mc 108

मीरा चरित 
भाग- 108

कक्ष में मीरा श्वेत आसन पर नयन मूँदे बैठी है। दाहिनी ओर इकतारा रखा है। वे श्वेत वस्त्र धारण किए हुये है। हाथों की कलाईयों और गले में तुलसी की माला बँधी है। आयु तीस वर्ष पार कर गई है पर देह की कोमलता और सौन्दर्य ने मानों आयु के चरणों पर मेख जड़ दी हो। वे अभी बाईस-पच्चीस वर्ष से अधिक नहीं लगती। शुभ्र ललाट पर गोपी चन्दन की गोल बिन्दी लगी है। काले भँवर सम केशों की मोटी वेणी पीठ से बाँये पाशर्व में होकर बाँये घुटने पर पड़ी है। वेणी नीचे से थोड़ी खुली हुईं है। मुँदी हुई पलकों के बीच से दो चार अश्रु बिन्दु झर पड़ते हैं, किन्तु मुख म्लान नहीं है बल्कि होठो पर मुस्कान खिली पड़ती है। वे बाह्यज्ञान शून्य हैं।कक्ष में जाजिम बिछी है।एक कोने में चौकोर गद्दियों की थड़ी लगी है और दीवार पर केवल एक चित्र लगा है, जिसमें श्यामसुन्दर यमुना के तट पर एक चरण पर दूसरा चरण चढ़ाये हाथ में वंशी लिए सामने देखते हुए शिला पर विराजमान हैं। महात्मा चित्र की ओर देखकर मुस्कुराये।सामने की दीवार से लगी चौकी पर सुन्दर मखमल का नीला आस्तरण बिछा है।उसी चौकी पर गिरधर गोपाल का सिंहासन रखा है।धूप दीप अभी प्रज्वलित है।

चमेली को लगा कि यह संत अवश्य ही बाईसा हुकम को स्वस्थ कर सकते हैं। उसने मीरा की ओर मुड़ते हुये संत के चरणों पर मस्तक रखा- ‘महाराज,म्हाँरी धणियाणी को साँवल कर दो।महाराज, याँके बिना म्हें सगला ही मरया समान हाँ।किरपा तरो बापजी।म्हाँने जिवाय दो।(महाराज, हमारी स्वामिनी को स्वस्थ कर दें। इनके बिना हम सब जीवित ही मृत के समान हैं। कृपा करें महाराज, हमें जीवन दान दें)’-  उसका गला रूँध गया।
संत ने हँसकर उसके सिर पर हाथ रखा- ‘चिंता मत कर बेटी ! यह तो पंथ ही ऐसा है कि अपनी सुध नहीं रहती, औरों की कहाँ चले? ये अभी चैतन्य हुई जाती हैं। तुम धन्य हो, महाभाग्यवान हो जो ऐसी स्वामिनी की सेवा मिली।भक्त की सेवा भगवान स्वयं स्वीकार करते हैं।’
उन्होंने आगे बढ़कर मीरा के मस्तक पर हाथ रखकर नेत्र मूँद लिए।दो क्षण पश्चात मीरा की पलकें हिली और धीरे-धीरे उसने नेत्र खोल दिए।सामने खड़ी दासियों और सेवकों ने हर्ष के आँसू बहाते हुये धरती पर सिर रखे-
‘जीवता रो, सुखी रो (जीते रहो, सुखी रहो)’- मीरा के होठ अभ्यासवश फड़फड़ाये पर आवाज न निकल सकी।
सिर पर रखे हाथ का अनुमान करके मीरा ने ऊपर की ओर देखा।संत दर्शन करते ही उन्होंने थोड़ा तिरछे हो त्वरापूर्वक उनके चरणों में प्रणाम किया। 
‘जय राधे, जय राधे, श्री किशोरीजू प्रसन्न हों, मंगल हो, मंगल हो’- संत ने प्रसन्नता के आवेग में आशिर्वादों की वर्षा सी कर दी।मीरा उठ खड़ी हुई।बहुत समय तक बैठी रहने के कारण खड़े होते समय पैर लड़खड़ाये।केसरबाई ने एकदम से सहारा दिया।चमेली ने शीघ्रता पूर्वक दूसरी गद्दी लाकर भीत से लगाकर बिछा दी।
‘विराजें भगवन्’- मीरा ने हाथ जोड़कर निवेदन किया।महात्मा के बैठ जाने पर वे नीचे ही दरी पर बैठ गईं।उन्होंने साभिप्राय चमेली की ओर देखा।उस दृष्टि का अर्थ समझ कर उसने कहा- ‘भोग तैयार है हुकुम’- और थाल लेने रसोई में चली गई।भोग पधराकर मीरा इकतारा लेकर गाने लगी-

मीरा दासी अरज करे है म्हाँरा दीन दयाल।
छप्पन भोग छतीसाँ व्यँजन विंजन पावो जन प्रतिपाल।
राजभोग आरोगो गिरधर सन्मुख राखा थाल।
मीरा दासी शरणे आई कीजो वेग निहाल।

भोग लगाकर मीरा ने संत को जिमाया और विश्राम के लिए आग्रह किया।
‘नहीं बेटी, हम रमतेयोगी ठहरे।हम विश्राम के गुलाम नहीं है।हम तो गुलाम हैं राम के’- संत ने हँसते हुए कहा- ‘बड़ी दूर से तुम्हारा यश सुनकर आया हूँ। जो सुना, यहाँ आकर उससे भी बढ़कर पाया।मैं तो तुम्हारी भावधारा में बहने और तुम्हें बहाने आया हूँ।’
‘जैसी आज्ञा’- मीरा ने इकतारा उठाया।चमेली ने ढोलक सम्हाँली।
‘अभी नहीं बेटी, पहले तुम सब प्रसाद पाओ।तब तक तुम्हारे कथनानुसार मैं विश्राम कर लेता हूँ’
प्रसाद ग्रहण करके मीरा बाहर वाले कक्ष में आई।उन्हें देखकर संत उठ बैठे।
 ‘पहले आप ही कुछ फरमायें’- मीरा ने विनम्रता से कहा।
‘न बेटी ! पहले तुम कहो,सुनने की आशा लिए ही दौड़ा आ रहा हूँ।’
 मीरा ने इकतारे के तार को झंकृत किया और आलाप ले गाने लगीं-

नैणा लोभी रे बहुरिसके नहीं आय।
रोम रोम नखसिख सब निरखत ललकि रहे ललचाय।
मैं ठाढ़ी घरि आपणे री मोहन निकसे आय।
बदन चंदपरकासत हेली मंद मंद मुस्काय।
लोग कुटुम्बी बरजि बरजहिं बतियाँ कहत बनाय।
चंचल निपट अटक नहीं मानत पर हाथ गये बिकाय।
भलौ कहो कोई बुरी कहो मैं सब लई सीस चढ़ाय।
मीरा प्रभु गिरीधरन लाल बिन पल छिन रह्यो न जाय।

मीरा अभी पूरी तरह सचेत नहीं हुई थी।गाते-गाते उसके नेत्र अधमुँदें जाते, राग ठीली शिथिल होती को तो वह संभाल लेती।इसी प्रकार अंत की दो पँक्तियाँ गाते गाते वे फिर बेभान होने की स्थिति में जाने वाली हुई कि संत ने एक लम्बा अलाप लिया और दोनों पंक्तियाँ फिर से गातर पद पूरा किया।संत के स्वर ने मीरा को झिंझोड़ कर जगा दिया और उन्होंने कृतज्ञता पूर्वक प्रणाम किया।
‘अब आप सुधा वर्षण की कृपा करे’- मीरा ने विनयपूर्वक हाथ जोड़े।
‘नहीं, आज तुमसे सुनने ही आया हूँ।आवश्यकता हुई तो बीच बीच में साथ दूँगा’
‘मैं बालक हूँ भगवन्।आज्ञा पालन ही उचित है, किंतु भूल होना भी तो स्वाभाविक है।’
‘सो सबकुछ नहीं, मैं साथ दे रहा हूँ।तुम्हारे विश्राम का समय ले रहा हूँ, पर यह..... ।’
‘नहीं भगवन् नहीं, श्री चरण संकोच न करें। मुझे इसी में सुख है-

स्याम म्हाँने चाकर राखो जी॥
चाकर रहस्यूँ बाग लगास्यूँ नित उठ दरसण पास्यूँ।
बिन्दराबन की कुंज गली में गोबिन्द लीला गास्यूँ॥
चाकरी में दरसण पास्यूँ सुमिरण पास्यूँ खरची।
भाव भगति जागीरी पास्यूँ तीनों बाताँ सरसी॥
मोर मुकुट पीताम्बर सोहे गल बैजन्ती माला।
बिन्दराबन में धेनु चरावे मोहन मुरली वाला॥
हरी हरी नव कुँज लगास्यूँ बीच बीच राखूँ बारी।
साँवरिया रो दरसण पास्यूँ पहर कुसुम्बी सारी॥
जोगी आया जोग करण कूँ तप करणे सन्यासी।
हरी भजन को साधु आया बिन्दराबन रा बासी॥
आधी रात प्रभु दरसण दीन्हा जमना जी रे तीरा।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर हिवड़ो घणो अधीरा॥
क्रमशः

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