25

🌹💙 *सखियों के श्याम* 💙🌹

 *(25)*

🌹 *अब नहीं जात सह्यो* 🌹

'बहिन राधा ! तनिक धैर्य धरो, यह थोड़ा-सा दूध पी लो । यों कैसे चलेगा; अपनी ओर न सही, अपनी इन बहिनों और सखियोंकी ओर देखो, जिनकी एकमात्र तुम्हीं अवलम्ब हो । '🌹

'जीजी!'–कहते हुए किशोरीजी चन्द्रावली से लिपट गयीं।💙

'जानती हूँ बहिन! किंतु धैर्य धारण कर मुख नहीं जुठारोगी, तो इन सबके मुख में जल भी न जा पायेगा। वह निर्दयी व्रज का आनन्द ले गया, पर तुम्हारे साथ तो व्रज का जीवन बँधा है बहिन! तनिक धैर्य धारण करो।'🌹

'जीजी पहले तुम पियो ! इन सखियों को दो।' 🌹

'नहीं राधा ! पहले तुम्हें ही लेना होगा! यह देखो सब तुम्हारा मुख देख रही हैं। तुम्हारे पश्चात इन्हें मनाना सहज होगा, अन्यथा तुमसे पूर्व इनके होठों से आगे कोई खाद्य पदार्थ नहीं पहुँचेगा।'🌹

'तो पहले तुम जीजी।' "अच्छा बहिन; यही सही! वज्र हृदया चन्द्रा ही आरम्भ करेगी। व्रजमें वही तो एक बची है खाने-पहनने को - चन्द्रवली ने कटोरा मुख से लगाकर दो घूँट भर लिये, बरसने को आतुर आँसुओं को मुख फेरकर पोंछ दिया। 🌹

भूमिपर पड़ी भानुनन्दिनी को हाथ का सहारा देकर दुग्ध पात्र मुख से लगाया। झरझर झरते आँसु भी दुग्ध के साथ पेट में पहुँचने लगे। मुख प्रक्षालन के पश्चात उन्होंने कहा – 'तनिक धैर्य को समीप आने दो बहिन! इसके अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है। श्यामसुन्दर आयेगे तो केवल तुम्हारे ही लिये ! तुम्हारे बिना व्रज ही नहीं- श्यामसुन्दर भी न रहेंगे। अतः तुम धैर्य धर कर विश्राम करो, मैं घर तक हो आऊँ।'🌹

'तुम क्या कुछ भी नहीं लोगी जीजी? मुझे धैर्य की शिक्षा देकर स्वयं भूखी ही रहोगी! आपको मेरी शपथ जीजी!'- किशोरीजी ने वाष्परुद्ध कंठ से आग्रह किया।

श्रीराधा की बात सुन चन्द्रावली जी हँस पड़ी-'मैं क्या तुम सी बावरी हूँ; मैं क्यों इसके विरह में सूखूँ! जब उसे हमारी चिंता नहीं, तो मुझे क्या पड़ी
है! मैं तो तुम्हीं लोगोंको देख-देखकर मरी जाती हूँ, अन्यथा स्वयं तो खूब
खाती-पीती हूँ।' 

'सो सब मुझे ज्ञात है जीजी! मेरे सुखके लिये ही सही, तुम यह दूध पी लो ।'🌹

'अच्छा बहिन।'

चन्द्रावली जू ने कटोरा उठाकर मुख फेर लिया; एक ही साँस में खाली कर मुख फेरे हुए ही चल दीं।

'जीजी! जीजी! धैर्य धरो जीजी!'

चन्द्रावली जू एक कदम्ब वृक्ष को बाँहों में बाँधे फूटफूटकर रो रही थीं। 💙

अपनी मनः पीड़ा से व्यथित होकर मैं यहाँ चली आयी थी कि तनिक शांति मिलेगी, किंतु स्वप्नमें भी आशा नहीं थी कि चन्द्रा जीजी को यों अकेले पाऊँगी। उनकी आँखों में कभी आँसू आये भी है तो श्रीकिशोरीजी के दुःख से । अपने लिये तो सदा यही कहती है- 'मुझे क्या पड़ी है कि यों उसके लिये अधमरी होऊँ ।'🌹

आज अकेले में, 'श्यामसुन्दर ! मेरे सखा ! मेरे प्राण! कहाँ हो लौट आओ। तुम्हारे बिना ये विहारस्थल दुःखस्थल बन गये। क्षण-क्षण हृदय में उठती हूक अवश कर देती है। प्राण रोके नहीं रुकते, सबको धैर्य बँधाते बँधाते तुम्हारी चन्द्रा धैर्य खो बैठती है। यह कैसी आग लगा गये तुम वज में? क्यों बचाया तुमने दावानल से? क्यों बचाया इन्द्र के कोप से ? कालीय से ? तुम्हारे मुख चंद्र के दर्शन करते-करते हम सुखपूर्वक मृत्यु के मुख में समा जाते। आज.... आज .... तुम्हारे चले जाने से सभी विपत्तियाँ एक साथ टूट पड़ी हैं। मैं क्या करूँ? जिस ओर दृष्टि जाती है, वही दिखायी देती है। तुम्हारे सखाओं की, बाबा मैयाकी, गौओं-बछड़ों, तुम्हारी ये सखियाँ — ये चरण किंकरियाँ, जिन्होंने तुम्हारे मर्यादाओंके कठिन पाश तोड़कर छिन्न-भिन्नकर दिये, ये वृक्ष लतायें, यह व्रजधरा, यह यमुना और ये पशु-पक्षी, किस किसकी बात करूँ मनमोहन ! यह आकाश, ये धरा के रजकण और यमुना की लहरें किस प्रकार विरह व्याकुल हैं; तनिक आकर देख तो लो! मैं किस किसको धैर्य बंधाऊँ! यदि यही करना था, तो इस चन्द्रा के हृदय को तो स्वस्थ रखते। श्यामसुन्दर ! सबसे अधिक तो मैं अपने इस हृदय से ही हार गयी हूँ। हृदय की व्याकुलता को दबाकर हँसना और हँसते ही रहना.... कैसा कठिन है। यदि तुम आ जाओ तो मुझे इस दारुण कर्मसे छुट्टी मिले। तुम आ जाओ प्राणधन! तुम आ जाओ! आ.... आ.... आ.... आ. जा. ओ !' कहते-कहते अचेत होकर चन्द्रावली जू गिर पड़ी।💙

हाय, यह तो कभी नहीं सोचा था कि कभी जीजी को ऐसे देखूँगी। मैं दौड़कर समीप गयी उसका मस्तक क्रोडी में रखकर आँचल से व्यजन करने लगी। पत्रपुटक में यमुना जल लाकर उनके सूखे होठों का सिंचन किया।🌹

'कौन श्यामसुन्दर ? अब कहीं न जाना मेरे सर्वस्व तुम आ गये तो व्रज के प्राण आये। मैं बहुत लड़ती थी- बहुत खिजाती थी न तुम्हें ! अब न लहूँगी- सदा प्रेमपूर्ण रहूँगी। अनुकूल बन जाऊँगी, तुम कहीं न जाना। चलो चलकर तनिक राधा को देखो; उसकी दशा देखी नहीं जाती। उत्फुल्ल कमलिनी को मानो हिमदाह लगा हो !'💙

जीजी ने मेरा हाथ पकड़कर कहा-'मेरे पिछले सभी कटु-वाक्यों को क्षमाकर यही वरदान दो कि अब कभी व्रज को अनाथ करके न जाओगे। तुम्हारे बिना यह सम्पूर्ण ब्रज जीवन्मृत हो गया है। मुझ अपराधिनी को तुम भले अनन्तकाल तक विरह आग से तपाते रहो, किंतु और सबको दर्शन सुख प्रदान करो। इन्हें अपना लो, ये सब तुम्हारे हैं। स्मरण करो इनके लिये तुमने कौन-कौनसे कष्ट नहीं उठाये ? तुम्हारे अतिरिक्त इनकी कोई गति नहीं!'🌹

मैं क्या करूँ–क्या कहूँ; समझ नहीं पायी। जीजी मुझे श्यामसुन्दर समझकर प्रलाप करती जा रही थी। उन्हें चेत आ जाय तो अच्छा हो सोच मैं प्रयत्न करती रही। किंतु अकस्मात मनने कहा- 'जितने समय तक इन्हें श्यामसुन्दरका भ्रम है ये सुखी हैं । कम-से-कम इतने समय तो प्राण शीतलता लाभ करेंगे। पर यह कब तक चलेगा!'

जीजी कह रही थीं—'बोलो श्यामसुन्दर ! एक बार तो कह दो 'तथास्तु' । क्या चन्द्रा से ऐसे रूठ गये प्राणधन !' जीजी मेरे पदों पर सिर रखने को उद्यत हुई, तो मैं सह न सकी। बोले बिना कोई उपाय न रहा- 'जीजी, जीजी! यह तो अभागिनी इन्दु है। नेत्र खोलो जीजी!'

'कौन हो तुम ?' – वे एकदम उठ बैठीं।

'जीजी!'- मेरे मुख से और कुछ न निकल सका। 'श्यामसुन्दर कहाँ गये इन्दु ! अभी तो वे यही थे।'🌹

मैं क्या कहूँ, मौन अश्रुपात के अतिरिक्त हम अभागिनों के पास रह ही क्या गया है🌹

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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