूर्छित किशोरी पड़ी है। उसके दीर्घ कृष्ण केश भू-लुंठित बिखरे पड़े हैं और सुन्दर नेत्रों से आँसुओं की धार बह रही है। उसी समय चम्पा वहाँ आई। उसने उस किशोरी को बाँहों में भरकर उठाया। मीरा ने देखा- वह माधवी है।
चम्पा ने उससे परिचय पूछा और यह जानकर कि वह सुन्दर की बहू है, प्रसन्न हुई। चम्पा ने स्नेह से कहा, ‘इस प्रकार धीरज खोने से कैसे चलेगा बहिन ! तुम अकेली ही तो नहीं हो। जो सबने खोया है, वही तुमने भी खोया है। यों धीरज खो दोगी तो कैसे बात बन पायेगी। जब श्यामसुन्दर आ जायेंगे तो क्या मुख लेकर उनके सामने जाओगी?’
‘दूसरी बहिनों से मेरी क्या समता बहिन ! वे सब भाग्यशालिनी हैं।उन्होंने कुछ पाकर खोया है। मुझ अभागिनी ने तो पाने से पूर्व ही खो दिया। खोकर भी उनका घट परिपूर्ण है और मैं दुर्भाग्यिनी तो सदैव रीती की रीती ही रही।’
‘अहा, आज व्रज में सब अपने-अपने दुर्भाग्य को सब से बड़ा समझ रही हैं, मानो दुर्भाग्य की होड़ लगी हो, किन्तु तुम अपनी बात कहो तो मैं कुछ समझूँ। इन आँसुओं के पनारों के जीभ नहीं होती। मुख से कुछ तो कहो।’
माधवी के नेत्रों की बरखा रुकने में ही नहीं आती थी। चम्पा के बहुत अनुरोध-प्रबोध के बाद वह कुछ कहने का प्रयत्न करती तो होंठ फड़फड़ा कर रह जाते।किसी प्रकार वाणी की अधिदेवी भगवती सरस्वती सदय होतीं तो हृदय का बाँध टूटकर शब्दों को धो बहाता।चम्पा ने उसके केशो को संभाल कर बाँधा। चुनरी छोर भिगोकर मुँह पोंछा।पत्र पुटक में जल लाकर उसके होठों से लगाया और ह्रदय से लगाकर प्यार भरी झिड़की दी- ‘अहा, कैसा रूप दिया है विधाता ने दोनों हाथों से? इसे इस प्रकार नष्ट करने का क्या अधिकार है तुझे री? यह तो अपने ब्रज वल्लभ की सम्पति है, इसे...।’
बात पूरी होने से पहले ही माधवी बुरी तरह रो पड़ी, मानो प्राण निकल ही जायँगे। उसकी यह हालत देखकर चम्पा भी अपने को रोक नहीं पायी। उसके धैर्य ने मानों हार मान ली थी। आँखे बरबस बहने लगी। यह सोचकर कि इस प्रकार तो यह मर ही जायगी, उसने अपने आपको सँभाला- ‘अब मार खायेगी तू मुझसे’- कहते हुए उसका मुख ऊपर किया- ‘क्या है? मुझसे नहीं कहेगी? क्यों कहेगी भला ! परायी जो हूँ।’- कहते हुए चम्पा के नेत्र भर आये।
 ‘ऐसा मत कहो, मत कहो’- माधवी के कंठ से मरते पशु-सा आर्तनाद निकला।
‘फिर कह, पहले अपनी आँखों का प्रवाह थाम, अन्यथा एक भी बात मैं समझ नहीं पाऊँगी।’
माधवी रूकते-अटकते शब्दों में भरे कंठ से सारी व्यथा, अपनी दुर्भाग्य कथा कह गई - ‘यह रूप, इसकी सराहना सुनकर हिय में होली जल उठती है बहिन।मेरा दुर्भाग्य सीमा-हीन है।तुम सबके दिन आशा के सहारे कट रहे हैं किंतु मैं प्रतिदिन निराशा के गहन गर्त में विलीन होती जा रही हूँ ! न जाने कलिकाल कितनी दूर हैं......न जाने ..... कहाँ.... जाना... होगा.... कैसे.... किसके सहारे? भवाटवी.... की भयानक अँधेरी गलियों.... में अवलम्बहीन मैं....।’
माधवी पुन: चम्पा की गोदमें सिर रख फूट-फूट करके रो पड़ी। चम्पा कुछ देर तक उसे गोदमें लिए बैठी रही- ‘सचमुच ऐसा प्रबल दुर्भाग्य तो व्रज के पशु- पाहनका भी नहीं रहा कभी किन्तु इसे ऐसे भी कैसे छोड़ दूँ?’
‘सुन माधवी’- उसने कहा- ‘कलिकाल चाहे कितनी ही दूर हो, तुझे चाहे जहाँ जाना पड़े, जैसे भी रहना पड़े, मैं तेरे संग चलूँगी और संग रहूँगी। बस अब रोना बंद कर।मेरी बात सुन, श्यामसुन्दर चाहकर भी कभी किसी के प्रति कठोर नहीं हो पाते। अवश्य ही इसमें तेरा हित निहित है।माधव की दया, करुणा, कोमलता, मधुरता, कृपा की घनीभूता स्वरूप है श्रीकिशोरीजू। चल, मेरे साथ चल। उनके चरणों के दर्शन-चिंतन मात्र से ही विपत्ति का भय नष्ट हो जाता है। उठ’- उसने हाथ पकड़ कर कर उठाया।
‘जीजी ! आपने मेरे लिए कलिकाल में, लोकालय में .....।’
‘अरी चुप ! अब एक भी बात नहीं बोलेगी तू। बहिन ! मैं और तू क्या, हम सभी एक ही माला के फूल हैं, हम सबका दु:ख समान है। श्री किशोरीजू का सुख ही हमारा सुख है और उनका दु:ख ही हमारा दु:ख। हम सब उनकी हैं और उनके ही लिये।
चम्पा उसे लेकर बरसाने के राज महल में श्री किशोरी जू के पास गयी। प्रणाम के अनन्तर चम्पा के मुख से सबकुछ सुनकर उन्हों ने माधवी के सिर पर हाथ रखा- ‘मत घबरा मेरी बहिन ! अपनों को वे कभी निराश्रित नहीं छोड़ते। प्रयोजन की प्रेरणानुसार अपनों को अपने से दूर करके वे उसके लिए स्वयं व्याकुल रहते हैं, और क्षण-क्षण में उसकी सार-सँभाल करते हैं। तेरे साथ तो फिर चम्पा ने अपने को बाँध लिया है। ऐसा साथ सहज ही नहीं मिलता......।’
‘श्रीजू ! मेरे लिए जीजी ने अपने को कैसी विपत्ति में डाल लिया है’- माधवी ने बीच में ही भरे गले से कहा- ‘आप इन्हें निवारित करें।’
‘ऐसा मत कह बावरी ! यह साथ रहेगी तो कलिकाल के कंटक तुझे छूनेका साहस नहीं कर पायेंगे। प्राणेश्वर प्रतिक्षण तेरे तन-मन-नयन में बसे रहेंगें। चम्पा तेरी दासी बनकर सेवा ही नहीं करेगी, अपितु इस जीवन यात्रा में तेरा पाथेय बनेगी।’
यह सब सुनकर माधवी हा हा करके मूर्छित हो गई।
‘अनुपम ममता, अगाध करूणा, अपार कृपा ... मेरी स्वामिनी’- कहती मीरा श्रीकिशोरी जू के चरणों में जा गिरी। नेत्र जल से उनके चरण पखारने लगी। श्रीकिशोरी जू का वात्सलय पूर्ण कर-पल्लव उसके मस्तक पर फिर रहा था- ‘यह देख, यह है तेरी चम्पा।इसका पूरा नाम चम्पकलता है।यह मेरी प्रिय सखी है।’
 मीरा चम्पा को देखते ही उसके चरणों में प्रणाम करने बढ़ी कि चम्पकलता ने हँसकर गले लगा लिया- ‘यहाँ हम सब सखियाँ हैं बहिन ! स्वामिनी हमारी हैं किशोरीजू। अतः चरण वन्दना, सेवा-टहल सब इनकी और प्रियतम श्यामसुन्दर की।’
क्रमशः

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