mc117

मीरा चरित 
भाग- 117

‘नही, मैं कुछ भी जानना नहीं चाहती।केवल इतनी ही प्रार्थना है कि उन सबका भी भला हो।’
‘बाईसा हुकम ! ठाकुर जी को भोग लग गया।प्रसाद आरोगें’-  चमेली, जो ललिता कहलाने लगी थी, ने आकर कहा, इसके साथ ही उसकी दृष्टि चम्पा पर पड़ी। चम्पा का आलौकिक रूप और वस्त्र आभूषण देखकर वह एक बार हिचकिचाई, फिर उसने अपनी स्वामिनी और उसके बैठने का ढंग देखा।वे दोनों जैसे बराबर की सखियाँ हों, ऐसे बैठीं थीं।उसे कुछ बुरा लगा- ‘कहाँ चली गई थी चम्पा? ढूँढ ढूँढकर उनके पाँव ही थक गये। किसी बड़े राजा के यहाँ चाकरी करने लगी है क्या? बाईसा हुकम जैसी स्वामिनी तू सात जन्म में भी नहीं पा सकेगी, समझी?’
‘समझी’- चम्पा हँस पड़ी- ‘आज तेरे हाथ का बना प्रसाद पाने की मन में आई, इसलिए आ गई’- कहते हुये उठकर उसने चमेली को ह्रदय से लगा लिया। चम्पा का स्पर्श होते ही चमेली को उसके आलौकिक स्वरूप का ज्ञान हुआ। वह हक्की बक्की सी हो उसकी ओर देखती रह गई, फिर एकाएक उसके चरणों में गिर आँसू बहाने लगी। यही अवस्था केसर की हुईं। 
‘अरी उठ, मुझे भूख लगी है’-चम्पा ने हँलकर उठाया उन्हें।उनकी देखा-देखी किशन और शंकर ने भी चरणों पर मस्तक रखा।
‘उठो भाई’- उसने हाथ से उनका मस्तक स्पर्श किया।इतने समय तक साथ रहकर भी न पहचान पाने के लिए और कभी खरी-खोटी कह पड़ने के लिए चमेली ने क्षमा याचना की और जीवन सफल होने का आश्वासन पाया।
सदा तुमने मेरी सेवा की है। आज मैं तुम्हें परोस कर खिलाँऊ।यह एक सेवा मुझे करने दो।’
‘नहीं, हम दोनों साथ ही प्रसाद पायें, चम्पा ने कहा- ‘आ, मेरी थाली में तू भी पा ले।’
भोजन के बीच केसर ने देखा कि सबकी नजर बचाकर उसकी स्वामिनी ने चम्पा के हाथ से उसका झूठा  ग्रास छीनकर अपने मुख में डाल लिया।
‘अब जाऊँ मैं’- चम्पा चलने को प्रस्तुत हुई। सेवक- सेविकाओं ने पुनः प्रणाम किया। मीरा कुछ दूर तक पहुँचाने चलीं।
जब तक सब कुछ भावमय था, तब इतना कुछ नहीं होता था। अभी तो लगता है जैसे कोई प्राणों को खींचकर बाहर निकाल रहा हो।पहले लगता था कि वे सदा साथ हैं, कहीं एकान्त नहीं मिलता था। अब ....’- उनका गला भर आया।
‘तू क्यों व्याकुल होती है पगली ! तू जब चाहे, तब श्यामसुन्दर नेत्रों के सम्मुख उपस्थित हो जायेंगे। अब वह और तू दो रहे हैं क्या?’
‘नहीं बहिन ! मीरा तो कबकी उनमें लय हो गई। इस देह में- इसके रोम-रोम में भी वही, वही हैं।फिर भी प्रत्यक्ष बिछुड़ना प्राणघाती लगता है।’
‘तू यहीं ठहर’- कहकर चम्पा आगे बढ़ी और पेड़ों के झुरमुट में लोप हो गई।

मीरा के जीवन में चम्पा.....
          
चम्पा का परिचय पाकर चमेली और केसर चकित थीं। जीवन साथ-साथ बिता दिया, फिर भी पहचान नहीं पाया कोई भी।
चमेली को स्मरण हो आये बचपन वाले वे सुनहरे रूपहले दिन, जब चम्पा पहले पहल मीरा के पास आईथी।बाईसा हुकुम उस समय छ: वर्ष की रही होगीं।हम सब, उनकी बहिनें, सखियाँ और दासियाँ नगर के बाहर वाले बाग में तीज पर झुलनोत्सव मनाने गईं थीं।साथ में बचेट बावजी(रायसलजी) और उनके कुछ धनुर्धर को घेरे हुये थे।हम सबके साथ दो चार वृद्धा दासियाँ भी थीं।यों तो बाग के सभी बड़े बड़े वृक्षों पर झूले बँधे थे।सेठों, राजपूतों और ब्राह्मणों की कुवाँरी लड़कियाँ इस उत्सव में सम्मिलित होने आईंथीं और झूल रहीं थीं, किंतु अधिक जमघट बाईसा के झूले पर ही था।
पहले झूलीं राजपरिवार की सबसे बड़ी बाईसा श्याम कुँवर, फूलादे(वीरमदेव जी की पुत्रियाँ), लक्ष्मी (रायसलजी की पुत्री)।फिर मीरा की बारी आई।दूसरे झुलों रर तो हो हल्ला होरहा था किंतु राजपरिवार के इस झूले पर दासियाँ गीत गा रहीं थीं।राजकुमारियों के साथ कई वृद्धा प्रौढ़ा दासियाँ आई हुईं थीं।ये दासियाँ राजकुमारियों की माँ के साथ दहेज में आई हुईं थीं और इससमय झूलनेल्लास में वे अपनी अपनी जीजीओं के पूर्ण अनुशासन में रहते हुये उनकी आज्ञानुसार ही बरत रहीं थीं।नगर की कई लड़कियाँ और उनकी देखभाल के लिए साथ आईं स्त्रियाँ भी उनका व्यवहार और उत्सव देखने के लिए थोड़ी दूर खड़ी थीं।
मीरा की बारी आई तो उसने चमेली से गिरधर गोपाल को झूले पर पधराने को कहा।दासियाँ गीत गाने लगीं।जब श्याम कुँवर ने सोटे वाला हाथ उठाया तो मीरा ने हँसकर कहा- ‘मारो मत जीजा हुकुम, मैं तो यों ही नाम ले लूँगी।मुझे कोई आपकी तरह सोचना तो नहीं है कि पता नहीं कौन बींद होगा और उसका क्या नाम होगा।मैं कहीं दूसरा नाम ले दूँ तो अनर्थ.....’- मीरा की बात पूरी होने से पूर्व ही सब बहिनें हँसने लगीं।दासियों ने मुस्करा कर ओढ़नी के पल्ले से मुँह ढाँप लिया।कोई नीचे और कोई पीछे की ओर देखने लगी।श्याम कुँवर बाईसा ने चिढ़ कर हँसते हुये मीरा के गाल पर चिकोटी भरते हुये कहा- ‘हाँ छोटी होकर भी तू सबसे पहले बींदवाली हो गई है।’
‘आहा, जीजा हुकुम, केवल बींद ही नहीं, सबसे बड़ा बींद भी मेरा ही है।देखिये न’- कहते हुये मीर ने झुककर अपने गिरधर जी की ओर देखा।
‘चुप बेशरम, बड़ी बींदवाली, डेढ़ बित्ते की तो है नहीं, उतर नीचे।अब आभल (वीरमदेव जी की पुत्री) झूलेगी’- श्याम कुँवर हँसकर बोली।
तभी गगन से हल्की फुहार बरसने लगी और राजकुमारियाँ एक चौकी पर गिरधर गोपाल को पधराकर उनके चारों ओर घूमर लेकर नाचने लगीं।दासियाँ घूमर गाने लगीं- 

ए म्हाँरी घूमर छे नखराली ए माय।
घूमर रमवा म्हें जास्याँ हो राजरी घूमर रमवा म्हें जास्याँ।
ए म्हाँने रमताँ ने काजल टीकी लादी ए माय।
घूमर रमवा म्हें जास्याँ हो राजरी घूमर रमवा म्हें जास्याँ।

नृत्य में जो भी चूक होती, खड़ी हुई दासियाँ उसे सुधारने के लिए कहतीं।उनके पश्चात दमामणियाँ गाने बजाने लगीं और दासियाँ नाचने लगीं।चारों ओर पचरंगी, समंदर लहर, तिरंगी और दोरंगी लहरियेदार वस्त्रों की भरमार थी।स्वयं गिरधर गोपाल अपने पचरंगी साफे में मयूर पंख की कलगी धारण किये हुये विराजित थे।
नाचने गाने के पश्चात शरबत की मनुहारें हुईं और गिरधर को भोग लगाकर राजकुमारियाँ भोजन करने बैठीं।सबको भोजन कराकर दासियों की पंगत बैठी।उसी पंगत में चमेली ने सबसे पहले चम्पा को देखा था।देखकर सोचा कि किसी राजकुमारी की दासी होगी।
क्रमशः

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