कृपालु जी पद

दीनानाथ मोहिं काहे बिसारे | हमरिहिं बार मौन कस धारे |
नाथ ! अगति के गति अनाथ हम, कहहु कौन गति मोरि विचारे |
गणिका गीध अजामिल आदिक, सुनत अमित पतितन तुम प्यारे |
इन सम अगनित पतित रोम प्रति, वारत पतित विरद रखवारे | 
दंभ कोटि शत कालनेमि सम, कोटिन रावन सम मद धारे |
लाजहुँ जासु लजाति अधम अस, हैं न हुये न तु ह्वैहैं भारे |
कौने मुख ‘कृपालु’ प्रभु सन कछु, कहिय नाथ अब हाथ तिहारे ||

भावार्थ   –   हे श्यामसुन्दर ! तुमने मुझे क्यों भुला दिया ? हमारी ही बार कैसे मौन धारण कर लिया ?

हे नाथ ! हम अनाथ हैं और तुम अगति–के गति हो | बताओ तो सही, तुमने हमारे लिए क्या सोचा है ?

गणिका ( वेश्या ), गीध, अजामिल इत्यादि अनन्त पापियों से तुमने प्यार किया है, ऐसा सुनता हूँ | किन्तु हे पतितों की रक्षा का भार लेने वाले ! पतित–पावन विरद को धारण करने वाले ! इन सरीखे तो अनन्त पापी मेरे प्रत्येक रोम पर न्यौछावर किये जा सकते हैं। फिर मेरा क्या होगा ?

सैकड़ों करोड़ कालनेमि के समान मेरे अन्दर पाखण्ड भरा हुआ है, एवं करोड़ों रावण के समान अभिमानी भी हूँ | कहाँ तक कहूँ, जिसके पापों को देखकर लज्जा भी लज्जित है |

मुझ सरीखा पापी न तो इस समय है, न पहले हुआ था, न तो आगे ही हो सकता है |

‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं इतना बड़ा अपराधी हूँ कि कौन सा मुँह लेकर आपके आमने कुछ कहने का अधिकार रखूँ | हे नाथ ! अब आप ही के हाथ में सब कुछ है, चाहे अपनाइए, चाहे ठुकराइए |

     ( प्रेम रस मदिरा  :  दैन्य  –  माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु महाराज जी का पद प्रसाद

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