स्वाभिकता

💐|| स्वाभाविकता को पहिचानिये ! ||💐

* बहुत बढिया बात है | उधर ख्याल किया जाये तो बहुत ही लाभ की बात है , बडे भारी लाभ की बात है | 

एक होती है स्वाभाविक बात और एक होती है अस्वाभाविक |

स्वाभाविक उसे कहते है जो स्वत:सिद्ध है और अस्वाभाविक वह है जो स्वत:सिद्ध नहीं है किन्तु बनायी हुई है |

परमात्मा के साथ जीव का सम्वन्ध स्वाभाविक है , स्वत:सिद्ध है और इसने जो शरीर और संसार के साथ सम्वन्ध माना है वह सम्वन्ध अस्वाभाविक है | इस बात की पहिचान क्या है ?

इस बात की पहिचान है कि यह पहले नही था और पीछे नहीं रहेगा , बीच में यह माना हुआ सम्वन्ध है जो कि अस्वाभाविक है तथा परमात्मा और जीव का सम्वन्ध स्वाभाविक है , स्वत: है |

" ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: | " ( गीता १५/७ )

परमात्मा के साथ हमारा सम्वन्ध स्वाभाविक है और संसार के साथ हमारा सम्वन्ध कृत्रिम( बनावटी ) है | परमात्मा के साथ हमारा सम्वन्ध असली है , बनाया हुआ नहीं है | वह तो स्वत:सिद्ध है , स्वाभाविक है |

* जैसे जल में तरलता तथा शीतलता स्वत: है स्वाभाविक है अगर हम जल को गरम करें तो यह जल की अस्वाभाविक अवस्था है |

अस्वाभाविक बात टिक नहीं सकती और स्वाभाविक बात मिट नहीं सकती यह सिद्धान्त है |

अत: हम गरम जल को रख देंगें तो वह आप से आप ठंडा होकर अपनी स्वाभाविक अवस्था में आ जायेगा |

* संसार को हम अपना मानते है यह कृत्रिम अर्थात अस्वाभाविक है , परमात्मा के साथ हमारा सम्वन्ध स्वत: एवं स्वाभाविक है , बनाया हुआ नहीं है |

* बन्धन का कारण है कि हमारा अस्वाभाविक में स्वाभाविक भाव हो गया !

यह शरीर " मैं " हूँ और कुटुम्ब , धन , सम्पत्ति आदि मेरा है |

इसमें मैं और मेरा दोनों ही अस्वाभाविक है |

संसार में जो " मैं " और " मेरापन " कर रखा है वह है नहीं ; क्योकि यह पहले नहीं था और पीछे नहीं रहेगा तो बीच में कहाँ है ? बीच में जो अपना मानते हैं उस अपनेपन का भी प्रतिक्षण सम्वन्ध विच्छेद ( वियोग ) हो रहा है |

* हमारा और परमात्मा का सम्वन्ध स्वत:स्वाभाविक है तथा शरीर एवं संसार के साथ हमारा सम्वन्ध अस्वाभाविक है  |

प्रकृर्ति - पुरूष का अलगपना , जड और चेतन का अलगपना यह स्वाभाविक है और इसके साथ एकता मानना यह अस्वाभाविक है |

अब अस्वाभाविक को स्वाभाविक मान लिया तो इसको दूर करने के लिये ज्ञान करो , श्रवण करो , मनन करो , निदिध्यासन करो , शास्त्र का अभ्यास करो , सत्संग आदि करो पर यह भ्रम है कि ऐसा करने से यह दूर होगा - यह विल्कुल गलती है |

* यह अलगपना तो स्वत:सिद्ध एवं स्वाभाविक है , आप मूल में अगर ठीक तरह से स्वाभाविकता को स्वीकार कर लें तो इसके लिये उधोग की क्या जरूरत है ? उधोग करने से अस्वाभाविकता होगी क्योंकि जो अभ्याससाध्य चीज होगी वह अस्वाभाविक ही होगी |

इस वास्ते वर्षों तक उधोग करते है पर ठीक तरह से अनुभूति नहीं होती |

* अनुभूति क्यों नहीं होती ? क्यों कि हम अस्वाभाविकता का आदर कर रहे है और स्वाभाविकता को पहिचान नहीं रहे हैं !

अस्वाभाविक को स्वाभाविक मानकर उधोग के द्वारा अस्वाभाविक को मिटाना चाँहते हैं | अस्वाभाविक को स्वाभाविक मानकर ही हम उधोग करेंगें | करते तो हैं सम्वन्ध विच्छेद पर हो रहा है द्रढ |

* स्वाभाविक बात आप स्वीकार कर लें कि वास्तव में इसके ( अस्वाभाविकता ) के साथ हमारा सम्वन्ध नहीं है भाई !

अत: हम सभी को उचित है कि स्वाभाविकता को ठीक तरह से पहिचानकर उसमें स्थित रहें और यथायोग्य ठीक तरह से मर्यादा में व्यवहार करते हुये जीवन को सफल बनायें |

                 || श्री हरि: शरणम् ||

( श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज के प्रवचन से )
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