दृढ़ता

🌹🌹द्रढता🌹🌹
वैष्णव को कृपा की मांग नहीं करनी चाहिए अपितु दृढता से भगवद् आश्रय ही करना  चाहिए। कृपा मांगने का मतलब अहंता और अविश्वास की उपस्थिति, स्वार्थ पूर्ण भक्ति। कृपा तो सदैव है। जरुरत है शरण में रहने की। यदि अहंताममता अधिक प्रबल हो तो शरण भाव में कमी आती है लेकिन उसके लिये भी कृपा की याचना नहीं करनी चाहिए अपितु शरण भाव को बढाना चाहिए। प्रभु से कुछ भी मांगना उचित नहीं, कृपा भी नहीं। शरण भाव बढे ऐसी कृपा की मांग जायज मालूम होती है।श्रीमहाप्रभुजी ने इसके लिये तादृशी भगवदीय महापुरुषों का सत्संग करने के लिये कहा है। उनके संग से निश्चय ही अहंताममता में कमी आती है जिससे शरण भाव बढता है। शरणागति दृढ होने पर कृपा का अनुभव स्वतः होता है- उस कृपा का जो पहले से मौजूद होती है, सिर्फ शरण भाव शिथिल होने से उसका पता नहीं चलता। ऐसा लगता है कि कृपा का अनुभव नहीं है तो उसका कारण शरण भाव में कमी है और कुछ नहीं। श्रीमहाप्रभुजी ने शरण स्मृति निरंतर बनाये रखने के लिये कहा है।  ध्यान यह रहे कि अहंकार की संतुष्टि के लिये कृपा का अनुभव नहीं चाहिए। यदि अहंकार की संतुष्टि की मांग नहीं है तो कृपा का अनुभव किसलिये चाहिए, शरणागति का अनुभव क्यों नहीं चाहिए जो हमारा धर्म है? सांसारिक अनुकूलता महसूस नहीं होती, प्रतिकूलता जान पडती है उसके निवारणार्थ कृपा का अनुभव चाहिए तो यह पुष्टिमार्गोचित नहीं है। विश्वास की कमी है जबकि विश्वास भी सही नहीं है। निष्ठा ही सही है। इस निष्ठा से शरण भाव प्रबल होता है। पुष्टिमार्ग में "बीज" यही है। निष्ठा का वह विशाल वृक्ष पनपता है कि संदेह अविश्वास अन्याश्रय असमर्पितता के सारे तूफान शांत हो जाते हैं उसके सामने।
हम कह सकते हैं भगवत् कृपा स्वयं निष्ठा रुप में प्रकट होती है। कृपा ही है "बीज" रुप से पुष्टि मार्ग में। इसीलिए तो महाप्रभुजी कहते हैं-पुष्टिस्थ प्रभु कभी लौकिक गति नहीं करेंगे।चिंता त्याग दे। चिंता और अविश्वास एक ही चीज है।
अविश्वासो न कर्तव्य: सर्वथा बाधकस्तु स:।
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