शांति

शांति मानसिक घटना नहीं है।मन के तल पर केवल अधिक से अधिक समायोजन हो सकता है उसका।शांति आध्यात्मिक घटना है।आध्यात्मिक उपलब्धि की छाया है।शरीर के तल पर घोर अंधकार है।मन के तल पर घोर आवाजें हैं।बहुत सारी ध्वनियां हैं।मन एक विस्तार है।तुमने जो भी जाना-समझा है,तुमने जो भी जीया है और जो भी अनुभव किया है-वहाँ उस विस्तार से वह सब कुछ उपस्थित है,जीवित है,विद्यमान है।तुम्हारे सेंकडों,हजारों जन्मों का इतिहास मन के उस विस्तार पर लिखा है,वह कभी भी मिटने वाला नहीं।तुम्हारा मन तुम्हारे अनंत जन्मों का अद्भुत संग्रह है।इसीलिए तुमको मन के तल पर केवल भीड  मिलेगी,ध्वनियां मिलेंगी, आवाजें मिलेंगी।जिससे तुम घबरा जाओगे।अशांति,अशांति और अशांति के अलावा और कुछ वहाँ नहीं मिलेगा तुम्हें।वास्तविक शांति और सच्चे अर्थों में शांति की उपलब्धि तभी हो सकती हैजब तुम आत्मा के तल में प्रवेश करोगे।जैसे शरीर की आवश्यकता रोटी है और मन की आवश्यकता सुख है उसी प्रकार आत्मा की भी कुछ आवश्यकता है और वह आवश्यकता है-परम आत्मा।परम आत्मा,आत्मा का भोजन है।अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिये अपने भोजन को पाने के लिये (जीव)आत्मा भटक रही है न जाने कितने जन्म जन्मांतरों से।बारबार उसका जन्म लेने का एकमात्र उद्देश्य यही है कि उसकी आवश्यकता की पूर्ति हो।'
परमात्मा तो उसीको प्राप्त होते हैं जिसे वे स्वयं स्वीकार कर लेते हैं और वे स्वीकार उसीको करते हैं जिसको उनके लिये उत्कट इच्छा होती है।जो उनके बिना रह नहीं सकता।जो अपनी बुद्धि अथवा साधन पर भरोसा नहीं करके केवल उनकी कृपा की ही प्रतीक्षा करता रहता है।ऐसे कृपा निर्भर साधक पर परमात्मा कृपा करते हैं और स्वयं का स्वरूप प्रकट करते हैं।'
हम स्व प्रक्षेपित जगत के रागद्वेष से बंधे हैं।यह रागद्वेष छोडते ही हम अपने होनेपन के द्वारा स्वीकार लिये जाते हैं।यह 'हमारा' होनापन नहीं है,यह परम अस्तित्व है,परम आत्मा है जो आत्मा का भोजन है।देर इसके द्वारा हमें स्वीकारे जाने में नहीं लगती,देर हमारे जगत के प्रति रागद्वेष से मुक्त होने में लगती है।यदि हम रागद्वेष से बंधे हैं तो हम अस्तित्व द्वारा नहीं स्वीकारे जा सकते।यदि हम अस्तित्व द्वारा स्वीकारे हुए हैं तो इसका अर्थ है हम रागद्वेष के वश में नहीं हैं।इस प्रकार हर आदमी स्वतः स्वीकृत है  यदि उसकी दूसरे से बंधने के बजाय खुद से जुडने की उत्कट इच्छा हो।दोनों दिशाएं अलग हैं।गीता में कहा-रागद्वेष के वश में नहीं होवे क्यों कि दोनों कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले हैं-तयोर्न वशमागच्छेत ह्यस्य परिपंथिनौ।किसी को किसीकी स्वीकृति पाने के लिये उसकी गुलामी करने की जरूरत नहीं है,अपने राग द्वेष त्यागने पर अस्तित्व द्वारा वह स्वतः स्वीकार लिया जाता है।शांति और आनंद तभी प्रकट होते हैं जो परम आत्मा की वस्तु हैं,(जीव)आत्मा को प्रदत्त भोजन हैं,स्थायी रुप से तृप्ति कारक हैं।

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