एक दूसरे का चेहरा

हम दूसरे का चेहरा क्यों देखते हैं?इसका एकमात्र कारण है हम उसकी नजर में अपने को अस्वीकृत नहीं महसूस होने देना चाहते,स्वीकृत महसूस करना चाहते हैं।यह क्या चीज है?यह अभाव और पूर्ति का खेल क्या है जो आत्मस्वीकार के महत्व और परिणाम को सर्वथा भुला देता है?मानसिक मैं या अहंबुद्धि या अहम्मन्यता बहिर्मुखी होने के कारण बाहर की ओर सारे वजह ढूंढती है।जबकि सबका मूल हमारी संचित चित्त वृत्तियां हैं।ये बरबस घटती रहती हैं।इन्हें खाली होने देना चाहिए मगर स्वीकार भाव से,न कि अस्वीकार भाव से।इससे तो परेशानी और पीडा ही हाथ लगेगी।ऐसा समझना चाहिए जैसे स्वीकार के लिये हम दूसरों का चेहरा देखते हैं ऐसे ही हमारी संचित वृत्तियां भी हमें देखती हैं।एक दूसरे को अस्वीकार करना चाहे संभव हो लेकिन अपनी संचित वृत्तियों को अस्वीकार करना असंभव है।चित्त में विषाद हो तो चेहरे पर हर्ष झलकाने से कुछ नहीं होता।यह अपने आपका अस्वीकार है।यदि हम विषाद को स्वीकार लेते हैं तो वह कुछ समय पश्चात स्वस्थ होने से विलीन हो जाता है।वैसा ही अभाव के साथ है।हम अपने को दूसरे के द्वारा स्वीकृत क्यों महसूस करना चाहते हैं?कारण है अपने भीतर का कोई अभाव,कोई कमी जो है तो निरंतर पता चलता रहता है उसका।उसे झुठलाना संभव नहीं।वह हमारे रुप में है।उसे स्वीकारने का अर्थ है खुद को स्वीकारना,उसे नकारने का अर्थ है खुद को नकारना।खुद को नकारकर आज तक किसी ने सुख नहीं पाया,शांति नहीं पायी।खुद अहंरुप नहीं है,आत्मरुप है मूलतः।इसका स्वीकार सुख देता है।यह विचित्र है कि सुखस्वरुप आत्मा की स्वीकृति हम दूसरे के द्वारा चाहते हैं जबकि यह खुद के द्वारा होनी चाहिए-आत्मस्वीकृति के रुप में।गडबडी कहां है?बीच में अहंबुद्धि खडी है।इसके एक नहीं कई हिसाब हैं-किससे स्वीकृत होना,किससे स्वीकृत नहीं होना;किसे स्वीकार करना,किसे स्वीकार न करना-जीवन भर यह गणित चलती रहती है।हृदय में यह गणित नहीं होती,वह तो प्रेमपूंज है,परम सुहृद है-सुहृदं सर्वभूतानाम्-गीता।वही बुद्धिमान है जो दूसरों की नजर में स्वीकृत होने के बजाय अपने आपको अपने हृदय के रुप में स्वीकारने पर समग्र ध्यान देता है।यह द्रष्टा-दृश्य रुप में विभाजित मन का मूल स्रोत है।स्रोत को स्वीकारने से आदमी ठिकाने हो जाता है,शांति हो जाती है अन्यथा द्रष्टा-दृश्य रुप में बरबस विभाजित मानसिकता आदमी को परेशान करके रख देती है।यह आंतरिक-बाहरी विभाजन ही है।यह न समझकर मनुष्य बाहरी समाधान में जुटता है।अब हृदय के अवसाद को मिटाने के लिये बाहर कोई प्रेम को लाना चाहेगा,उसकी कोशिश करेगा तो वह कैसे होगा?चित्त में तो अवसाद का साम्राज्य है।गीतानुसार सत्व रज तम इन गुणों में जब जो गुण बलवान होता है तब उसीकी चलती है,तब दूसरे गुणों की नहीं चलती।अतः अपने भीतर जब जिस गुण का प्रभाव मालूम पडता है तब उसे नकारने की भूल नहीं करनी चाहिए।चूंकि ये गुण,हृदय से स्रोत से जुडे रहते हैं अतः इन्हे स्वीकारने से हृदय का स्वीकार हो जाता है या हृदय के रुप में आत्मस्वीकार करने से इन गुणों का स्वीकार हो जाता है।तब ये गुण विक्षेप नहीं करते।आदमी विक्षेप से परेशान होता है पर उस आवरण को समझने का प्रयास नहीं करता जिसकी वजह से विक्षेप आते हैं।कुल मिलाकर मनुष्य को स्व ज्ञान या आत्मस्वीकार के तथ्य पर आना होगा तभी वह आध्यात्मिक लाभ संभव है जो सांसारिक हानि से पूर्णतया अप्रभावित रखने में सक्षम है।विवेकानन्द आत्मा को समझकर आजीवन आत्मस्वीकार पर ही जोर देते रहे।जिसने समझा हर हाल में अपने को अपनाया वह निहाल हुआ।
यदि किसी की भक्ति दृष्टि है तब भी उत्तम है।हृदय में प्रेम स्वरूप परमात्मा विराजमान है अतः हृदय को नकारने का मतलब है प्रेमस्वरुप परमात्मा को नकारना,हृदय को स्वीकारने का अर्थ है प्रेमस्वरुप परमात्मा को स्वीकारना-ऐसा व्यक्ति परसमर्थन,परस्वीकार को महत्व देने वाली,उसके बलबूते पर जिंदा रहने वाली अहंबुद्धि,अहम्मन्यता के चक्कर में नहीं आता,शांत स्वस्थ सुखी रहता है।

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