mc 107

मीरा चरित 
भाग- 107

उन्मादिनी मीरा और चिंताग्रस्त दासियाँ.....

प्रातः उठने पर चमेली ने पूछा- ‘चम्पा कहीं दिखाई नहीं देती बाईसा हुकम’
मीरा की देह और मन में रात के दर्शनों की खुमारी भरी हुई थी। वे कुछ सुन नहीं पाईं। उन्होंने अपनी ओढ़नी का छोर टटोला। गाँठ खोलकर एक चुटकी रज मुख में डाली और थोड़ी मुख पर, ह्रदय पर मल ली। चमेली समझ नहीं पाई। फिर उसने सोचा- ‘शायद किसी महात्माजी की चरणरज होगी। पर यह चम्पा कहाँ गई?’
मीरा मानों उन्मादिनी हो गई। रात के दृश्यों का पुनरावर्तन होता रहता उनके मानस नेत्रों के सम्मुख और वह कभी हँसने, कभी रोने और कभी गाने लग जातीं। उस दिव्य अनिर्वचनीय रूप के दर्शन की स्मृति में मीरा के नेत्रों की पुतलियाँ स्थिर हो जाती, पलकें अपना कार्य भूल जाती। ह्रदय के आनन्द सिन्धु में ज्वार उठने लगता और उसकी उत्ताल तरंगो पर उसकी अवश देह डूबती उतरती रहती। मीरा आतुरता पूर्वक रात्रि की प्रतीक्षा करतीं।प्रकाशमय दोपहरी में भी वह चमेली से पूछती - ‘रात हो गई क्या? अभी तक ललिता क्यों नहीं आई?’
मीरा चमेली को ही ललिता- चम्पा कहकर पुकारती। चमेली की व्यथा का पार नहीं था।स्वामिनी के उन्माद रोग के कारण दु:खी होती- ‘हे भगवान ! यह क्या किया तूने? घर से इतनी दूर लाकर इन्हें बीमार कर दिया।इस अनजान जगह में किससे सहायता माँगू? ऐसी कठिन घड़ी में यह चम्पा भी न जाने किधर चली गई, वह होती तो चिंता न रहती।उसकी बुद्धि पानी में बाट खोज लेती है।अब कहाँ ढूँढूँ उसे?’
वह अपने पति शंकर से किसी वैद्य को ढ़ूँढ़ लाने को कहती, चम्पा को ढूँढने को कहती और उसके असफल लौटने पर झगड़ने लगती- ‘जैसा तुम्हारा नाम है वैसे ही हो तुम।खाये बिना ही भाँग धतूरे का नशा चढ़ा रहता है तुम्हें।पेट भरके खाया और पैर पसार कर पड़े रहे।चित्तौड़ और मेड़ता क्या छूटा, तुम तो बादशाह बन गये।न किसी की चिंता, न कोई फिकर।खाने को पेट भर मिलता है न, फिर क्या चाहिए।क्यों आये यहाँ...’
बीच में ही केसरबाई आकर टोकती- ‘जीजी ! ऐसे धैर्य खोने से कैसे काम चलेगा।अपना सारा क्रोध, सारा दु:ख, सारी चिन्ता तुम जीजाजी पर निकाल देती हो। आँधी तूफान की तरह इन पर बरसने से पहले उनकी हालत तो देखो।सारे दिन न जाने कहाँ कहाँ भटक कर जब धूल भरे लौटते हैं, तब तुम एक लोटा पानी को नहीं पूछतीं।उनके उतरे हुये मुँह को नहीं देखतीं।उनकी आँखों में तैरती हुई निराशायुक्त वेदना नहीं देखतीं।बस खरी खोटी सुनाने लग पड़ती हो।कभी सोचा तुमने कि इस अनजान प्रदेश में, जहाँ इनकी भाषा कोई नहीं समझता और ये किसी की बात नहीं समझ पाते, वहाँ केवल आँखों की पहचान के बल पर वैद्य या चम्पा जीजी को ढ़ूढ़ लेना सहज है क्या? कितनी बदल गई हो? तुम्हारा चित्तौड़ छोड़तेसमय तक कितना ठंडा स्वभाव था और अब कितनी चिड़चिड़ी हो गई हो।तुम्हीं ऐसी हो जाओगी तो हम बालकों का क्या होगा? मैं तो निरी अबोध हूँ।तुम्हारी छत्रछाया में पलती आई हूँ।अब तुम्हें धीरजखोते देखकर और बाईसा हुकुम की यह दशा देखकर मुझे बहुत भय लग रहा है जीजी, बहुत भय लग रहा है।’
केसर को रोती देख चमेली ने उसे ह्रदय से लगा शांत किया- ‘क्या करूँ बहन ! हम गढ़ की बड़ी-बड़ी दिवारों के भीतर रहने के आदी हैं और बाईसा हुकुम भी। चित्तौड़ और मेड़ता में तो ये फिर भी बँधी रहती थीं। यहाँ आकर तो जैसे चारों दिशाओं के कपाट खुल गये हों। जहाँ कहीं किसी संत का समाचार पाया कि तम्बूरा उठाकर पधारने लगती हैं। इनके चरण देखे हैं तुमने? यहाँ आने के पश्चात पगरखीको भूल से भी कभी धारण किया हो।फूलों से कोमलसुंदर पद घायल और धूल भरे देखतीं हूँ तो छाती फटने लगती है।आवेश तो पहले भी इन्हें आता था, पर ऐसा नहीं कि कभी हाथ पाँव लम्बे हो जायें और कभी कछुआ की तरह सिकुड़ कर गठरी हो जायें।मेरी बहिना, अपना दु:ख किससे कहूँ? बाईसा हुकुम की हालत देखकर भय से मेरे प्राण सूख जाते हैं।इस पर एक बात और कि घड़ी-घड़ी में यह बाबा लोग दर्शन को चले आते हैं कहते हुये कि ‘महाभागा मीरा माँ कहाँ हैं?’ ‘संत शिरोमणि मीरा की जय हो’ वे बाबा लोग बाईसा हुकम का दर्शन करते ही उनकी दशा देखकर, उनकी चिंता करने के बदले ‘धन्य हो, धन्य हो’ कहते कहते इनके चरणों में लोटने लगते हैं, इनकी चरण धूलि सिर पर चढ़ाने लगते हैं। तब ऐसा लगता है कि मैं पागल हो जाऊँगी। इनकी जिस दशा से हम भय और चिंता से सूखी जा रही हैं, वही उनके हर्ष का कारण है। ऐसे में यह चम्पा भी हम दुखनीयों को छोड़ कर न जाने कहाँ जा बैठी।उसे तनिक भी दया नहीं आई हम अभागिनों पर।जरा भी ख्याल नहीं  आया अपनी भोली स्वामिनी का? बोल मैं क्या करूँ?’-  वह केसर को गले लगाकर रोने लगी। उसे यूँ रोते देख केसर, शंकर और किशन की भी आँखें भर आईं।

संतों का स्वागत सत्कार.....

एक दिन एक वयोवृद्ध, वलिपलितकाय, श्वेत अधोवस्त्र मात्र पहने, हाथ में कमण्डलु लिए तेजोदीप्त संत पधारे। द्वार पर से ही उन्होंने पुकार की- ‘जय जय श्री राधे, जय जय श्री किशोरी जू’
तुलसी मणिमाला से विभूषित थे कण्ठ और भुजाएँ।नेत्रों से कृपा की अजस्त्र वर्षा हो रही थी। 
चमेली ने रसोई से उठ कर द्वार खोला।संत की भव्य, शांत प्रसन्न मुख मुद्रा दर्शन कर चकित रह गई। ऐसे संत के तो उसने आज तक दर्शन नहीं किए।एकदम भूमि पर सिर रखकर प्रणाम किया, आसन बिछाया, किशन को बुला चरण धुलाये और प्रसाद पाने के लिए करबद्ध प्रार्थना की।
आशीर्वाद देकर संत ने आसन ग्रहण करते हुये पूछा- ‘हमारी बेटी मीरा कहाँ हैं? बड़ी दूर से हम अपनी बेटी को देखने सुनने आये हैं’- तब तक किशन शर्बत बना लाया।गंगाजली गिलास आगे बढ़ाते हुये उसने कहा- ‘स्वीकार करें भगवन्’
संत ने गंगाजली से ही शर्बत मुख में उड़ेलकर पी लिया और प्रसन्न मुद्रा में कहा- ‘तृप्त तो सदा तृप्त ही रहते हैं पुत्र।हम तुम्हारी सेवा से तृप्त एवं प्रसन्न हुए।’
‘पधारें बापजी, बाईसा हुकुम इस कक्ष में हैं’- किशन ने अनुरोध किया।
‘चालो भाई चालो’- उनका अटपटा सा राजस्थानी उच्चारण सुनकर सब मुस्करा दिये।
क्रमशः

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