सद्गुरु

*"एक सद्गृहस्थ- सद्गुरु "*

उन दिनों हिमालय के रानीखेत अंचल में फौजी छावनी के निर्माण की बात चल रही थी। उसी सिलसिले में सामरिक आपूर्ति विभाग के एक युवा कर्मचारी को दानापुर से वहाँ भेजा गया था। वह आया और तंबू में रहने लगा। काम कुछ खास था नहीं। जो थोड़ा-बहुत था, उसे वह कुछ ही समय में निपटा लेता। बाकी समय में इधर उधर घूम लेता, कुलियों व अरदलियों से गप-शप कर लेता ।

उसे मालूम था कि हिमालय महज तपस्वी , सिद्ध महायोगियों की तपोभूमि है, किंतु अपनी गप-शप के दौरान जब उसे यह मालूम पड़ा कि यहाँ से 15 मील की दूरी पर स्थित द्रोणागिरि में आज भी अलौकिक शक्तिसंपन्न महायोगी निवास करते हैं तो उसका मन नाच उठा। द्रोणागिरि - पता नहीं इस नाम में क्या जादुई शक्ति थी, जो उसे बलात् खींचने लगी। अतः एक दिन सुबह होने से पहले ही वह निकल पड़ा।

रास्ता पहाड़ी था। पथ के दोनों ओर चीढ़ और देवदार के लंबे -लंबे पेड़ आकाश की ओर निहार रहे थे। सघनता का विस्तार लिए इस वन की अनुपम शोभा को निहारता हुआ चलते चलते वह यह भी भूल गया कि उसे वापस भी लौटना है। जब वह द्रोणागिरि के निकट पहुँचा तो सूर्यास्त होने वाला था। संध्या छटा सामने स्थित नंदादेवी के हिमशिखर पर छिटक कर एक अपूर्व दृश्य की सृष्टि कर रही थी। वह विस्मय विमूढ हो उसी ओर देखता रह गया।

अचानक उसके कानों में किसी के पुकारने की आवाज आई। “श्यामाचरण ! अरे ओ श्यामाचरण लाहिड़ी “यह तो कोई उसे ही आवाज दे रहा है। वह अचरज से चारों ओर देखने लगा।भला , इस बियाबान और अनजानी जगह में उसे पुकारने वाला कौन हो सकता है? यहाँ तो उसे कोई पहचानता भी नहीं है। सरकारी टेलीग्राम पाकर दानापुर से 500 मील दूर इस इलाके में आए हुए उसे अभी दो ही दिन तो हुए है। मन में भय जागा और कुतूहल भी। फिर भी अनायास ही उसके कदम बढ़ते ही पहाड़ी गुफा के द्वार पर उसने एक महायोगी को देखा। वे ही वहाँ खड़े हुए उसे पुकार रहे थे।

जैसे ही वह उनके निकट पहुँचा, महायोगी आनंद से पुलकित हो उठे और प्रेम भरे स्वर में कहने लगे - तुम आ गए श्यामाचरण ! आओ, बैठो, विश्राम करो। मैं तुम्हें ही बुला रहा था।

वह तो हैरान और हतप्रभ था। सोच ही नहीं पाया कि इन्हें क्या कहे। बस, एक शुष्क -सा प्रणाम कर वहीं पास में खड़ा हो गया, हालांकि उसके मन में प्रश्नों का ज्वार उठ रहा था। सबसे बड़ा सवाल तो यही था कि इन्हें उसका नाम कैसे मालूम हो गया? अपनी इसी उधेड़बुन में उसने आँख ऊपर उठाई तो देखा कि महायोगी उसकी ओर घनिष्ठ परिचित की भाँति देखते हुए मंद मंद मुस्करा रहे हैं।

मुस्कराते हुए वे कहने लगे - “बेटा ! तेरे विषय में मैं सब कुछ जानता हूँ। तेरा नाम श्यामाचरण है, तेरे पिता का नाम गौरमोहन है। तेरा घर कृष्णनगर के घुर्णी गाँव में है। बचपन में ही तेरी माँ मर गई थी। उसके बाद तुझे लेकर तेरे पिता काशी आ गए। अठारह वर्ष की उम्र में तेरा विवाह हो गया। तेईस वर्ष की उम्र में तुम इस नौकरी में आए। क्यों मैं ठीक कह रहा हूँ न?”

वह तो उनके इस विस्तृत ज्ञान पर हतप्रभ -सा रह गया। बोला -”आश्चर्य है, आपको यह सब कैसे ज्ञात हुआ?”

मुझे नहीं होगा तो और किसे ज्ञात होगा? इतने दिनों से मैं यहाँ तुम्हारी ही प्रतीक्षा में बैठा हूँ । अच्छा , जरा सोचकर बताओ पहल कभी यहाँ आए थे?”

श्यामाचरण ने उत्तर दिया -”नहीं तो , मैं तो यहाँ पहली बार ही आया हूँ।”

महायोगी खिलखिलाकर हँस पड़े। बोले -”अच्छा, मेरे साथ तुम इस गुफा में आओ।” उनका अनुसरण करता हुआ श्यामाचरण गुफा के अंदर गया। देखा, गुफा के एक कोने में एक निर्वापित धृन के समीप व्याघ्र चर्म और दंड-कमंडल पड़े है।

उन्होंने उन वस्तुओं को दिखाते हुए कहा-”ये सब चीजें तुम्हारी हैं। अब याद आया कुछ?” श्यामाचरण ने थोड़ा हैरान होते हुए कहा -”नहीं तो”

तब वे देवपुरुष उसके एकदम बगल में खड़े हो गए और उसकी रीढ़ की हड्डी को दबाया। दबाने के साथ ही “श्यामाचरण की विस्मृति का आवरण क्षणभर में छँट गया और वह अपना पूर्वजन्म स्पष्टतः देखने लगा। अरे हाँ ये सब वस्तुएँ तो मेरी हैं। यह व्याघ्र चर्म ,ये दंड-कमंडल ये , जो उसकी बगल में खड़े हैं , ये तो उसके पूर्वजन्म के गुरु हैं।

श्यामाचरण अश्रुपूरित नेत्रों एवं रोमाँचित देह लिए उनके पाँवों में लोट गया। उसे उठाते हुए उन देवपुरुष ने कहा- “श्यामाचरण अब तो तुम जान गए न कि तुम कौन हो? साधना के उच्च मार्ग में अवस्थान के समय ही तुमने अपना वह पूर्व शरीर छोड़ दिया था, परंतु ईश्वर की इच्छा है कि तुम संसार में कुछ करो, अतः तुम्हारी साधन-संपदा न्यास के रूप में मेरे पास रखी हुई है । तुम्हें फिर से साधनापथ में दीक्षित करने के लिए ही मैं यहाँ आया हूँ।”

श्यामाचरण ने पुनः उन देवपुरुष के पाँव पकड़ लिए। कहा-गुरुदेव अब मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। मुझे अब अपन से अलग मत करिए प्रभु । “

वे देवपुरुष हँसने लगे, बोले -”अरे अभी तो तुम्हें संसार में लौटना है। तुम्हें संसार में योगसाधना का प्रचार करना है। थोड़े ही दिनों में तुम्हें दानापुर लौट जाना पड़ेगा। तुम दुःखी मत होओ। देखो , मैंने ही तुम्हें यहाँ बुलवाया है। तुम अपने साहब का टेलीग्राम पाकर यहाँ बुलवाया है। तुम अपने साहब का टेलीग्राम पाकर यहाँ जो आए हो, वह बड़े साहब की भूल के कारण और वह भूल उनसे मैंने ही करवाई थी। मत भूलो श्यामाचरण कि तुम आफिस के कारण यहाँ नहीं आए हो, बल्कि ऑफिस द्रोणागिरि के पास ले गया सवेरे वह अपना काम निपटाता आर दिन भर अपने गुरु के साथ रहता। गुरु जो खाने को देते, वही खा लता।

तीसरे दिन गुरु ने एक पात्र का अपने हाथ में लेकर देखा, उसमें तेल की तरह का कोई पदार्थ था। सोचा, शायद कोई भूल हो गई हो, अतः उसने गुरु की ओर देखा। गुरु ने कहा - “मेरा मुँह क्या देख रहे हो, सब पी लो।”

श्यामाचरण ने गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर उसे पी डाला।

तब गुरु ने अगला आदेश दिया- “अब जाओ और पास की नदी के किनारे पड़े रहो।”

श्यामाचरण पास की नदी के किनारे पहुँचा ही था कि उसे दस्त और वमन होने लगे। इतने दस्त और वमन हुए कि शरीर शिथिल हो गया। उठने की शक्ति तक न रही तो नदी के तट पर बाल व कंकड़ों पर ही पड़ा रहा।

यहाँ पड़े हुए उसके कितनी देर हो गई, कुछ भान ही न रहा। हठात् नदी में बाढ़ आई और उसे बहाकर ले जाने लगी। श्यामाचरण को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि ऐसे में वह क्या करे? फिर भी अपने बचाव के लिए जल से जूझने लगा। जूझते-जूझते बुरी तरह से थक गया। शरीर में थोड़ी -सी भी ताकत न रही। तभी देखा कि नदी अचानक शाँत हो गई है और देह में एक नवीन स्फूर्ति का संचार हो गया है।

श्यामाचरण वहाँ से उठा और उन देवपुरुष के पा जाकर खड़ा हो गया। उसे देखते हुए उन्होंने कहा - “श्यामाचरण यह बहुत ही अच्छा हुआ कि देह की सारी मलिनता स्वच्छ हो गई। आज दिन भी अच्छा है। शाम को मैं पुनः इस जन्म की दीक्षा दूँगा।

शाम होते ही गुरु न उसे दीक्षा दी और योगसाधना की प्रक्रिया समझाई। वह उत्तम अधिकारी उचित सत्पात्र तो था ही , अतः सहज ही योग−साधना में गति होने लगी।

कुछ दिनों के पश्चात् गुरुदेव ने कहा -”श्यामाचरण अब तुम्हारे लौटने का समय हो गया है। आज से सातवें दिन टेलीग्राम आएगा और तुम्हें दानापुर लौट जाना पड़ेगा।

“गुरुदेव अब मैं कुछ और नहीं चाहता। मुझे आप अपने श्रीचरणों में ही रहने दें।” श्यामाचरण के स्वरों में गहरी विह्वलता थी।

“अरे , यह क्या कहते हो तुम? मैंने पहले ही कह दिया था कि तुम्हें योग साधना का प्रचार करना है। तुम गृहस्थ ही रहोगे, साधु नहीं बनोगे। यदि तुम साधु बन गए तो जो बहुत से व्यक्ति तुम से लाभान्वित होने वाले हैं, वे कैसे होंगे।

श्यामाचरण चिंता में पड़ गया। बोला-” अच्छा गुरुदेव तब एक वचन दें मैं जब भी आपका पुकारूं, आप आएँगे?” गुरुदेव ने कुछ सोचकर कहा -ठीक है।”

सातवें दिन टेलीग्राम आया और गुरु से विदा लेकर वह दानापुर के लिए रवाना हो गया। रास्ते में मुरादाबाद में ठहरा, क्योंकि उसे कुछ आत्मीयजनों में मिलना था।

बातों ही बातों में साधुओं की चर्चा चल निकली। वे सब के सब कहने लगे - “सच्चे साधु अब भला कहाँ है?”

श्यामाचरण ने उन सभी के कथन का प्रतिवाद किया-”हैं, अभी भी है और मैंने उन्हें देखा भी है।” इस के साथ उसने उन्हें अपनी कहानी सुना डाली।

वे कहने लगे - “जब तुमने उन्हें देखा है तो हमें भी दर्शन कराओ अन्यथा हम तो यही समझेंगे कि यह भी तुम्हारी कोई नई गप्प है।”

श्यामाचरण बड़े ही धर्मसंकट में पड़ गया। एक सामान्य सी बात पर अपने आराध्य गुरुदेव को बुलाना उचित नहीं था और यदि नहीं बुलाता है तो इन अविश्वासियों को विश्वास किस तरह दिला सकता है? अतः वह कमरे का द्वार बंद कर उन्हें बुलाने बैठ गया।

श्यामाचरण के बुलाते ही महागुरु सूक्ष्मशरीर से उस कमरे में आए और स्थूल शरीर धारण कर बगल में रखे आसन पर बैठ गए। कहने लगे- “श्यामाचरण तुम्हारे बुलाने पर मैं आ तो गया, किंतु क्या इस सामान्य -सी बात के लिए मुझे यहाँ बुलाना उचित है? जानते हो , मुझे कितनी दूर से यहाँ आना पड़ा है। क्या मैंने तमाशा दिखाने के लिए तुम्हारे भीतर शक्ति का संचारण किया है? योग विभूति का अधिकारी बनाया है?”

गुरुदेव की बात सुनकर वह भय एवं लज्जा से प्रकंपित हो उठा। उसके स्वर थम गए, कुछ बोल ही नहीं सका। गुरुदेव ने कहा - “सुनो श्यामाचरण अपने वचन एवं तुम्हारे सम्मान की रक्षा के लिए मैं आज यहाँ आ गया हूँ पर भविष्य में तुम्हारे बुलाने पर नहीं आऊँगा। जब समुचित आवश्यकता होगी, तब मैं स्वयं ही आ जाऊंगा।”

श्यामाचरण गुरुचरणों में गिरकर रोते हुए क्षमा माँगने लगा। बोला - गुरुदेव इस बार क्षमा कर दें। मैंने इन अविश्वासियों के मन में श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए ही आपको बुलाया था। अब, जब आप आ ही गए हैं, तो इन्हें दर्शन दे दें।”

गुरु की सम्मति पाकर श्यामाचरण ने दरवाजा खोला, उसके आत्मीय मित्रों ने भी उन देवपुरुष की वंदना की और वे समझ गए कि यह कोई इंद्रजाल नहीं है। ऐसे विभूति संपन्न महापुरुष आज भी पृथ्वी पर विचरण करते हैं।

श्यामाचरण दानापुर आए और काम में जुट गए। दिन में काम और रात में योगसाधना। फलतः धीरे-धीरे एक के बाद एक उन्हें सभी शक्तियाँ प्राप्त होती गई। वे चेतना के शीर्षतम स्तर पर आरुढ हो गए। 1885 ई. में जब वे सरकारी नौकरी से मुक्त हुए, तोकाशी के बाबा व योगीराज के रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध हो गए।उन्होंने बहुतों को दीक्षा दी। उनके अनेक गृहस्थ एवं साधु शिष्य हुए। इनके साधु-शिष्यों में स्वामी प्रणवानंद एवं मुक्तेश्वर गिरि का नाम उल्लेखनीय है, किन्तु स्वयं उन्होंने कभी भी संन्यास नहीं लिया। *गुरु के आदेश का अक्षरशः पालन यही साधना का मूलमंत्र है।* इसी को उन्होंने हमेशा -हमेशा अपनाया। यह मार्ग हमारे और आपके लिए भी है।

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