एक मंजिल की पगडंडी

एक मंजिल की कुछ पगडंडियाँ हो गई हो तो सबको लगता सही पर वह चल रहा है । शेष गलत ।
सब विधि , सब सूत्र पँहुचते है ।
प्यारे जु तक जाने की कोई विधि हो उन्हें तो स्वागत करना ।
सच तो यह है कि वास्तव में पूर्ण का पूर्ण में अभिन्न प्रवेश होता है ।
अज्ञानता रूपी अपूर्णता बाधक है , बस । उनकी और से गहनतम अभिन्नता है । इतनी गहनतम की अपने प्यारे की आंतरिक स्थिति स्वतः हृदय में वैसे प्रकट होती है जैसे माँ को शिशु के भीतर की स्थितियाँ ।
कुछ समय पूर्व हमने लिखा विष जिसने पिया उसकी सम्भावना अधिक सरल , विष यहाँ संसार के जहर से नहीँ , प्रतिकूलता रूपी विष पान से है । हम सब रस पिपासु है , सुर-असुर सब अमृतसुधा से तृप्त होना चाहते इसके विपरीत प्राप्त हलाहल शिव पीगए परन्तु रस और स्वरूपगत वह तृप्त हुए अपेक्षाकृत अमृत पीने वाले देवताओं से ।
*एक बहुत गहरी बात इतनी कि वास्तविक साधक ने इसे जिया भी हो कभी न कभी वह कि साधना साध्य का स्वभाव और साधक का जीवन है ।* अब इसके सार में कोई उतरे तो समस्त उत्तर है वहां । साधना यानि एक पथ जिस पर उनके हेतु चला जा रहा ।
साध्य यानि जिनके लिये पथ पर चल रहे ।
साधक यानि जो पथ पर चल रहा ।
इसलिये साधना को जीवन का पर्याय ही माना गया मानव होना ही साधक होना है अगर स्वतः अचाह से कोई प्राप्त पथ पर नियत चलें तो ।
साधना साध्य का स्वरूप है और साधक का जीवन है अर्थात यहाँ भगवान का स्वरूप और साधक का जीवन दो नहीँ है । भगवान के स्वरूप में प्रवेश ही साधक का जीवन पथ है । साधक का जीवन और भगवान का स्वरूप अभिन्न हो । वह सूक्ष्मतम भी भिन्नता हुई तो नही होगा उनका अंश होने का पूर्ण भाव हो , उनमें वह ही घुल सकते है और दूसरी वस्तु है नहीँ बस पृथकता का आभास है वो भी हमारी और से । वो तो जानते है कि उनकी वस्तु अभी उनसे मिलना नही चाहती । वरन उनकी और से कोई बाधा ही नहीँ , अपने अज्ञान (अविद्या) को हम माया कह देते है ।
ऐसा कभी हुआ कि कोई प्राणों से उनसे मिलना चाहता हो और उसे वह न मिले हो माया ने पकड़ा हो , माया तो आपकी ही न्यूनतम इच्छा शक्ति के अनुरूप चलती , अब न्यून भी कोई इच्छा अतिरिक्त है तो यह भगवान का तो दोष नहीँ । वरन माया तो सिद्ध करती है कि सब कुछ यहाँ स्वप्न है उसे सत्य न जानो । हम सभी , सब जान स्वप्न को सत्य समझ फँसे पड़े इसमें भगवान तो व्याकुल ही है , उनकी वस्तु उन्हें भूल जो बैठी ।
विकल्प रहित आस्था , विश्वास , श्रद्धा सभी प्राप्त है और अनिवार्य है ये , यह ही हम कर नहीँ पाते । विकल्प रहित आस्था हो , विकल्प हुआ भगवान के सिवाय तो विकल्प ही सिद्ध होगा पहले क्योंकि वह सार तत्व है , कुछ भी हृदय में न होगा तो स्वतः वह ही होंगे । 
विकल्प रहित आस्था में काम का स्वतः नाश होता है । मन को विकल्पं हो तो भागेगा कहां , आँख के पास विकल्प न हो तो देखेगी क्या ? सब स्वतः ठहर जाता है । और गहरी आस्था, श्रद्धा, विश्वास से साध्य(ईश्वर) का सामीप्य मिलता है । उनकी समीपता तक बहुत पहुँच भी जावें परन्तु यहाँ पथ पूर्ण नहीँ हुआ क्योंकि साध्य का स्वरूप सामीप्य नही है , अतः साधक का जीवन जारी है ।
*समीपता जनित रस का भोग अगर साधक ना करें तो साध्य से एकता प्राप्त होती है ।*
यहाँ सब खरे नही उतर पाते , हम भोग पिपासा के चक्कर में ही ईश्वर में भोग खोजते है , जिसे हम रस कहते है , बल्कि विशुद्ध रस को चाहना होता ही नहीँ , आनन्द चाहिये तो समीपता में बड़ा आनन्द है और संसार भी हल्की सी झलक पाकर इस स्वरूप आनन्द के सामीप्य की आपको पूजने लगेगा । कुल मिला कर वर्तमान पथिक समीपता के रस का भोग ही करते है , उस रस का भोग ना करने पर वास्तविक एकता प्रकट होती है ।
ऐसा क्यों ?? क्योंकि अगर हम ईश्वर से रस पीना चाहते है अर्थात हम और वह भिन्न है यह हम मानते है , समीपता का अर्थ वह भी रहे , मैं भी रहूँ । अभी पथिक को अहम है , वह स्व हेतु पथ पर है । स्व सहित नही स्व को हटाते ही वह कैसे रस पियेगा तब वह ही तो रहेंगे । अपना रस भोग नही लिया जा सकता । समीपता पर प्राप्त रस न पीना स्वतः एक कर देगी । समीपता तक दो है एकता पर एक हो गए पर रस न पिया प्यासे रह गए तब व्याकुलता होगी । एकता होकर भी व्याकुलता , जबकि आप स्वयं हो नही , स्वयं पहले ही तिरोहित हो चुके परन्तु रस पिपासा भी है तो एकता में भी व्याकुलता हुई तब प्रेम तत्व प्रकट होगा , अर्थात अभिन्न होने पर प्रीत प्रकट होगी तब स्वयं की सत्ता नही होगी । एकता होने पर हुई व्याकुलता में प्रेम पुष्प खिलेगा । यह प्रेम पुष्प पथ में भोग करने से प्राप्त नही होता । कोई प्यासा तो हो पर मार्ग पर कुछ पिए नही तो ही प्रेम रस स्वतः उस पर बरस जाएगा । आवश्यक रसापूर्ति ईश्वर स्वतः करते यह हमें इतने जीवन में समझ आ जाना चाहिये था । यह प्रेम तत्व ही साध्य का स्वरूप है और यहीँ साधक के जीवन का अस्तित्व । सत्यजीत तृषित । भोग और प्रेम विपरीत धारा है , भोग भले ईश्वर के रस का भोग हो परन्तु प्रेम भोग शुन्य त्यागमयी वृत्ति है । जयजय श्यामाश्याम ।

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