नारायण

नारायण का स्वरूप


माया तरण का उपाय सुनकर, अब राजा निमि को प्रश्न पूछने का एक और अच्छा निमित्त मिल गया। वे कहते हैं, “आपने कहा कि जो ‘नारायण परायण’ हो जाता है वह माया को सरलता से तर जाता है। कृपा करके अब मुझे आप यह बताइए कि ‘नारायण’ का स्वरूप क्या है? उनका स्वभाव कैसा होता है।” देखो, कैसे सुन्दर प्रश्न हैं। प्रश्नों का कैसा क्रम चल पड़ा है। पहला प्रश्न था कि जिससे परम श्रेय की प्राप्ति होती है वह भागवत धर्म क्या है? दूसरा था भगवद्भक्त कौन है? उसके लक्षण क्या हैं? फिर तीसरा था कि भगवद्भक्ति में जो बाधक बनती है वह माया क्या है? उस माया को पार करने का उपाय क्या है, कहाँ से प्रारम्भ करें? तब यह बताया गया कि जो नारायण परायण हो जाता है वह माया को पार कर जाता है।

ऐसा कहने पर, स्वाभाविक प्रश्न यह उठा कि जिन नारायण के परायण हो जाना है उनका स्वरूप क्या है? कोई कहता है वे क्षीरसागर में रहते हैं तो कोई कहता है वे वैकुण्ठ लोक में रहते हैं। कोई कहता है गोलोक में रहते हैं तो कोई कहता है साकेत लोक में रहते हैं। कोई कहता है वे शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज हैं तो कोई कहता है वे द्विभुज हैं। वास्तव में वे कैसे हैं? उनका क्या स्वरूप है? देखो, प्रभु को चतुर्भुज, द्विभुज मानने वालों में भी बहुत झगड़ा होता रहता है। झगड़े में वे एक दूसरे की भुजा काट डालते हैं।

भगवान सब देखते रहते हैं कि ये कैसे लोग हैं! यह कोई विनोद की बात नहीं है। भगवान का तिलक किस प्रकार का होना चाहिए इस बात को लेकर लोग कोर्ट में केस करते हैं। अंग्रेजों के समय में भी किया था। अंग्रेज न्यायधीश उसका क्या निर्णय सुनाते? बोले, चार दिन आड़ा और चार दिन सीधा लगाते रहो। नहीं तो मन्दिर को ही बन्द कर डालो। वे और क्या कहते? देखो, ऐसे मूढ़ लोग भी होते हैं। इसीलिए कहा गया है कि मूढ़ भक्त या मूढ़ मित्र के स्थान पर एक बुद्धिमान् शत्रु का होना ज्यादा अच्छा है। ये मूढ़ भक्त बहुत कष्ट देते रहते हैं, बहुत उपद्रव मचाते रहते हैं।

अतः यहाँ प्रश्न यह है कि उन नारायण का स्वरूप क्या है? वे दूध के सागर में रहते हैं कि शहद के सागर में? कहाँ रहते हैं? श्रीमद्भागवत में यह ‘नारायण’ शब्द बार-बार आता रहता हैं। इसलिए जरा अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि नारायण का स्वरूप क्या है।
नारायणभिधानस्य ब्रह्मणः परमात्मनः।
निष्ठामर्हथ नो वक्तुं यूयं हि ब्रह्मवित्तमाः।।[1]
राजा निमि ने कहा, “आप ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं। कृपा करके मुझे बताइये कि जिनको नारायण कहते हैं, परमात्मा कहते हैं, ब्रह्म भी कहते हैं, उनका स्वरूप क्या है? लोक में उनके जो भिन्न-भिन्न रूप बताए जाते हैं क्या वे ही सब उनके वास्तविक स्वरूप हैं?” देखो, इस संदेह का सबसे अच्छा उत्तर एक ही श्लोक में पहले ही बताया गया है।

जब नारायण भगवान ने ध्रुव जी के कपोल को शंख से स्पर्श किया था, तो ध्रुव जी ने उनकी स्तुति में कहा था-

योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां
संजीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्रा।
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम्।।[2]
जो भगवान मेरे हृदय में प्रवेश करके मेरी वाणी को, प्राणों को, ज्ञानेन्द्रियों को तथा अन्तःकरण को चेतना प्रदान करते हैं, वे सत्चैतन्य स्वरूप हैं। परमात्मा का, नारायण का वास्तविक स्वरूप यही है। यद्यपि भगवान नारायण का रूप चतुर्भुज आदि उपाधियों सहित भी बताया जाता है, तथापि उनका वास्तविक स्वरूप तो यही है। राजा निमि के पंचम प्रश्न का उत्तर पिप्पलायन योगी ने दिया है।

पिप्पलायन जी कहते हैं,“जिन्हें ‘नारायण’ कहा जाता है वे ही इस व्यापक विश्व के, सृष्टि के ‘स्थित्युद्रवप्रलयहेतुरहेतुरस्य’ उद्भव, स्थिति व प्रलय के हेतु हैं, कारण हैं अर्थात अधिष्ठान रूप हैं। समस्त के कारण होते हुए, वे स्वयं अकारण हैं, उनका कोई कारण या हेतु नहीं है क्योंकि वे तो स्वतः सिद्ध हैं।”

यत् स्वप्नजागरसुषुप्तिषु सद् बहिश्च।
देहेन्द्रियासुहृदयानि चरन्ति येन
संजीवितानि तदवेहि परं नरेन्द्र।।[1]
एक ओर तो पिप्पलायन योगीश्वर ने ऐसा उत्तर दिया कि भगवान सम्पूर्ण सृष्टि के आदिकारण हैं, यही उनका स्वरूप है। अब, जगत का कारण असत् तो हो नहीं सकता, वह जो भी हो, सत् ही होगा। अर्थात वे स्वयं सत् हैं, वे ही देह-प्राण-इन्द्रिय आदि सभी उपाधियों को चेतना प्रदान करते हैं और वे ही जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं को प्रकाशित भी करते हैं। इसी को वेदान्त की (शास्त्रीय) भाषा में कहते हैं कि जो ब्रह्म समस्त जगत का अधिष्ठान है, वही उसका प्रकाशक भी है।

नैतन्मनो विशति वागुत चक्षुरात्मा।[2]
दूसरी ओर पिप्पलायन योगी यह भी कहते हैं कि ऐसे परमात्म तत्त्व को न तो मन से जाना जा सकता है, न ही वाणी या चक्षु से। तब अन्य इन्द्रियों की बात ही क्या की जाए। सच तो यह है कि समस्त इन्द्रियाँ उसी चैतन्य स्वरूप परमात्मा के कारण ही अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होती हैं।

नात्मा जजान न मरिष्यति नैधतेऽसौ।[3]
उनका न कभी जन्म हुआ है न उसे कोई रोग होता है, न ही उसका कभी मरण होता है। ‘सर्वत्र शश्वदनपाय्युपलब्धिमात्रं’[4] वह निर्विशेष सत, चैतन्य स्वरूप तथा उपलब्धि-अनुभव स्वरूप है। जो लोग यह कहते हैं कि हमें आत्मा का अनुभव नहीं हो रहा है, वे बड़े मूढ़ हैं। जिस आत्मा के कारण अन्य सारे अनुभव हो रहे हैं, सारी वस्तुओं का अनुभव हो रहा है, कहते हैं उसी का अनुभव नहीं है!

बोधेऽप्यनुभवो यस्य न कथंचन जायते।
तं कथं बोधयेच्छास्त्रं लोष्ठं नरसमाकृतिम्।।[1]
बोध स्वरूप आत्मा का जिसको अनुभव नहीं होता हो, वह तो मनुष्य के रूप में मिट्टी का ढेला ही है। उसे शास्त्र भी किस प्रकार समझा पाएगा? इस बात को मैं नहीं कह रहा हूँ। ऐसा हमारे पूर्वाचार्य श्री विद्यारण्य स्वामी जी ने अपने ‘पंचदशी’ नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ में कहा है। सभी चीजें आँखों से ही दिखायी दे रही हैं लेकिन आँखें स्वयं तो दिखाई नहीं देतीं। तथापि आँखें हैं, इसमें कोई शंका है क्या? बिना आँख के तो कोई देख ही नहीं सकता। इसी प्रकार, सारे जगत का बोध हो रहा है, ज्ञान हो रहा है, इसी से सिद्ध होता है कि अनुभव स्वरूप आत्मा है! सच्चिदानन्द ही उनका स्वरूप है, लेकिन अभी वह प्रकाशित नहीं हो रहा है। हमारा अन्तःकरण पता नहीं कैसा हो गया है। यद्यपि परमात्मा ही परम हैं, वे स्वयं ही सभी कुछ बने हुए हैं, तथापि ‘एषो विभुरात्मा न सर्वत्र प्रकाशते’ वे सर्वत्र प्रकाशित नहीं होते। ऐस्ग क्यों हैं? तो कहा-

तस्मिन् विशुद्ध उपलभ्यत आत्मतत्त्वं।[2]
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मानः।।[3]
हमारा स्वरूप तो सच्चिदानन्द है और वह सदा ही उपलब्ध है। लेकिन हमें ऐसा अनुभव नहीं हो रहा है क्योंकि हमारा मन अशुद्ध हो गया है, मलिन हेा गया है। यह मैला मन साफ कैसे हो? क्योंकि जो पुरुष निष्काम हो जाता है, जिसका मन निर्मल हो जाता है, उसी को इस प्रकार का अनुभव प्राप्त हो सकता है। इसलिए प्रश्न यह है कि यह मन शुद्ध कैसे हो?

यह्र्यब्जनाभचरणैषणयोरुभक्त्या
चेतोमलानि विधमेद् गुणकर्मजानि।[4]
मन जब भगवान के सगुण रूप का ध्यान करता है, उनके चरणों पर आश्रित हो जाता है और उनकी सेवा करता है; तब वह शुद्ध हो जाता है। मन की शुद्धि हो जाने पर भगवान का स्वरूप प्रकट हो जाता है। इस प्रकार पिप्पलायन योगी ने नारायण भगवान का स्वरूप तथा उनकी उपलब्धि का साधन भी बता दिया। जयजय श्यामाश्याम जी ।

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