मानसी सेवा

मानसी सेवा हम अपने मानसिक रुप से हृदय में प्रत्यक्ष विराजमान ठाकुरजी की करते हैं।अकिंचन वैष्णव को इससे दोहरा लाभ मिलता है।किसी कारण से वह तनुजा वित्तजा सेवा नहीं कर सकता तो मानसी में उसकी जरूरत नहीं पडती।दूसरा मानसी सिद्ध होने पर सानुभाव तत्काल मिलने लगता है।भगवद् साक्षात्कार की स्थिति होती है।तनुजा वित्तजा सेवा करने वाले भी खाली समय में मानसी कर सकते हैं।कोई सुंदर सामग्री बनाने की विधि पढी।नहीं बना पाये तो मानसी में बनायें।सुंदर वस्त्र,सुंदर शृंगार,पुष्प हार,आभूषण,पगा,फेंटा,कुल्हे मानसी में बना बनाकर ठाकुरजी को धरायें,कैसे दिखते हैं प्रभु!कभी कभी दिखने लगेगा ठाकुरजी यह नहीं वह शृंगार धराने के लिये कह रहे हैं।तनुजा में तो ठाकुरजी पुष्टि सेवा प्रणालिका से बंधे हैं।हर घर और उसके वैष्णवों के यहाँ उसी प्रणालिका का पालन होता है।मानसी में तो सेवक और स्वामी दोनों स्वतंत्र हैं।एक प्रश्न है मानसी में कोई वस्तु तो होती नहीं फिर ठाकुरजी को संतुष्टि कैसे मिलती होगी?तो बाह्य जगत में कौनसी वस्तु से संतुष्टि होती है यदिभाव न हो!यह ठीक है किसी मनुष्य का पेट भाव से नहीं भरा जा सकता पर मानसी में भाव से प्रभु को तृप्त किया जा सकता है अन्यथा महाप्रभुजी कभी मानसी सेवा को सर्वश्रेष्ठ घोषित नहीं करते-मानसी सा परा मता।भाव बिना,सामग्री नहीं पर सामग्री बिना,भाव पर्याप्त नहीं यह ठीक है पर गोलोक में जो सामग्री होती है वह चिन्मय स्वरूप होती है,भूतल का स्थूल प्रकार नहीं होता।यह सामग्री नष्ट हो सकती है,वह नहीं।वह स्वामिनीजी,चंद्रावलीजी तथा अन्य गोपीजन का भावस्वरुप होती है।ज्यादा कहना यह सही होगा कि जिसका जैसा भाव है उसका वैसा भाव ही सामग्री का नामरुप धारण करता है।भाव अनिर्वचनीय है,गूढ है इसीलिए पुष्टि मार्ग में सामग्रियों के नाम नहीं लिये जाते।नाम न लेने के मर्यादा संबंधी अन्य कारण गौण हैं।पुष्टि मार्ग की समस्त लीला सामग्री भावरुप है।बिना सामग्री के केवल भाव को अपूर्ण इसलिए नहीं बताया जा सकता क्यों कि ठाकुरजी स्वयं परिपूर्ण रुप से भावस्वरुप हैं।भगवान ही हैं भाव और भाव ही है पुष्टि मार्ग में हर एक चीज।यह जो भाव को वस्तु से जोडने की जो आदत पड गयी है इसके कारण सच्चाई का पता नहीं चलता।इसीसे चित्त में खालीपन आता है।पर यह कोई लौकिक भाव नहीं जो अपूर्ण होता है,यह भगवद् भाव है,यह स्वरूपात्मक है इसलिए पूर्ण है।पुष्टि मार्ग में भावरुप भगवान ही सब बने हुए हैं-स्वयं श्रीनाथजी,स्वामिनीजी,यमुनाजी,गिरिराजजी,गोपी,ग्वाल,ब्रज के वृक्ष,लतापता,समस्त सामग्री,समस्त परिकर,लीला की एक एक चीज शुक,मयूर भी।इसीलिये भाव के अभाव में केवल वस्तु से प्रभु के संतुष्ट नहोने की बात कही जाती है।वस्तु निमित्त है,भाव मुख्य है।मानसी में वस्तु भी नहीं होती केवल भाव ही रह जाता है।यह स्वरूपात्मक भाव इतना सघन और चिन्मय है कि उसमें खाली जगह तो होती ही नहीं जो असंतोष का कारण बने।चूंकि प्रभु ही भावरुप में परिपूर्ण हैं अतः लीला में भाव अद्वैत की ही प्रधानता होती है।भावस्वरुप पुष्टि सृष्टि कभी अपूर्ण नहीं होती।
वस्तु के अभाव में केवल भाव से पूर्णता का अनुभव इसलिए नहीं होता है क्यों कि चित्त ने वस्तु से ही पूर्णता के अनुभव को जाना है,भाव से होने वाली पूर्णता को नहीं।वस्तु के अभाव में रहने से अलौकिक भाव की पूर्णता का अनुभव नहीं होता।मानसी में सारी बातें मूल से प्रेरित हैं।मानसी में न्यूनता और आधिक्य का पैमाना भी इस संसार का नहीं है।श्रीगुसांईजी के सेवक एक दयालदास बनिया की वार्ता में आता है-उसने गुसांईजी से कहा-पैसा खर्च न हो और सेवा हो जाए,ऐसा उपाय बताओ।'गुसांईजी ने कहा-तू मानसी सेवा कर।'सेवा आरंभ की तो एक दिन उसके हाथ से खीर में खांड अधिक पड गयी तो वह उसे खीर में से निकालने लगा।ठाकुरजी को तो वैसे ही खीर में खांड ज्यादा चाहिए।ठाकुरजी ने तुरंत उसका हाथ पकडा और आज्ञा की-इसमें तेरा कुछ भी खर्च नहीं लगा है फिर तू क्यों खांड पुनः निकाल रहा है?'उसे भगवत् साक्षात्कार हो गया।ऐसे में मानसी सेवा को सर्वोच्च न कहें तो और क्या कहें?महप्रभुजी ने कहा-चित्त को प्रभु में पिरोना ही सेवा है'तो मानसी में चित्त का भटकना बंद ही हो जाता है।इसकाजिसे प्रमाण चाहिए वह मानसी सेवा आरंभ करके देखे।यही उपाय है।
                      नाथद्वारा।
लालको मीठी खीर जो भावे।
बेला भर भर लावत यशोदा बूरो अधिक मिलावे।।
कनिया लियें यशोदा ठाडी रुचिकर कोर बनावे।
ग्वालबाल बन चरनके आगें झूठे हाथ दिखावे।।
व्रजरानी जो चहूंधा चितवत तनमन मोद बढावे।
परमानंद दास को ठाकुर हसहस कंठ लगावे।

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