mc110

मीरा चरित 
भाग- 110

पति ने एकाध बार अपने सखा कन्हैया की चर्चा भी की पर माधवी ने कोई उत्साह नहीं दिखाया तो वह चुप हो गया। सुंदर रथ हाँक रहा था और वह रथ में बैठी थी। अगर कोई गाँव पथ में दिखाई पड़ता तो रथ के पर्दे गिरा दिये जाते। सुंदर बीच-बीच में अपनी मैयाकी, अपने गाँव की व घर की बातें करता जाता और वह चुपचाप बैठी बैठी सुनती रहती। एकाएक सुंदरने कहा-‘देखो, ये हमारे व्रजकी गायें चर रहीं हैं।कन्हैया यहीं कहीं होगा। देखेगा तो अभी दौड़ा आयेगा।’
सुनकर माधवी ने मुख ही नहीं अपने हाथ-पैर भी अच्छी तरह ढाँक लिये। तभी कोई पुकार उठा- ‘सुंदर ! बहू ले आया क्या?’
‘हाँ भैया !’
‘भैया ! मोंकू भाभीको मोहडो तो दिखाय दे’- छ: सात वर्ष के बालक का स्वर आया।
 ‘अरे भैया ! पहले मों ते तो तू मिल के हिय को ताप बुझाय दे’- सुंदर रथ से कूद पड़ा और दूसरे ही क्षण किसीसे आलिंगनबद्ध हो उठा- ‘भैया कन्नू रे ! ऐसो लगे जुगन बाद मिल्यो तोसौं। तेरी चर्चा हूँ जहाँ न होय, वहाँ विधाता कबहूँ वास न दें।’
‘अब दिखाये दे मोंकू बहू को मोहडो।’
‘कन्नू रे, मैं कहा दिखाऊं? भैया, तूही देख ले। तोसों काह परदो है?’
माधवी को लगा कि एक बालक रथ पर चढ़ गया है- ‘ऐ भाभी ! अपना मोहड़ो तो दिखाय दे’- कहते हुये उसने घूँघट उठाना चाहा।माधवी ने कसकर अपना घूँघट पकड़ लिया। मुख तो दूर, अपनी उँगली का पोर भी नहीं देखने दिया।
‘मैं काह देखूँ? अब तो तू ही मेरो मुख देखिबे को तरसेगी’- कहते हुए नन्दसुवन रथ से उतर गया। वह स्वर सुनकर माधवी थोड़ी चौंकी, क्योंकि वह स्वर न उसके पति का था और न ही उस बालक का। वह गम्भीर स्वर मानों सत्यता की साक्षी देता- सा। अपनी जीत पर माधवी प्रसन्न थी।
उसकी सास उसे नंदभवन ले गई नन्दरानी को प्रणाम कराने के लिए।उसका मुख देख नन्दरानी बहुत प्रसन्न हुईं।अति चाव से भूषण-वसन देकर मुख मीठा कराया। अनेक प्रकार के दुलार करते देख उसकी सास ने कहा- ‘अब तो हमारे कन्हैया कौ विवाह कर ही दो रानी जू ! जब भी उसके किसी सखा का विवाह होता है, तो उसका विवाह का चाव बढ़ जाय है।’
‘क्या कहू बहिन ! मेरी....।’
तभी कन्हाई ने आकर कहा, "मैया ! हो मैया ! बड़ी जोर की भूख लगी है। कछु खायबे कूँ देय’- फिर अकस्मात नई बहू को देखकर वह पूछ बैठा- ‘यह कौन की बहू है मैया?’
‘आ, तोकू याको मोहड़ो दिखाऊँ ! कैसो चाँद जैसो मुख है याको ! तेरे सखा सुन्दर की बहू है’- मैया ने उन्हें पुकारा।
‘अच्छा तो यह सुन्दर की बहू है? अभी नाय मैया, अभी मोंकु सखाओं के साथ कहूँ जानो है’- वे मुड़कर जाने लगे।
‘अरे लाला ! कछु खातो तो जा ! तोकू तो भूख लगी है’- मैया पुकारती रह गई, पर वे न रूके।
‘न जाने याको कहा सरम लगी ! नयी दुल्हन को मुख देखने को तो यह सदा आतुर रहता है’- माँ ने अनमनी होकर कहा।
माधवी गोचारण का समय होते ही भीतरी कोठे में चली जाती। कानों में अंगुली देकर छिप कर बैठ जाती।ऐसे ही वह सांझ को करती।जल भरने ऐसे समय जाती जब घाट सूना होता।इतने पर भी घर में तो सबको, घर में ही क्यों व्रज भर के सभी जनों को कृष्ण के गुणगान का व्यसन था। वह अपने गृहकार्य में लगी रहती और मन ही मन हँसती-कैसे हैं ये लोग? सब के सब एक छोरे के पीछे बावरे हो रही हैं। वह बार-बार अपनी मैया की शिक्षा याद करके अपने पतिव्रत धर्म की सावधानी से रक्षा करती।माधवी की सास कहती- 'पहले तो नंदलाला प्रतिदिन घर आता। कुछ-न-कुछ माँग कर खाता, सुंदर के साथ खेलता, मुझसे और सुंदर से बतियाता, पर जबसे बहू आई है, ऐसा लजाने लगा है कि बुलाने पर भी नहीं आता। बहू को भी ऐसी लाज लगती है कि कन्हैया के आने की भनक लगते ही दौड़कर भीतरी कोठे में पहुँच जाती है- ‘अरे, बावरी, लाला से कहा लाज? वह तो अपनो ही है।’
ऐसे ही कुछ समय बीत गया। इन्द्रयाग के स्थान पर गिरिराजजी की पूजा हुई। पूजा-परिक्रमा के समय भी माधवी ऐसी ही सावधान रही कि आँखों की पलकें झुकाये ही रहती।

मीरा की आँखों से झर-झर अश्रु प्रवाह बह चला- ‘आह ! कैसी प्राणघाती शिक्षा मैया की और कैसी मूढ़ता मेरी?’
ललिता माधवी को गिरिराज के चरण-प्रान्त में ले गयी। माधवी ने देखा, इन्द्र के कॊप से घनघोर वर्षा और उपल-वृष्टि आरम्भ हुई।मानव, पशु सब अति बेहाल।लगता था मानों प्रलय उपस्थित हो गया हो। किसी को किसी ओर से त्राण (रास्ता) नहीं दिखाई देता था। गाय, बछड़े, बैल डकरा रहे हैं। करुण-स्वर में प्रत्येक जन पुकार रहा है- ‘कन्हैया रे, लाल रे, कन्नू रे, भैया रे, श्यामसुंदर, हे कृष्ण, बचाओ, बचाओ।इन्द्र का कोप आज व्रज का नाश कर देगा।’
आँधी-पानी के भयानक रव में उन व्रजवासियों के स्वर डूब-डूब जाते।तभी वहाँ घन-गंभीर स्वर सुनायी दिया, प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक जन को सुनायी दिया -‘गिरिराज तरहटी में चलो, वही हमारी रक्षा करेंगे।’
जो जहाँ था, वहीं से अनुमान द्वारा गिरिराज की ओर दौड़ा।माधवी भी भाग रही है। प्राण के संकट के समय लाज-घूँघट का स्मरण किसे रहता हैं। सबके साथ वह भी गिरिराज के नीचे पहुँच गयी। जब थोड़ा ढाढ़स बँधा तो देखा कि सबके सिर पर गिरिराज-गोवर्धन छत्र की भाँति तना हुआ है। पानी की एक बूँद भी जो कहीं टपकती हो। पर गिरिराज किसके आश्रय ठहरे हैं? घूमती हुई दृष्टि एक छोटी-सी कनिष्ठिका पर रुक गई। ऐसी सुंदर अंगुली और हाथ..... आश्चर्याभिभुत दृष्टि, भुज के सहारे नीचे उतरने लगी.... और.... वह मुख.... वह छवि.......एक नजर में जो देखा जा सका, सो ही बस, नेत्रों के पथ से उस रूप-समुद्र ने उमड़कर ह्रदय को लबालब भर दिया।मन, बुद्धि न जाने किस ओर भाग छूटे? सात दिन कब बीते, इसका ज्ञान किसी और को हो तो हो, पर माधवी को नहीं था।
एक दिन पुन: वही स्वर गूँजा- ‘वर्षा थम गयी हैं, सब बाहर निकलकर अपने-अपने घर जाओ।’
मैया यशोदा कह रहीं थीं-'लाला रे, तेरो हाथ दुखतो होयगो बेटा, अब तो धर दे याऐ नीचे।’
क्रमशः

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला