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*🌹💙सखियों के श्याम💙🌹* 

 *(13)* 

 *🌹प्रेम न हाट बिकाय🌹* 

सखियाँ अपने अपने अनुभव सुनाती हैं कि कैसे उनको श्यामसुंदर हाट बाट और घाटपर मिले। हँसी, ठिठौली और बात की घड़े फोड़े, माला तोड़ी, चुनरी फाड़ी। सुनकर हृदयमें मरोड-सी उठती है- 'बड़भागिनी हैं ये सब!'🌹

पानी भरने, दही बेचने और नहाते समय सबके साथ ही तो रहती हूँ। श्यामने घड़ा फोड़ना और माला तोड़ना तो दूर, कभी आँख उठाकर देखा भी नहीं मुझे! 

क्योंकर देखें? सब कहते हैं श्यामसुंदर प्रेम परवश हैं और प्रेम कहाँ है इस सुखे मरुस्थलमें ?

घर बाहर सब कहते हैं- 'सुचरिता रूप गुण आगरी है।'

सुनकर हृदय जल उठता है, यह रूप गुण किस कामके, जो कान्ह जू को न भाये 💙! 
प्रेम... प्रेम.... प्रेम....; कहाँ मिलेगा यह प्रेम! किससे पूछूं, कैसे मिलेगा? सखियोंसे पूछँ? 
नहीं, वे हँसेगी! 
उपहास चाहे न करें, सहानुभूति जतायेंगी गरीबनी जानकर, सहा जायेगा वह ? 
नहीं, नही....।🌹

किंतु प्रेमके बिना काम जो नहीं चलता मेरा! 
श्यामसुंदरसे ही पूछें? 
बाप रे! जीभ हिलती भी है उनके सम्मुख! जीभकी कौन बात है,
 पलकें भी अभागी ऊपर नहीं उठ पाती।💙

सखियाँ कहती हैं – 
'विधाता मूर्ख है, उसने पलकें बनाकर हमारा कितना बड़ा अपकार किया है। एक बार दृष्टि उठते ही, फिर हटनेका नाम नहीं लेती, पर पलकें बीचमें कभी-कभी बाधा उपस्थित कर ही देती है। नयन-लाभ बस इतना ही है संसारमें, कि कृष्णचन्द्रका मुखावलोकन किया जाय!'🌹

किंतु कहा! नंदगाँवकी कन्या होनेपर भी यहीं नहीं नंदभवनके समीप आवास पाकर भी उनके दरशन कर सकी मैं? 
एक बार, हाँ एक बार देखे थे मैंने उनके नीलकमलकी पंखुड़ीसे दीर्घ आकर्ण चुम्बित, गहरी झील और सौंदर्य रसके आकर नयन-द्वय फिर कुछ स्मरण नहीं रहा !💙

सखियोंसे बातें करते हैं तो वह मीठी ध्वनि कर्ण-पथसे उतरकर हृदयमें आवास बना लेती है। मेरी कभी हिम्मत न हुई देखने बोलने की और न उन्होंने कभी आवश्यक समझी। बातोंसे ही जान पायी हूँ कि ये बहुत भोले हैं। सखियाँ उनसे काम करवाती हैं, खिजाती हैं और नंदभवनमें जाकर उन्हींकी शिकायत भी करती हैं। फिर भी वे दूसरे दिन बुलानेपर या मिलनेपर सब भूलकर पुनः घड़े उठवाने लगते हैं अथवा दूसरा काम बतानेपर वही करने लगते हैं।☺️

कार्य भी क्या कम हैं- 
किसीकी बछिया छूट गयी है, 
किसीकी पड़िया खो गयी है, 
किसीकी टूटी मुक्तामाल पिरोनी है, किसीको कांटा चुभ गया है, 
किसीकी आँखमें धूल पड़ गयी है, किसीकी गैया उनके बिना दूध नहीं देती, 
और किसीके हाथ गोबर अथवा आटेसे सने हैं और केशपाश बाँधना है।
 ऐसे सैकड़ों नहीं, हजारों काम है। ☺️किसीको कार्य करवाने के लिये निहोरा करना पड़ता है और किसीका बिना कहे ही कर देते हैं। 
एक मैं ही अभागिन हूँ इस व्रजमें जिसके पास कहनेको कुछ भी नहीं !

अच्छा श्यामसुंदर तो मनुष्योंसे ही नहीं पशु, पक्षी, वृक्षों और पत्थरोंसे भी प्रेम करते हैं। इनसे पूछूं कि प्रेम कहाँ-कैसे मिलता है ?💙

चलूँ वह कपोत बैठा है–
‘कपोत! कृपाकर मेरी व्यथा सुनो, मेरा हृदय प्रेम शून्य है। तुम.... ' 
अरे यह तो उड़ गया। 
इस शशकसे पूछँ– 
'प्यारे शशक! तुम उनके प्रिय मित्र हो। बोलो तो तुम्हें यह प्रेम कैसे प्राप्त हुआ ? 
हाँ!' यह भी मेरी ओर देखकर भाग चला है।
अच्छा इस मृगीसे पूछूं, कदाचित यह बता दे-'मृगवधु! बताओ तो,
कैसे तुम्हें यह अतुलनीय प्रेम प्राप्त हुआ ? श्याम गलबहियाँ डालकर तुमसे बातें करते हैं, वंशीमें पुकार कर तुम्हें बुलाते हैं, बोलो तो भला क्या बातें करते हैं वे तुमसे ? तुम्हारी इन बड़ी-बड़ी भोली आँखोंपर ही तो नहीं रीझ गये वे ? क्या कभी तुमने उनकी आँखें भी देखी हैं? जिनकी कहीं समता....
 ' ओह ! तुम भी चल दीं ?

सब अपने सौभाग्यपर गर्वित हैं, मुझ सा दीन-हीन कौन हैं! अब किससे पूछूं ? घरसे बहुत दूर आ गयी, पाँव थक गये, पर प्रेमका अता-पता न पाया। धूप चढ़ आयी है, गला सूख रहा है, चलूँ! इस तमाल के नीचे तनिक विश्राम कर लूँ।

अहा ये वृक्ष धन्य हैं; ये तो परोपकारके लिये ही जीवन धारण करते हैं। इससे पूछूं प्रेमका पता –
 'महाभाग तमाल! तुम्हारे सौभाग्यकी तुलना किससे हो सकती है? तुमने कान्ह जू का वर्ण पाया है, साथ ही अतुलनीय दयामय स्वभाव भी। मैं दरिद्रा भाग्यहीना तुम्हारी शरण आयी हूँ कृपाकर मेरा संताप मिटाओ- मेरा अभीष्ट प्रदानकर जीवनदान दो। तुम्हारी यह झुकी डाल जिसका आश्रय ले मैं खड़ी हूँ– प्रायः नित्य ही व्रजके जीवनाधार इसपर बैठकर - इसका आश्रय ले तुम्हें वंशी सुनाया करते हैं। उस समय श्याम सखा! देवता भी तुम्हारे भाग्यकी सराहना करते नहीं थकते। मुझ अभागिनको बताओ कि तुमने यह सौभाग्य कैसे पाया? यह अमोघ प्रेम कहाँसे, कैसे पाया जा सकता है? मेरे आराध्यके प्रिय ! मुझे बताओ.... मुझे बताओ तमाल! आह कुछ तो कहो कि मेरा सौभाग्य सूर्य कैसे-कब उदित होगा? 
कब प्रिय दर्शन प्राप्त होगा? 
कब उनके मधुमय अधरोंसे मेरा नाम निकलेगा? 
कब वे समीप आकर मुझसे कुछ कहेंगे ? 
कब-कब यह दुरन्त लज्जा पलकों और जीह्नाको अधिकार मुक्त करके मुझे दर्शन-भाषणका अवसर देगी ?
 मेरे प्राण प्यासे हैं तमाल! मार्ग दर्शन कर आप्यायित - अनुगृहित करो। हाय, तुम तो बोलते ही नहीं! ठीक है भाई! भाग्यहीनका साथ कौन दे ? 
घीमें घी सभी औंधाते है, रेतमें कौन घी डाले ? 
बुरा न मानना भाई? 
दुःखी व्यक्तिको बोलनेका ध्यान नहीं रहता, कुछ उलटा-सीधा कह दिया हो तो क्षमा करना।' 🌹👏🏻

अब बोला नहीं जा रहा, आँखोंके आगे अंधेरी चादर फैलती जा रही है। कोई नहीं है जो मेरी सहायता करे। 
किंत... किंतु.... यमराज तो कृपा कर ही सकते हैं। सूर्यनंदन! तुम तो भागवताचार्य हो, कृपामय हो, कृपा करके मेरे व्यर्थ बीतते हुए जीवनको समेट लो। मैं इस तमालकी डाल भुजाओंका वेष्ठन दे अवस्थित हूँ। 
तुम मेरी चेतना हर लो, जिससे ग्लानिपूर्ण यह असह्य हृदयदाह समाप्त हो। तनको यहीं ऐसे ही रहने देना; कदाचित कभी श्यामसुंदर इधर आ जाय और कृपा-कौतुहलवश ही इसे देखें स्पर्श कर लें- धन्य हो जायेगा यह पिंड पधारो.... पधारो.... संयमनीपति ।।

'शुचि.... शुचि.... क्या हुआ शुचि! 
तू यहाँ कैसे ?' 🌹

'यह... यह.... कौन... पुकार... रहा.... है.... सम्भवत यमपुरीसे बुलावा आ रहा है। मैं प्रस्तुत हूँ भगवन्! मेरे प्राणोंका अर्घ्य स्वीकार करो देव !! 👏🏻🌹

'यह क्या बड़बड़ा रही है☺️! इतनी दूर कैसे आ गयी ? आंखें खोल सुचि।'

'देख तो, कहाँ है तू! ले जल पी।'🥰

गलेमें जल पहुँचा तो सूखे गलेमें ठंडक पहुँची; नेत्र अपने आप उघड़ गये। 'इधर देख शुचि ! इतनी दूर कैसे आ गयी ?"🌹

जैसे ही दृष्टि घूमाकर उस दृष्टिमें समायी, मैं चौंककर काँप गयी। प्रत्येक रोम लहराकर उठ खड़ा हुआ। नयनोंके स्नेह वर्षण और वाणीकी मधुरिमाने पुनः चेतना हर ली।🌹💙

जब आँख खुली तो मैं लता-जाल वेष्ठित कुञ्जमें शिलापर लेटी थी। बायीं ओर पत्र-पुटकमें जल और पुष्प रखे थे। पदोंकी और वह त्रिभुवन - सुन्दर बैठे तलवोंपर हाथ फेर रहे थे। मैं मन-ही-मन संकुचित हो उठी; पैर समेटकर उठना चाहती थी, किंतु सदाकी बैरिन जड़ताने हिलनेकी भी अनुमति नहीं दी !☺️

मुझे जागी देख वे शिलातलसे उठ खड़े हुए, स्नेह भरित कण्ठसे पूछा
 "अब कैसा जी है शुचि, उठाऊँ ?' 

उन्होंने उठकर बैठनेमें सहायता की। 'ले जल पी।'

 पत्र-पुटक उन्होंने अधरोंसे लगा दिया, यन्त्र चलिए की भांति मैं पी गयी। जल पीनेसे चेतना कुछ गहरायी आई, फिर भी समझ नहीं पा रही थी कि यह सब स्वप्न है या सत्य ! वे समीप बैठ गये, चिबुक उठाते हुए बोले-
 'बोलती क्यों नहीं। मुझसे कोई अपराध हुआ- मुझसे कष्ट है ? तेरा घर इतना समीप है, किंतु तुझे कभी मैंने नंदभवनमें नहीं देखा! घाट अथवा पथमें भी कभी बोलती नहीं। मैयाको दूसरी गोपियोंको भांति उलहना देने भी नहीं जाती, अवश्य ही तू मुझसे रुष्ट है। शुचि इधर देख; क्या मेरी ओर देखना भी तुझे स्वीकार नहीं ?"
 
मेरा अंतर हाहाकार कर उठा, शरीरसे पसीनेका निर्झर बह चला।
प्रत्येक अंग मानो शताधिक्यसे थर थर काँपने लगा, नेत्रों की वर्षा चाहनेपर भी विरमित नहीं हो पा रही थी। हृदय चरणोंमें लोट जाना चाहता था, पुकारकर कहना चाहता था—
'नहीं श्याम जू, नहीं! विधाताकी सृष्टिमें तुमसे रुष्ट हो सके, ऐसा प्राणी ढूँढ़नेपर भी न मिलेगा!' 
नेत्र तृषितकी भाँति रूपमाधुरी पान करनेको आतुर थे, पर दुर्भेध प्राचीरकी भाँति मेरा दुर्भाग्य अड़ा था। न कुछ कह सकी, न कुछ कर सकी।💙🌹

समीपसे उठकर वे पुनः पैरोंके समीप जा बैठे। लगभग हाथ जोड़े हुए बोले- 

'मेरे अपराध क्षमा कर दे शुचि !'

उन्होंने अपना कपोल मेरे पैरपर रख दिया-
 'मैं जैसो-तैसो तेरो हूँ।' 
मुझे लगा हृदय और मस्तिष्कमें एक साथ अनेकों विस्फोट हो गये।
 आँखों के सामने काले-पीले रंग की चिंगारियाँ उड़ने लगीं। सम्भवतः मैं पुनः अचेत होकर गिरने जा रही थी, हृदयका समस्त आवेग करुण चित्कारके रूपमें फूट पड़ा— 'श्यामसुंदर ,,,,,,!' सम्बल भी उन्हींकी बाँहोंका मिला।🌹💙

अंकमें लिये हुए ही उन्होंने पीताम्बरसे मुख पोंछ दिया। पवन डुलाया और पुनः चिबुकपर तर्जनी रखकर बोले-

 'तेरे इस एक शब्दने एक सम्बोधन मेरे सारे भ्रम मिटा दिये। मैं अबतक समझता रहा था- शुचि मुझसे रुष्ट हैं। मैं चोर हूँ, काला हूँ, उधमी हूँ, इसीसे तू मुझसे उपेक्षा बरतती है।'☺️

वे हँस दिये – 
' इसी कारण तो मेरे सारे उधम, तुझपर दृष्टि पड़ते ही शांत हो जाते थे। तुझे कुछ कहते—छेड़ते मुझे संकोच हो आता था। और तो क्या कहूँ, श्रीराधाके सम्मुख भी मैं कभी इतना संकुचित नहीं हुआ। उनके अंतरकी बात मैं जानता हूँ, किंतु तेरा हृदय द्वार तो अर्गला और श्रृंखलासे ही नहीं; अभेध दीवारसे रुद्ध रहता है। मैं भोला छोरा भला कैसे समझ पाता! इसीसे तुझे अनदेखा कर इधर-उधर सरक जाता।'🌹

कुछ क्षण ठहर कर बोले–
 'मेरी ओर देखेगी नहीं शुचि? लोग कहते हैं मैं बहुत सुन्दर हूँ। एकबार देख न! मैं भी देखें तेरी काली पुतलियोंमें मेरा काला

 प्रतिबिम्ब कैसा दिखायी देता है। मैं काला हूँ, क्या इसीसे तू नहीं देखती ?" 

मैं बरबस मुस्करा दी। इस भोलेपनकी भी कोई सीमा है भला? अंजलीमें भरकर उन्होंने मेरा मुख ऊपर उठा दिया-
 'शुचि !' 

न जाने क्या था उस स्वरमें, कि लगाके भारी भारकी अवहेलना कर पलकें धीरेसे ऊपर उठ गयी। वह कमलमुख समीप था— बहुत समीप चिरकालका तृषित-पथिक मानो सरोवरके निर्मल जलपर झुक गया। मुझे ज्ञात नहीं, कितने समयतक नयन भ्रमर रूपसुधा पान करते रहे। ध्यान टूटा- वे एक हाथ से मेरा मस्तक हिलाते हुए हँसकर कह रहे थे— 

'बोलेगी नहीं!' 

यह हीरक कणों सी दन्त पंक्ति, उनकी आभासे उज्ज्वलता लिये विद्रुम अधर, मस्तक हिलनेसे गतिमान हुए दौड़-दौड़कर कपोलोंको चूमते मुख मकर- कुण्डल, बार-बार झुक झुक आती कुण्डलायित घनकृष्ण केश राशि, मुखमण्डलकी वह अमित छवि और सम्पूर्ण शरीरकी अपार शोभा, सबसे ऊपर वह दिव्य देह-गन्ध !💙

उनके सखा कहते हैं—
'कन्हैयाकी देह-गन्ध इसे कहीं छिपने नहीं देती!' 

अपनी सीमित इन्द्रिय-शक्तिसे मैं क्या-क्या देखँ क्या अनुभव करूँ।। विधाताकी कृपणता आज बेतरह खटक गयी। असमर्थताके बोझसे कसमसा उठी मैं

‘क्या देख रही है, योँ? लोग झूठ कहते हैं न, कि मैं सुन्दर हूँ! सम्भवतः मुझे चिढ़ाने को कहते होंगे। सुन्दर तो तू है, मैं तो काला हूँ।' 🌹

मुझे मन-ही-मन हँसी आ गयी–
 'अहा, कितनी बातें बनानी आतीं हैं इन्हें ? मेरे जितने ही तो है; कुल सात वर्ष, मुझे तो बात ही नहीं आती। भीतर कुछ उपजता भी है तो शब्द नहीं मिलते और ये ? मैया रे!"🥰

 'बोलती क्यों नहीं, फिर हाथ जोहूँ?'

कि मैं व्याकुल हो उठी, जीभको मुखमें घुमा-फिरा कर देखना चाहा वह मुखमें है भी कि पलायन कर गयी, किंतु कुछ भी न हो सका। सम्भवतः मेरी व्याकुल-दृष्टि उन्होंने चिन्ह ली, अतः वैसा कुछ नहीं किया। पर खोजते हुए बोले– 

'अगर तू नहीं बोली, तो मैं तेरी नाक खींच लूँगा।' 
मुझे अनायास हँसी आ गयी।☺️

उन्होंने प्रसन्नताके आवेग में मुझे अंकमें दबा लिया। मैं आनन्द-मूर्छामें डूबने लगी तभी वे मुख झुकाकर अपने अधरोंसे मेरा ललाट स्पर्श करते हुए। बोले– 
'कितना मधुर स्वर है तेरा ! बोल न; मेरे श्रवण आकुल हैं सुनने को।'🌹💙

वह स्पर्श, वह श्वासकी मोहिनी गंध; मैं अवश हो चली; नयन पुट मुंद गये और अवश-मंद-अधीर स्वर फूटा-

 'श्या.... म... सु. न्द र...!'

 'बोल शुचि ! और बोल.... और बोल.... ।'

श्यामसुन्दर.... श्यामसुन्दर !! श्यामसुन्दर !!!- 
मन और प्राणोंके साथ-साथ जिह्वा आवृत्ति करती गयी।
कितना समय बीता, जाननेका न अवसर था, न इच्छा और न साधन ही।

 'शुचि'।

'हूं,,,,'

'आँखें खोल! देख तेरे केशपाश खुल गये हैं। तू उठकर बैठ, तो मैं बाँध दूँ इन्हें ।'☺️

'अब चलें, अबेर हो रही है। सखा ढूंढ़ते होंगे मुझे! तेरी मैया भी चिन्तित होगी।'– 

उन्होंने ढीली चोटी कर, उसमें पुष्प गुम्फन करके मुझे दिखानेको आगे लटकाते हुए कहा। 
मैंने आश्चर्यसे उनकी ओर देखा; यह सब कहाँ सीखा उन्होंने !🌹☺️

'उठ, चलें।' 
उन्होंने हाथ पकड़ कर उठा दिया-
 'अब तो चुप नहीं रहेगी ? 🌹
कैसे, क्यों आयी थी यहाँ इतनी दूर?" 

मैं मन ही मन उत्तर खोजने लगी।

'फिर गूंगी हो गयी☺️ ?'– खीज पड़े ।

 मैं अचकचाकर उनका मुख देखने लगी। वे हँस पड़े- 

'इसीसे लोग कहते हैं- शुचिके मोढ़े मा जिह्वा नाय!' 

तमाल वृक्षको देख, चलते-चलते रुककर मैंने प्रणाम किया।🌹👏🏻

'यहाँ कोई देवता है ?'☺️

मैंने 'हाँ' मैं मस्तक हिला दिया।

'कौन देवता ?'

मैं पुनः उत्तर ढूंढ़ने में लग गयी।🌹



*जय जय श्री राधेश्याम*

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