mc 119

मीरा चरित 
भाग- 119

यद्यपि मेड़ते और श्याम कुँवर बाईसा के पास दासियों की कमी नहीं थी, पर उनकी गर्भावस्था में भगवत्सम्बंधी भजन सुनाने के लिए आदेश देकर मंगला को उनके पास रख दिया था।दिन रात लड़ाईयों के कारण मेड़ता का अस्तित्व खतरे में पड़ गया था।बहुत सी बहुएँ अपने पीहर चली गईं थीं, किंतु श्याम कुँवर बाईसा के पीहर मेवाड़ के तो हाल बेहाल थे।पीहर में उनका अपना था ही कौन? उनका पीहरतो मीरा थी जो उन्हें छोड़ गयीं।
चमेली सदा सोचती थी कि कौन जाने श्याम कुँवर बाईसा को क्या बालक हुआ? बना या बाईसा? पहले पहल बड़ी जोखिम रहती है।आह, बिना माँ बाप की बेटी थीं, सदा मीरा बाई सा हुकुम को ही अपना समझती रहीं।ऐसी अवस्था में ये भी छूट गयीं।उनके मन की अब क्या हालत होगी।हे विधाता, अमीर हो कि गरीब, बड़ा हो कि छोटा, इस धरती पर धर्म दु:ख तो किसी को नहीं छोड़ता।तेरे विधान पर किसी का क्या वश चले।’भूख सहण्यो ढाँढों अर दु:ख सहण्यो मिनख’(भूख सहन करने वाला पशु और दु:ख सहन करने वाला मनुष्य)।चमेली एक गहरा निःश्वास छोड़कर उठ खड़ी हुई।

श्री रघुनाथजी के भक्त राव जयमल....

पच्चीस वर्ष व्रज में निवास करके मीरा ने विक्रम संवत 1621 में द्वारिका के लिये प्रस्थान करने का निश्चय किया। उस समय उनकी आयु साठ वर्ष की हो चुकी थी। अपने प्राणपति श्री द्वारिकाधीश के दर्शन के लिए वे प्राणप्रियतम के आदेशानुसार तीर्थयात्रियों के दल के साथ प्रस्थान करने को प्रस्तुत हुईं। उस समय उनके केशों में सफेदी झाँक चुकी थी। ठीक प्रस्थान की पूर्व संध्या में मंगला आ गयी। मंगला को देख चमेली और केसर की प्रसन्नता की सीमा न रही।मीरा भी प्रसन्न हुईं। कुशल समाचार पूछने पर मंगला ने बताया - ‘श्यामकुंवर बाईसा को पुत्र लाभ हुआ। जोधपुर के राव मालदेव की अनीति और अनाचार के कारण मेड़ता का पराभव हुआ और राव वीरमदेव जी को दर-दर की ठोकरे खानी पड़ीं। असीम उथल-पुथल घमासान पारस्परिक युद्ध और राजोचित चातुर्य के बाद मेड़ता पर राव वीरमदेव जी का पुनः अधिकार हो गया। मेड़ता प्राप्त करने के दो माह बाद ही वि०सं० १६०० में राव वीरमदेव जी का देहावसान हो गया। राव वीरमदेव जी बड़े उदार वीर और नीतज्ञ शासक थे।दिल्ली गुजरात और मालवा के युद्धों में वे अपनी सेना सहित महाराणा साँगा के साथ रहे।
राव वीरमदेवजी के बाद छत्तीस वर्षकी आयु में राव जयमल मेड़ता की गद्दी पर बैठे।मेड़तिया राठौर राजवंश में राव जयमल सबसे प्रतापी बलशाली और भक्त नरेश हुये।जोधपुर के राव मालदेव ने इनसे भी शत्रुता रखी और राव जयमलजी को इनसे बाईस बार युद्ध करना पड़ा।एक बार मालदेव ने मेड़ता पर अचानक चढा़ई कर दी।यह आक्रमण ऐसा अचानक हुआ कि किसी को कानो कान खबर नहीं हो पाई।अन्नदाता जयमलजी का यह नियम था कि जब वे पूजा पाठ करतें हों, वहाँ कोई न जाये।वे अपने पास नंगी तलवार लेकर विराजते थे कि जो भी पूजा पाठ के बीच वहाँ जायेगा, वे उसका माथा काट देगें।’
‘हाँ यह मुझे मालुम है’- मीरा ने कहा- ‘क्या सचमुच कोई गया और मारा गया बेचारा’
‘हुकुम अर्ज करती हूँ’- मंगला बोली- ‘जिस समय जोधपुरी सेना की चढ़ाई की सूचना मिली, उस समय अन्नदाता पूजा में विराजे थे।उनका नियम सबको मालुम है, अब कौन जाकर अर्ज करे? दो तीन घड़ी में तो आकर मालदेव मेड़ता घेर लेगें।भाई बंधु दीवानजी सब चिंता में पड़ गये।बात रनिवास में पहुँची।अंत में अन्नदाता हुकुम सोलंकणीजी (जयमल की माताजी) ने फरमाया- ‘मैं जाती हूँ, मुझे मार भी दे तो क्या है? कम से कम देश तो बच जायेगा।’
सबके रोकने पर भी वे बाहर के महलों में पधारीं।पूजन कक्ष से पहले वाले कक्ष के द्वार से निकलते ही हुये अन्नदाता हुकुम ने पूछा- ‘भामा हुकुम, आज आप यहाँ कैसे?’
‘जोधपुर की सेना आक्रमण के लिए तेजी से चली आ रही है।केवल पाँच सात कोस की दूरी रह गई है।आपको यहाँ सूचना देने की हिम्मत किसीको नहीं हो रही थी।आपकी तलवार की धार को लाँघने का साहस किसी को नहीं हुआ , इसलिए लालजी, मैं खबर करने आईं हूँ’- उन्होंने कहा।
‘अब मैं जा रहा हूँ हुकुम, आप भीतर पधारें’- कहकर जयमल ने रण भेरी बजाने की आज्ञा दी।नगारों पर चोट पड़ते ही वीरों की तलवारें कोष मुक्त हो झनझना उठीं।कड़खों की तान पर घोड़े नृत्य करने लगे और रणबंका मेड़तियों की सेना ‘हर हर महादेव’ का जयनाद करती हुई गढ़ से बाहर निकली।जैसे ही जोधपुर की सेना दिखाई दी, अपनी सेना को रोककर जयमलजी अकेले घोड़ा दोड़ाकर आगे जाने लगे किंतु स्वामी की आज्ञा की अवहेलना कर सारी सेना दौड़ पड़ी।भीषण मारकाट मच गई।मेड़तियों ने देखा कि जयमलजी की करवाल विद्युत गति से चल रही है।उनका रणोत्साह देखकर कई लोग लड़ना भूल गये।शत्रु सैन्य भी दंग रह गया।जोधपुर की सेना के पाँव उखड़ गये।जयमलजी ने उनका पीछा किया।मालदेव इतने समीप थे कि वे बंदी हो जाते या काम आते, तभी सेनाध्यक्ष पृथ्वीराज जैतावत लौटकर स्वामी रे प्राणरक्षार्थ युद्ध करने लगा और वीरतापूर्वक युद्ध करते हुये उन्होंने समरभूमि में शयन किया।विजय के नक्कारे बजाते हुये मेड़ता की सेना लौटी।घोड़े से उतरकर जयमलजी ने महल में प्रवेश किया और दो क्षण पश्चात ही बाहर निकलकर पूछा- ‘यह जय जयकार और बाजे किस ख़ुशी में बज रहे हैं।रनिवास में बधाइयाँ किस लिए गाईं जा रहीं हैं?’
सुनकर चाँदाजी ने कहा- ‘सरकार, हुजूर अभी अभी जोधपुर की सेना पर विजय प्राप्त कर लौटे हैं।ये गाजे बाजे उसी खुशी में बज रहे हैं।अभी अभी दासियों, दमामणियों ने आपका वंदन किया है।ऐसे क्या फरमा रहे हैं आप?’
‘मैं युद्ध में गया?’- जयमलजी चकित स्वर में बोले, साथ ही शाघ्रतापूर्वक महलों से उतर कर चौक में आये।चर्वादार(साईस) उनके घोड़े का बख्तर और जीन उतार करके रख रहा था।उन्होंने समीप जाकर देखा कि घोड़ा पसीने से तरबतर,मुँह में झाग और बेहद थका हुआ है।उनकी ओर देखकर घोड़े ने हल्के से हिनहिना कर प्रसन्नता व्यक्त की।उसका कवच एक दो स्थानों पर प्रवल करवाल से कट गया था और छोटे घाव लग गये थे।जयमल के आश्चर्य की सीमा नहीं थी, जब उन्होंने सुना कि पूजा के समय उनकी माँ मृत्यु की परवाह न करके उनके पास आ रहीं थीं और वे बीच में ही मिल गये।
क्रमशः

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