mc 111

मीरा चरित 
भाग- 111

माधवी का ह्रदय हाहाकार कर उठा। श्यामसुंदर सबकी ओर देखकर मुस्कुरा रहे थे और जाते हुए लॊगो को हँसकर कुछ-न-कुछ आश्वासन दे रहे थे किन्तु उसकी ओर एक बार भी भूलकर ना देखा।
‘अरी मैया ! यह कैसी उल्टी शिक्षा दी तैंने?’-  वह व्याकुल हो पुकार उठी- ‘क्षमा करो, क्षमा करो।मुझ अबोध से भूल हुई।प्रसन्न हो जाओ।कहो, मैं क्या करूँ? जिससे तुम प्रसन्न हो जाओ, वही करूँ।अब यह माधुरी मूरत आँखों से दूर न हो, ऐसी कृपा करो, कृपा..... करो... कृपा.... करो।’- वह जहाँ खड़ी थी वहीं गिर पड़ी- ‘मेरे अपराध क्षमा हों।’
अब की बार सरस-मीठी वाणी कानों में सुधा-सिंचन करने लगी- ‘भूल मान गयी है, अत: दर्शन तो नित्य ही होंगे, पर लीला में सम्मिलित न हो सकेगी। परिमार्जन के लिए कलिकाल में जन्म लेकर भक्ति-पथ का अनुसरण करने पर शुद्ध होकर मुझसे मिल जायेगी’- माधवी अचेत हो गयी।
अब नित्य प्रातः सायँ मुरली- रव कानों में पड़ते ही अटारी पर चढ़ जाती, पुष्प वर्षा करती। सखियों के संग जा-जा कर लीला-स्थलियों के दर्शन करती और उनकी सुनती, किसका घड़ा फोड़ा, किसके घर माखन की कमोरी फोड़ी, किसकी चोटी खाट से बाँधी, किसके बछड़े को खोलकर दूध पिला दिया। इन विविध लीलाओं को सुन-सुन करके अकेले में अश्रु बहाती।अब भी तो सबके साथ ही रहती है परन्तु कभी भी उसकी मटकी को हाथ तक भी नहीं लगाया उनहनिं, कभी चिढ़ाया नही, कभी ठीक से उसकी ओर देखा तक नहीं। 
उसकी सास बार-बार पूछती- ‘कोई मांदगी लगी हैं क्या बहू? कही दुखता हैं बेटी?, तू ठीक से कुछ खाती-पीती भी नहीं। पीहर की, मैया की याद आ रही हो तो कछु दिन वहाँ हो आ लाली।’
‘ना मैया ! मोकू पीहर नाय जानों। मैं तो स्वस्थ हूँ मैया ! आप कछु चिंता मत करबो करौ’- मीठा बोल सास को समझा देती।उसका पति सुंदर ही उसके प्राणों का आधार था। गृह कार्यों से निवृत हो पद-सेवा के मिस अपने पति सुंदर के चरणों को गोद में लेकर बैठ जाती और धीरे से कोई चर्चा चला देती- ‘आज आपके सखा और आप...?’ बस, उसके लिए इतना संकेत ही पर्याप्त था। ब्रज में सभी कृष्ण-चर्चा, कृष्ण-गुणगान के व्यसनी हैं। चर्चा आरम्भ होने पर रात्रि का अवसान कब हुआ, दोनों ही नहीं जान पाते।ताम्रचूड़  ही उन्हें सचेत करता। दिन बीत रहे थे इसी प्रकार, और एक दिन वज्रपात हुआ- क्रूर अक्रूर, व्रजनयनचंद, प्राणरक्षक नागमणि को लेकर मथुरा जा बसा।
मीरा मूर्च्छित हो ललिता के चरणों में जा गिरी।ललिता ने गोद में लेकर दुलार से समझाया- ‘वह अमानिशा बीत गयी माधवी ! देख तो, जीवन प्रभात समीप है अब तो।’
जल पिलाने पर सचेत होकर उसने पूछा- ‘यह चम्पा.....?’
‘मेरे साथ आ ! बताती हूँ’- ललिता ने साथ चलने का संकेत करते हुए कहा।

मीरा देख रही थी कि यहाँ की भूमि कहीं स्वर्ण, कहीं स्फटिक, कहीं हरितमणी और कहीं पुष्पराग की है। इसी प्रकार वृक्ष-वल्लरियाँ पुष्प, पत्र और फल भी मणिमय, स्वर्ण और रजतमय ही है।इतने पर भी विविध पुष्पों के सौरभ से प्रकृति महक रही है। छहों ऋतुँ सदा वहाँ उपस्थित रहती हैं।अभी यहाँ वर्षा है तो तनिक आगे चलकर शरद है और थोड़ा आगे चलने पर ग्रीष्म या हेमंत और थोड़ा इधर उधर होने पर शिशिर या वसंत की बहार है।भिन्न भिन्न ऋतुओं में फलने वाले सभी वृक्ष फलभार से नमित हैं।मानों ललिता से अनुरोध कर रहे हों कि हमें भी सेवा का अवसर देकर कृतार्थ करें अथवा हमारे प्राणेश्वर एवं प्राणेश्वरी का वन विहार करवा कर हमें दर्शन कराओ।पशु पक्षी सब प्रेमावेश से शिथिल गात होकर उनके समीप आ जाते, तब ललिता उन्हें हाथ से दुलारती हुई कहतीं- ‘अभी आयेगें, अवश्य आयेगें।हमारे सर्वस्य अपनी प्राणप्रिया के संग आकर तुम्हें दर्शनान्द अवश्य प्रदान करेंगें’- मीरा के स्पर्श से वे थोड़ा बचने की चेष्टा करते।
‘अरे यह तो अपनी है बावरों ! अपनी सखी है’- ललिता जी मीरा का हाथ थामकर मृग दम्पति, पक्षियों और शशकों पर फिराती। एक चिरैया मीरा के हाथ पर बैठकर स्नेह से सिर घुमा-घुमाकर करके कुछ संकेत करने लगी।
‘हाँ, हाँ ! किशोरीजू ने आश्वासन दिया है।देखो न, ऐसा न होता तो यह यहाँ कैसे होती भला?’
ललिता की बात पर उन सभी ने उन्हें घेरकर, नाच नाचकर, कूद कूदकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।स्त्रोतों की छोटी धाराओं पर रत्नमयी शिलायें रखी थीं।पार जाने के लिए बड़ी धाराओं पर स्वर्ण व मणिमय पुल बने हुये थे।इन सब स्त्रोतों की धाराएँ आगे जाकर श्री यमुनाजी में मिल जातीं हैं।यमुना के घाट स्वर्ण और स्फटिक के बने हुए हैं। सीढ़ीयाँ कहीं प्रवाल और कहीं पन्ने की। पत्र, पुष्प, लता, वृक्ष, सबके सब मणिमय प्रकाशमय होते हुए भी अत्यंत कोमल हैं।पुलिन के रेणु कण महान मोती ही है।पंक विहीन यमुना में कमल पुष्पों की भरमार है।धरा की दूर्वा मानों हरितमणि से बनी हो, किंतु पाँव धरने पर लगती है प्राकृत दूर्वा से अनंत गुना कोमल।जिस ओर भी दृष्टि जाय, सर्वत्र सुंदरता, मधुरता, कोमलता, दिव्यता ही छायी है। कभी-कभी उसे लगता है कि जो कुछ दिखाई देता है, सब श्याम सुंदर ही हैं।पवन पानी धरा गगन पादप पुष्प वन वनचर विहंगसबमें उसे श्याम सुंदर की झाँकी दिखाई देती है, यहाँ तक कि सखियों और श्री जी में भी वही दीख पड़ते हैं।कभी किशोरी जू ही सबमें प्रतिबिंबित होतीं हैं और कभी दोनों युगल।केवल नाम मात्र सुन लेने से पशु पक्षी प्रेम परवश होकर ऐसे रोमांचित हो जाते हैं कि उससमय उन्हें पहचान पाना कठिन हो जाता है कि यह किस जाति का पक्षी अथवा पशु है।
मीरा को तो सखियाँ, श्याम सुंदर और किशोरीजू भी रत्नमय प्रतीत होतीं।उनके कुण्डलों का प्रतिबिंब कपोंलों पर स्पष्ट दिखाई देता।उनके दाँत हीरक खंड, अधर प्रवाल और देह पुष्प पराग और नीलमणि निर्मित दिखाई देती थी, किंतु उन देहों की कोमलता, स्निग्धता और मधुरता अचिन्त्य है।जब श्याम सुंदर किशोरीजी के साथ विराजित होते, तब एक दूसरे की देह द्युति के कारण आधे आधे अंग हरित वर्ण के दिखाई देते।वहाँ जड़ कुछ भी नहीं था, सब चैतन्य, दिव्य एवं चिन्मय था।युगल दम्पति के सुख के निमित्त लीला में जब जैसी आवश्यकता हो, वैसा ही स्वरूप समस्त चर अचर धारण कर लेता था।
क्रमशः

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