मन की पवित्रता

"मन की पवित्रता"..(संक्षिप्त)

भजन करने वाले भक्त जो भजन करना तो चाहते है पर सांसारिक वृतियों के चलते उनसे भजन बन नहीं पा रहा है..भक्तों के लिए जीवन में इस महासंकट के चलते उनका ह्रदय बहुत ही बेचैनी का अनुभव करता है..

वह अनुभव जो भक्त एक रसिक (जो भगवद रस को जनता है) के सिवाए किसी और से चाह कर भी नहीं बाँट सकता है..और यदि बाँटने का प्रयास करेगा तो आम जन समुदाय में अपना हास्य बनवाने के लिए एक मुद्दा बन रह जाएगा..

यद्यपि जो व्यक्ति यह सोचते है कि हम भजन कैसे कर पाएं या क्यों नहीं कर पा रहे.. वस्तुतः इस मानसिकता का उनके मन में प्रकट हो जाना ही भजन का एक रूप है..!

अब यहाँ बात यह आती है की सत्यता में भजन हो तो हो कैसे..
यहाँ ध्यान देने वाली बात है..कि भजन में मन लगे.इसके लिए सबसे पहले मन का ही कार्य सर्वोपरि है..
वह मन जो संसार के आकर्षणों से इस प्रकार मोहित हो चुका है जो केवल इंद्रियों के विषय भोगो को पूर्ण करने के सिवाए भजन करने में असमर्थ ही है..और यदि भजन करता भी है तो घूम फिर कर वही आ जाता है जहाँ से निकलने का प्रयास करता है..

इस स्थति में भी जो व्यक्ति भजन करने में रूचि लेते है उनके लिए सबसे आवश्यक है "मन की पवित्रता"..
क्योंकि पवित्र मन की पहचान ही यही है कि वह "केवल" भजन में ही लगेगा..

अब प्रश्न यह उठता है कि मन पवित्र कैसे हो..
इस पर कई संतों व विद्वानों ने कहा है कि यदि "भजन करना चाहिए" इस बात की प्रेरणा हमें हो रही है..तो जीव को चाहिए की भजन का अभ्यास प्रारम्भ कर दे..जिस से मन की शुद्धि होना आरम्भ हो जायेगा..भजन न भी कर पाये तो जहाँ भजन हो रहा हो वहाँ जाकर बैठे..

रामायण जी का, भगवान् की स्तुतियों का, किसी अनुष्ठान में मंत्रो का, श्रवण करे..यह तब भी करे जब इन सब को सुनने का मन न हो तो भी..

मन तो सदा मना ही करेगा..क्योंकि जीव के पापों का संग्रह ही इतना है कि उसका मन जिस अभ्यास को जन्मों से करता आया है उसी के लिए प्रेरित करेगा अर्थांत सांसारिक विषय भोगों के लिए ही..

यदि जीव को भजन करने की प्रेरणा हो रही है तो उसे इन सब का श्रवण करना ही चाहिए..क्योंकि कोई भी कार्य करने से पूर्व उसका रूपक तैयार करना बहुत आवश्यक है..और उसका रूपक यहीं से आरम्भ होगा..

हमारे जैसे कई व्यक्ति यही सोचते है कि भजन करने का अर्थ केवल जाप करना, पाठ करना, ध्यान करना इत्यादि..इसी प्रकार का होता है..

इस पर शास्त्र में एक प्रश्न उठा कि भजन किसे कहते है..?
तो कहा गया कि ब्रह्म रस रूप है..और उस रस की अनुभूति हमें जिस प्रकार भी हो जाये..वही भजन है..

अब यदि उस रस की अनुभूति हमें पूजा करने में होती है..तो वह भजन है..जाप करने में होती है, ध्यान करने में होती है, पाठ करने में होती है, भजन गाने में होती है, भगवान् के भजन में नाचने से होती है या भगवान् के बर्तन मांजने में भी होती है तो वह ही भजन है..

शास्त्रों में ही वर्णित है कि यदि कोई भजन करता है तो उसके मुख पर एक प्रसाद आता है..इस से यह पता लगता है कि भजन हो रहा है..और यदि सत्यता में भजन हो रहा है तो वह निश्चित ही हमारे मन को पवित्र करेगा..और सहज ही मन भजन में लगने लगेगा....!

श्री राधे..🙌

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला