mc114

मीरा चरित 
भाग- 114

‘फिर मेरा यहाँ....।’- मीरा कहते कहते रूक गई।
‘सुप्रयोजन है।इस देश का शासक तुम्हारे दर्शन से पवित्र होगा।और कुछ चाहिए? जानती है, तेरे सेवक-सेविकाएँ नित्य रो-रोकर मुझसे अपनी स्वामिनी के आरोग्य के लिए प्रार्थना करते हैं।’- श्याम सुंदर मुस्कुराये।
‘उन पर कृपा कब होगी? उन्होंने इस देह के लिए अपनी देह-गेह का मोह भी छोड़ दिया है।सदा वे मेरी ही चिन्ता में व्यस्त और व्याकुल रहते हैं।’
‘तेरा कथन मेरा कथन है, तेरी सेवा मेरी सेवा है।तू, तू नहीं है। तुझमें निरन्तर मैं क्रियाशील हूँ, अतः तेरे सेवकों के कल्याण में क्या संदेह है?’- उन्होंने सिर पर हाथ रखा।
‘यह ले’- उन्होंने चन्दन की कलात्मक छोटी सी मंजूषा उसकी ओर बढ़ाई- ‘यह चमेली को दे देना, जिसके कारण से वह चिंतित है, उसका समाधान इसमें है।’
‘राधा बहिन का आग्रह है कि आज के नृत्योत्सव में प्रथम नृत्य माधवी का हो’- चम्पा ने आकर कहा, मीरा ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाये।

बादशाह अकबर और तानसेन.....

‘जय श्री राधे' की द्वार पर पुकार सुनते ही केसर उपस्थित हुई- ‘पधारे भगवन्’
सत्संग कक्ष में बैठी मीरा भगवा वस्त्र पहने हुये नेत्र बंद किये बैठा थी।आहट सुन वे उठ खड़ी हुई।उन्होंने देखा कि साधारण नागरिक वेश में दो भव्य पुरुष अभिवादन कर रहे हैं। मीरा ने उत्तर में हाथ जोड़ कर सिर झुकाया और आसन पर विराजने के लिये अनुरोध किया।चमेली ने आकर प्रसाद स्वीकार करने की प्रार्थना की।उन्होंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुये कहा- ‘सुयश सुनकर श्रवण कृतार्थ करने हेतु सेवा में उपस्थित हुये हैं।’
मीरा ने पलकें उठाकर कहने वाले की ओर देखा।तीस पैतींस के मध्य आयु, सौम्य भद्र मुखमुद्रा, उसके बैठने और बोलन के ढंग से लगा- वह राजाओं द्वारा सम्मानित व्यक्ति है।तभी उनकी दृष्टि उसके दाहिने हाथ की तर्जनी पर गई। उस पर मिजराब (सितार वादन के लिये मुद्रा) धारण का चिन्ह अंकित था।अवश्य ही ये गुणी कलावंत हैं। उससे थोड़ा सा पीछे की ओर बैठा व्यक्ति बीस-बाईस वर्ष की आयु, अति सादी वेशभूषा होने पर भी, दृष्टि और मुखमुद्रा में झलकता रौबे-हुकूमत उसे विशिष्ट बनाए दे रही थी। वह सेवक बनकर आया था पर उसकी बैठक राजा जैसी थी।उसमें सिंह के समान निश्शंकता और वैसी ही शान थी।वह उत्सुकता-पूर्वक मीरा की ओर देख रहा था।
मीरा ने मुस्करा कर कहा- ‘सुयश सर्वेश का अथवा उनके अनन्य प्रेमी जनों का ही श्रवण योग्य होता हैं भाई ! साधारण जनों का यश तो उन्हें पतन की ओर धकेल देता है। यश बहुत भारी चीज है। इसे झेलने की शक्ति होनी चाहिए।’
‘यदि यह मान लिया जाये तो कोई शुभ कर्म की ओर प्रवृत ही नहीं होगा’- आगे बैठे व्यक्ति ने कहा, 'साधारण जन तो धन और यश की लिप्सा से ही उधर प्रवृत होते हैं।’
‘मैंने साधारण जन के लिए नहीं, शाह के लिए कहा है।राजकर्म सेवक का धर्म हैं। सेवक तो फिर भी सेवक होता है, परंतु राजा होकर भी स्वयं को सेवक मानना, प्रजाजन का, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाले हों,समान रूप से पोषण करना और अपना यश कीर्ति सुनकर प्रमत्त न होना बल्कि राज्य को ईश्वर की धरोहर मानना, गुणीजनों का संग्रह और सम्मान करना, प्रजा धन-धान्य से खुशहाल रहे, यही उसका सबसे बड़ा कर्तव्य है। अपने अवगुण बताने वाले हितैषियों पर क्रोध न करें, सच सुनने को सदा तत्पर रहें, सदा अपने पराये का भेद त्याग कर न्याय को महत्व दें और गुप्त रूप से मंत्रियों गुप्तचरों और अन्य पदाधिकारियों की जाँच करते रहें।समय-समय पर प्रभु-प्रेमियों के मुख से प्रभु का सुयश सुनते रहें और भोग, धन, पद के मद से निरपेक्ष रहें।’
दोनों आगंतुक चकित से हाथ जोड़ सिर झुकाये सुनते रहे।फिर आगे बैठे सज्जन  ने विनयपूर्ण निवेदन किया- ‘मात, हरि यशगान सुनने की अभिलाषा ही श्री चरणों में खीच लायी है।राजनीति का यह उपदेश हम अनाधिकारियों को भ्रांत कर देगा, ऐसी आशंका मन में मस्तक उठाकर मुसकरा रही है।’
‘प्रभु किसके द्वारा क्या कहलवाना चाहते हैं। यह हम कैसे जान सकते हैं? कैन राजा कैन भिखारी, यह तो वह स्वयं भी नहीं जानता।अधिकतर भिखारी को राजा और राजा को भिखारी होने का भ्म रहता है।सत्य यह है कि दाता केवल एक है, बाकी तो सब भिखारी ही हैं, भले वह राजा हो या कृषक।जौहरी जिधर से, जहाँ से गुजरे, रत्नों का संग्रह करके चलता है।वह नहीं देखता कि किस स्थान से उठ रहा है।उसकी दृष्टि जवाहरात पर रहती है, गंदगी कूड़े कचरे अथवा स्वच्छता पर नहीं।’
 पुन: पद सुनने की प्रार्थना पर मीरा ने एकतारा उठाया। चमेली ढोलक, और केसर मंजीरे बजाने लगी-

म्हाँरो गोकुल रो व्रजवासी।
जग सुहाग मिथ्या री सजनी होवा हो मिट जासी।
वरण करया अविनाशी म्हें तो काल व्याल न खासी।
म्हाँरो प्रीतम हृदय बसताँ दरस लह्यै सुख रासी।
मीरा रे प्रभु हरि अविनाशी चरण गह्या थाँ दासी।

आगे बैठे सज्जन झूम-झूम गये, उनकी आँखे झरने लगी। मीरा ने आगे बैठे व्यक्ति से गाने का आग्रह किया। 
‘मैं सरकार?’- उन्होंने चौंक कर कहा।
‘वाणी की सार्थकता हरि गुण-गान में ही है’-
 जग रिझाये  क्या मिले  थोथा धान पुआल।
हरि रिझाये हरि मिले खाली रहे न कुठाल॥

उस व्यक्ति ने मीरा का ही एक पद गाया।श्रुति के लिए इधर उधर देखा।संकेत समझकर किशन तानपुरा उठा लाया।तार झंकृत करते हुए उसने आँखे बंद करके गुनगुनाते हुये रागतालका संकेत दिया।तत्पश्चात सध् स्वर में आलाप देकर गाना आरम्भ किया।राग धनाश्री का कठिन उतार-चढाव उनके सधे हुए कंठ का मानों सरल खेल हो-

परम सनेही राम की नित ओल्यूँड़ी आवै।
राम हमारे हम हैं राम के हरि बिनु कछु न सुहावै।
आवण कहि गया अजहुँ न आया जिवड़ो अति अकुलावै।
तुम दरसन की आस रमैया कब हरि दरस दिखावै।
चरण कमल की लगन लगी नित बिन दरसन दु:ख पावै।
मीरा कूँ प्रभु दरसन दीजो आनन्द वरणयों न जावै।

‘धन्य, धन्य’- मीरा के मुख से निकला।आगंतुक ने संकोच से सिर नीचे झुका लिया- ‘धन्य तो आप हैं सरकार।हम तो विषय के कीड़े हैं।’
‘सो कुछ नहीं, प्रभु ने आपको विशेष सम्पदा से निवाजा है। जिसको उसने जो दिया है, उसी से उसकी सेवा की जाये’- मीरा ने प्रसन्न स्वर में कहा।
क्रमशः

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