विवेक

महाप्रभुजी विवेक धैर्याश्रय ग्रंथ में आज्ञा करते हैं-परिवार अथवा असत पुरुषों के आक्रमणों को सहन करें।'सभी वैष्णवों को अनुकूलता नहीं रहती।लोगों के व्यवहार संबंधी प्रतिकूलता का अक्सर सामना करना पडता है।इससे चित्त की जो स्थिति बनती है वह सेवा सत्संग में बाधक है।वल्लभ कहते हैं-समाधान होता हो तो कर लेना चाहिए,न होता हो तो सहन करना चाहिए।विचलितता या घबराहट कब होती है जब मन में ऐसा पूर्वाग्रह होता है कि समाधान तो होना ही चाहिए अन्यथा अनर्थ हो जायेगा।इस तरह का सोच सामान्य प्रयास भी नहीं करने देता।कहा गया
है-'यदि अपने भीतर या दूसरों के भीतर सुधार संभव न हो सके तो धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिए जब तक ईश्वर कोई प्रबंध न करे।ऐसा सोचो यह शायद तुम्हारे लिये इसलिए अच्छा है क्यों कि परीक्षा एवं धैर्य बिना गुणों की कीमत नहीं होती।'वैष्णव को विवेक,धैर्य,आश्रय तीनों की रक्षा करनी चाहिए।तीनों परस्पर जुडे हुए हैं।विवेक और धैर्य होंगे तो आश्रय भी रहेगा,विवेक और आश्रय होंगे तो धैर्य भी होगा।धैर्य और आश्रय हैं तो विवेक भी सुरक्षित रहेगा।इसके लिये किसी पर निर्भर नहीं हुआ जा सकता।सिर्फ तादृशी वैष्णव इसमें बडे सहायक सिद्ध हो सकते हैं।वस्तुत हम दूसरों की प्रतिकूलता से नहीं अपितु अपनी कमी से विचलित होते हैं।वल्लभ ने स्पष्ट आज्ञा की है-विवेक धैर्य आश्रय का रक्षण करने की।विवेकधैर्ये सततं रक्षणीये तथाश्रय:।हम रक्षा नहीं कर सकते इसमें कोई दोष नहीं है,हम इनकी रक्षा किये बिना अहंकार वश प्रतिकूलताओं से संघर्ष रत रहते हैं इसमें दोष है।अविवेक,अधीरता, आश्रयशून्यता में न अपना भला होता है,न दूसरों का।विवेक धैर्याश्रय से जरुर अपना तथा दूसरों का भला होता है।तब संबंधित लोगों में तत्काल सुधार न होता हो तो हम खिन्नता से नहीं भर जाते अपितु अपने विवेकधैर्याश्रय को पुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं।दोनों की दिशाएं अलग हैं।प्रवाही जीव भी सुधार लाना चाहता है पर उसे वह सफलता नहीं मिलती जो वैष्णव को मिलती है।वैष्णव वार्ता में तो ऐसे वैष्णव हुए हैं जिन्होंने हिंसा करने वालों का भी मार्ग बदला है।उनके गुणों की कीमत उनकी परीक्षा और धैर्य से हो जाती है।प्रायः सहने को कोई अच्छी बात नहीं माना जाता लेकिन सहनशक्ति सदैव सकारात्मक,रचनात्मक सिद्ध होती है जब उसके प्रयोजन को समझा जाता है।वैष्णव,विवेकधैर्याश्रय का पालन इसलिए करते हैं क्यों कि वे भगवत्प्राप्ति में सहायक हैं इसलिए नहीं क्यों कि सदैव कष्ट ही सहते रहा जाय अकारण।उसका कोई अर्थ नहीं है।माना बाहरी प्रतिकूलताएं स्वागत योग्य नहीं है फिर भी वल्लभ ने वैष्णवों को जो आज्ञाएं दी हैं उनके पालन में शिथिलता न हो ये देखना हमारा कार्य है।पुष्टि मार्ग में ठाकुरजी को श्रम न देने का विधान है ,पर कृष्णा श्रय का निषेध नहीं है।विवेकधैर्यभक्त्यादि रहितस्य विशेषत:।पापासक्तस्य दीनस्य कृष्ण एव गतिर्मम।।वैष्णव में कोई गुण न होंगे तो चलेगा लेकिन एक गुण अवश्य होना चाहिए कृष्ण के आश्रय का।यह रहा तो बाकी सब अपने आप ठीक हो जाता है।पुष्टि मार्ग में साधनबल मान्य नहीं है।यदि सब सामर्थ्य हो और दीनता न हो तो प्रभु अंगीकार नहीं करेंगे।यदि निसाधन हो,दीनता हो तथा कृष्ण का आश्रय हो तो प्रभु अवश्य अंगीकार करेंगे।भले ही कोई योग्यता न हो,भले ही चित्त अविश्वास और असंख्य संशयों से भरा हो फिर भी कभी आश्रय नहीं छोडना चाहिए।यह न सोचे कि कोई गुण नहीं फिर आश्रय करने से क्या लाभ?बात ठीक कुछ दूसरी है।कोई भी गुण नहीं है ऐसे में सिवाय आश्रय के दूसरा कोई रास्ता नहीं ऐसी स्पष्ट समझ होना जरुरी है।यहाँ तक कि विवेकादि का भी इतना महत्व नहीं है ऐसा कहकर महाप्रभुजी ने भगवदाश्रय की सर्वोच्चता का प्रतिपादन किया और यह कि इसमें कोई शिथिलता आये तो वल्लभ को याद करना वे उसकी बाधा दूर करेंगे।कृष्णाश्रयमिदं स्तोत्रं य:पठेत्कृष्णसन्निधौ।तस्याश्रयो भवेत् कृष्ण इति श्रीवल्लभोsब्रवीत्।।
                       नाथद्वारा।

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला