mc 116
मीरा चरित
भाग- 116
‘वह सब उस मालिक का कमाल था, हुजूर ! गुलाम तो उसके सामने किसी काबिल नहीं।याद हैं जहाँपनाह ! उसने जब हमें बिना कहे पहचान लिया, तब उसने हुजुरेवाला को एक बादशाहके फर्ज भी बताये।’
ओह, वे बातें बड़ी बेशकीमती हैं तानसेन।माबदौलत उन पर अमल करना चाहेगें, कोशिश करेगें।यह तो सचमुच हैरानियत की बात है कि उसने हमें पहचान लिया।’
‘हुजूर, खास बात तो यह है कि उसने अपना खुदा से ताल्लुख रसूख जाहिर किया।’
‘बेनजीर हैं तानसेन ! यह वतन और यहाँ के बाशिन्दे। हम कोशिश करेंगे कि इनको और इस वतन को अमन चैन हासिल करा सकें।अब आगरा का किला फख्त जगो-जदल के लिए ही नहीं, इन फकीर ओलियाओं से गुफ्तगूँ के लिए भी जरूरी हो गया है।’
प्राण प्रियतम का संदेश......
‘माधवी’- मीरा चौंक कर पलट गई। सम्मुख चम्पा खड़ी थी। मीरा चरण स्पर्श को झुकी तो चम्पा ने आगे बढ़ उसे छाती से लगा लिया।
गिरिराज जी की परिक्रमा करते हुए श्री राधाकुण्ड में स्नान कर मीरा सघन तमाल तरू के तले बैठी थीं। केसर और चमेली नहा रहीं थीं।किशन सूखे वस्त्रों की रखवाली कर रहा था और शंकर दाल-बाटी की संभाल में लगा था।
‘माधवी, एक संदेश है तेरे लिये’- वे दोनों पेड़ की आड़ में बैठ गईं तो चम्पा ने स्नेह से कहा- ‘ श्यामसुन्दर की इच्छा है कि तू अब द्वारिका चली जा।’
मीरा की आँखें भर आईं।उन्होंने नेत्र बंद कर लिये।मुख से वाणी नहीं निकल पाई। कुछ क्षण पश्चात उन्होंने कहा- ‘बहिन ...क्या कहूँ? वे कृपा पारावार हैं।आप.... किशोरीजू स्मरण करती हैं यह.... ।’
‘तेरी इस देह का दोष है यह’- चम्पा हँस दी- ‘हम सखियों में कौन छोटा बड़ा है भला? अब अधिक समय तक नहीं रहना होगा यहाँ।’
मीरा उल्लसित हो उठी - ‘सच, सदा के लिये मैं किशोरीजू की सेवा में, उनके चरणों में रह पाऊँगी मैं’
चम्पा ने तनिक गम्भीर होकर चुप्पी साध ली।उसे चुप देख कर मीरा का मन किसी आशंका से दु:खा, किंतु उसे परे ठेलकर हँसते हुये बोली- ‘कहो बहिन। प्रियतम का संदेश कहो।उनकी प्रत्येक बात, उनका प्रत्येक विधान रसपूर्ण है। इस दासी को वे जैसे चाहें जहाँ चाहे रखें।यह जहाँ भी, जिस अवस्था में होगी, उन्हीं की रहेगी। इसमें सोचना क्या है? द्वारिका भी मेरे ही प्राणपति का धाम है।’
‘तुमने माधवी के रूप में प्रथम बार श्यामसुन्दर के ऐश्वर्यमय स्वरूप के दर्शन पाये। तुम्हीं ने कहा था कि उनके चार हाथ हैं, दो से वंशी संभाले हैं, एक से गिरिराज उठाए हैं और एक हाथ अभय मुद्रा (आशीर्वाद मुद्रा में) उठा है’- उसने मीरा की ओर देखा तो उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया- ‘तुमने सदा गिरधर गोपाल कहते हुये द्वारिकाधीश की उपासना-कामना की, तुम्हारे भावों के अनुसार द्वारिकाधीश से ही तुम्हारा विवाह हुआ।’
‘क्या कोई भूल हुई? मैं अनजान-अबोध बालक थी’- मीरा ने कम्पित स्वर में कहा।
‘नहीं रे’- चम्पा हँसी- ‘केवल इतना ही कि वे भक्तवाञ्छाकल्पतरू हैं।फिर पत्नी को पति के घर ही रहना चाहिये न’- मीरा भूमि की ओर देखती हुई चुप बैठी रही।
‘संकोच मत कर, जो कहना है, कह दे। मैं जाकर, जो तू कहे, कह दूँगी। वे तो निजजनप्राण हैं। उनका तात्पर्य है कि यदि यह व्यवस्था तुझे न रूचे, अथवा इसी में कोई परिवर्तन या कोई नवीन व्यवस्था चाहो, तो वैसा कर दिया जाये। वे तेरी इच्छा जानना चाहते हैं’- चम्पा ने मीरा का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा।मीरा की आँखें बरस पड़ी। वह चम्पा से लिपट गई - ‘नहीं बहिन ! नहीं, वे जो चाहें, जैसी चाहें, वही व्यवस्था करें। उनकी उदारता, करूणा सीमाहीन है बहिन।अपने जनों का इतना मान, इतना मन कौन रखेगा? मुझे तो यह जानकर कष्ट हुआ कि उन्हें मुझसे पुछवाने की आवश्यकता क्यों जान पड़ी? अवश्य ही अंतर में कोई आड़-ओट बाकी है अभी। यदि है तो बहिन, वह मिट जाये, ऐसी कृपा कर दो .....बस.....यही चाहिए मुझे।’
चम्पा प्रसन्न हो उठी - ‘यही तो चाहिए बहिन, पर इतनी सी बात लोग समझ नहीं पाते।’
‘और बात रहने दो चम्पा।कुछ उनकी चर्चा करो बहिन।श्री श्यामसुन्दर, श्री किशोरीजू कभी अपनी इस दासी को स्मरण करते हैं? तुम्हें देखकर प्रिय-मिलन सा सुख हुआ।उनकी बात करो चम्पा। उनकी .... बात करो.... प्राण प्यासे हैं।’
अपने आँचल से चम्पा ने मीरा के झर-झर झरते नेत्र पोछें- ‘धीरज धर बहिन, अब अधिक विलम्ब नहीं है- ‘अपनों को कोई भुला पाता है पगली? नित्य साँझ को जब सब सखियाँ इकट्ठी होती हैं, जब महारास की प्रस्तुति होती है, तब किशोरीजू और श्यामसुन्दर मध्य तेरी चर्चा चलती है। बहुधा मुझसे भी तेरे बारे में पूछते हैं। कई बार तेरे वियोग में उनकी आँखें भर आती हैं। वे तेरे दु:ख से दु:खी होकर कहते हैं - मीरा की सेवा, प्रशंसा करने वाला मुझे बहुत प्रिय है और उसका विरोध करने वाला मेरा भी वैरी है।’
‘मीरा?’- मीरा ने चौंककर सिर उठाया। ‘हाँ, कभी-कभी वे तेरा यह नाम भी लेते है। एकबार किशोरीजू ने पूछा तो उन्होंने कहा- ‘मुझे उसका यही नाम अधिक प्रिय है। माधवी बनकर उसने क्या पाया? मीरा होकर तो उसने मुझे अपने प्रेम-पाश में बाँध लिया है।’
‘तुमने कहा कि मेरा विरोध करने वालों से वह नाराज हैं। उनसे कहना बहिन, वे बेचारे अनजान- अबोध उनकी दया के पात्र हैं। मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि उन पर कृपा करें’- मीरा ने हाथ जोड़कर चम्पा के पाँव पकड़ लिये।
चम्पा हँस दी- ‘यह तो उनका स्वभाव है बहिन,भक्त के सामने अपनी समदर्शिता भूल जाते हैं वे।’
‘वे कुछ नहीं भूलते चम्पा। जीव ही अपना अभाग्य न्यौत लाता है किंतु मेरी प्रार्थना भूल मत जाना।विरोध करने वाले कोई भी हों, उन्होंने मेरा हित ही किया है बहिन।विरोध से ही दृढ़ता आती है। यदि दु:ख देने वाले न हो तो जीव के पाप-कर्म कैसे कटें? नहीं-नहीं, चम्पा, उन सा हित करनेवाला तो कोई नहीं है। भला कहो तो सही, सर्वेश की नाराजगी लेकर भी किसी के पाप काट देना क्या सहज है?’
‘नहीं’- चम्पा ने हँसकर सिर हिलाया और कहा- ‘सहज नहीं है परंतु अपने स्वभाव का कोई क्या करे? अपने प्राणसखा भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ पाते।जानती है चित्तौड़ के राणा के क्या हाल हुये?’
क्रमशः
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