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🌹💙 *सखियों के श्याम* 💙🌹


🌹 *कलि में मीरा नाम धरायो* 🌹

 *(26)* 

अब यह कौन पड़ी है यहाँ! मैं तो स्वयं अपना ताप ठंडा करने आयी थी। सुना है सखियों से कि यहीं गिरिराज जू की पूजा हुई थी और यह निकुञ्ज ! यहीं सखियों ने सखाओं ने मिलकर श्यामसुन्दर और किशोरी जू का विवाह रचाया था। 🌹लीला स्थलियोंके दर्शनकर इस रजसे स्नानकर स्वयंको कृतार्थ कर लूँ। यहाँ वासका सौभाग्य भी मिला तो कब-जब मनमीत चले गये छोड़ कर रे मन; अपना क्या है! जिन्होंने पाकर खोया है वे धनी हैं, किंतु तू ! तूने खोया क्या और पाया क्या? नहीं मैंने तो पाया ही पाया है मैं इस व्रजकी नहीं; अतः उनके दर्शनका धन भी अयाचित ही पा गयी—पा उनकी असीम-अमित महिमाका ज्ञान। उसी भाँति भिक्षुककी झोलीमें अकस्मात ही आ गिरी किसी स्वर्णमुद्राकी भाँति ! पा गयी उनके पावन चरणोंका नेह। सब कुछ उनकी कृपा ही कृपा है।🌹

मैयाने बहुत बार हठ किया, ऊँच-नीच समझाया। यहीं इसी व्रजमें विवाह कर देने की बात भी कही; किंतु मेरी 'न' के आगे हार गयी। मैया स्वर्ग सिधारी तो भैया-भाभीसे आज्ञा ले जीजीके पास आ गयी। आकर जो कुछ देखा, सब कुछ जैसे उजड़ गया है। फिर भी यह वृंदावन है। यहाँके कण कणमें उनकी उपस्थितिकी छाप है, लौट जानेको मन न हुआ। ऊधोके आने की सुनी-सुना उनका संदेशा! पहले तो आश्चर्य विमूढ़ हो गयी—'श्यामसुंदरने यह ज्ञान पुटलिया इन प्रेममूर्तियोंके लिये पठाई है ? श्रीकिशोरीजी को प्रणामकर चरणरज ली तो अचानक लगा, मेरी तरह कहीं उद्धव भी तो गुमान भरे नहीं। हैं! श्यामसुंदरने हमें संदेश और इन्हें औषधि दी हौ.... कदाचित् ।'🌹

बात सच निकली! श्रीकिशोरीजीकी कृपा मिली- सेवा मिली। मैंने तो सब पाया ही पाया है.... किंतु यह कौन है ? यहाँ लताओंके जालमें धूलसे देह लपेटे पाहनपर कैसी अचेत पड़ी है। आह, श्यामसुंदर कैसी निष्ठुरता ! नंदगाँवकी बेटी नहीं जान पड़ती। बहु है, पर किसकी! मैं ही कहाँ सबको पहचानती हूँ।🌹

'उठ बहिन! तनिक जल पी ले।' मैंने उसे अंकमें ले खुले रूखे केशपाश बाँधे, वस्त्र सम्हाले और सूखे होठोंसे जलपूर्ण पत्र-पुटक लगाया। नन्हें पंछी शावकके खुले चंचुपुट-से होठ जलसिक्त हुए, तो उसकी बड़ी बड़ी पलकें भी सूर्योदयके साथ उघड़ती कमल पंखुरी-सी उघड़ने लगीं। अनचिन्हीं दृष्टियाँ मिली! दोनोंमें एक ही प्रश्न एक ही साथ साकार हुआ तुम कौन हो ?

इसके साथ ही दोनोंके ही नेत्रोंने एक संदेश और दिया दोनोंको; कि ऐसा लगा! जो जल मुखके भीतर जा रहा है वह कंठसे नीचे उतरनेके ये एक ही रोगकी रोगिणी है।💙 मेरी बात मान उसने दोनेंसे मुख लगाया। बदले नेत्रों की राह दुगने वेगसे बाहर झर रहा है। जल पी वह पुनः निढाल हो पड़ी। मैं भी मूढकी भाँति उसका मुख देखती रही। क्या पूछू, क्या कहकर उसे धीरज बंधाऊँ ? किंतु उसके नेत्र थे कि निर्झर, जैसे भीतर के अथाह सरोवरको रीता करनेकी आतुरतासे बरसते ही जा रहे थे। इस मुक रुदनने मुझे थोड़ा चौंकाया! दो दिनसे देख रही थी सखियाँ सखा, पशु पंछी और बड़े-बूढ़े भी यदा-कदा मुखसे निकलनेवाला आह- कराहको रोक नहीं पाते, पर यह जैसे पाहनकी मूरतकी आँखोंसे जलप्रपात झर रहा हो । कैसी सुन्दर मूरत.... ।🌹

'धीरज धर बहिन!' मैंने भरे गलेसे कहा-'श्यामसुंदरने कहलाया है कि वे आवेंगे। इस प्रकार आँसू ढरेंगे तो किन आँखोंसे उन्हें देख पाओगी ? मैं बलि जाऊँ, तनिक धीरज धरो।' अपने हाथोंसे उसके आँसू पोंछते हुए मैंने उसे सम्हालना चाहा, पर वह तो फूट-फूटकर रो पड़ी।

अब तो मेरे लिये भी स्वयंको रोक पाना कठिन हो गया; हाय यह स्वर्ण वल्लरी कैसी मुर्झा गयी है। जाने कहाँ-कहाँ किस-किस उपवनमें दावानल प्रज्वलित हो उठा है और कहाँ-कहाँ हिमदाहकी वर्षा हुई।

'बहिन तो कू मेरी सौंह! अपने मनकी कह, जासों दाह बाहर निकसे। यों तो प्राण बचेंगे नहीं!'

न जाने मेरी प्रत्येक बातका विपरीत प्रभाव उसपर क्यों हो रहा था कि ज्यों-ज्यों मैं धीरज बँधाती अधिकाधिक रुदनका वेग बढ़ता जाता। मैं हार गयी ‘आह कैसे इसे समझाऊँ!' अपनी चुनरी भिगोकर मैंने उसका मुख पोंछ दिया पुनः जल पिलाया और सौंह धरायी। उसे हृदयसे लगाकर पीठपर सिरपर हाथ फेरते हुए कहा-'कुछ कहेगी नहीं बहिन ?'

'का कहूँ? दुर्भाग्यके अतिरिक्त मो पै कछु नाय!'- वह पुनः बिलख पड़ी

'कहा नाम है तेरो ? कौन की बहु है ? ' 'माधवी; अविचल जू मेरे ससुर है।

'सुन्दरकी बहु है ? "

उसने 'हाँ' मे सिर हिला दिया।

अहा, कैसी रूप-सी बहु पा गया है सुन्दर! मैंने उसका मन दूसरी ओर फेरनेको बात आरम्भ की – 'कब व्याह हुआ तेरा ? मैं पिछली बार आयी तो कुंआरा था वह, सगाई सम्भव है हो गयी थी।'🌹

'मेरा ब्याह ही तो सब अनर्थोंका मूल है बहिन!'- वह फिर रोने लगी। अरी वह तो सबका है; कोई एकाध मुझ-सी बच पावे है। मैंने तो मैयासे कह दीनी-'कोऊ जोतसी पै दिखायलो मेरी हथेली, यामें ब्याहकी रेखा खींची ही नाय विधाताने।' 'तुम्हारा ब्याह नहीं हुआ, सचमुच ?'- उसने भरी भरी आँखों से मुझे देखा।

'ऊँ.... हूँ.....ऽ।' मैंने हँसकर जोरसे सिर हिला दिया- 'इसीसे तो हँस पा रही हूँ! नहीं तो तेरी ही भाँति रो-रोकर मरती नाय ? कभी आरसीमें मुख देखा है ? विधाताने दोनों हाथों से रूप दिया है तुझे! श्यामसुन्दर देखकर कितना सुख पाते होंगे। इस प्रकार रो कलपकर इसे बिगाड़ लेगी तो क्या उत्तर देगी उन्हें लौटने पर ? और सखी! यह बिछोहका वज्र केवल तुझ पर ही तो नहीं गिरा, सम्पूर्ण व्रज झुलस गया है। तनिक किशोरी जू की ओर देख, बाबा मैयाको देख और उनके प्यारे सखाओं को इन गैयनको देख.... ।' मेरा गला भर आया— 'जिनकी एक हुँकार पर भोजन और शय्या त्याग उठ दौड़ते थे वे....।'🌹

'इन सबसे मेरे दुर्भाग्यकी कोई समता नहीं। वे सभी सौभाग्यशाली है। उसके नेत्र पुनः झरने लगे।

'तनिक इन आँसुओंकी बरखाको रोक! तेरा अकेलीका दुर्भाग्य ऐसा प्रबल कैसे हो गया री! कि सबके भाग्यको पछाड़कर एक वही आगे बढ़ गया? जो सबने पाया सो तैंने भी; और जो सबने खोया सो तेरे भी हिस्से में आया नयी बात क्या हुई भला ?"

'उन्होंने, सबने कुछ पाया है बहिन! जिसे खोनेकी अनुभूति हो रही है। यदि यों कहूँ कि उसे खोकर वे और अधिक धनी, धन्य और गरिमामय हो उठी हैं, किंतु मैं....'– वह सिसक उठी।

मैं चकराई— 'यह कैसे सखी! मैं समझी नहीं ? तोकू मेरी साँह तनिक धैर्य धर।'

'क्या कहूँ, कहाँसे कहूँ? कोई आदि-अंत दिखायी नहीं पड़ता!' 'तू ब्याहसे ही आरम्भ कर या फिर जबसे तेरे कथित दुर्भाग्यने आक्रमण किया हो।' 'अच्छा बहिन!' वह थोड़ा सम्हलकर पाहनसे टेक लगाकर बैठ गयी 'मेरे दुर्भाग्य दीनतापर घृणा तो नहीं करोगी मुझसे ?" 

'अरी बावरी तू ! कह तो, कौन जाने मेरा दुर्भाग्य कहीं तुझसे बड़ा हो तो ? आज तो व्रजमें दुर्भाग्यकी होड़ लगी है कि किसका किससे बढ़कर है। इतनेपर भी सुन ले कि यहाँका कण-कण मेरा आदरणीय है, पूज्य है! घृणाकी क्या बात करती है तू?"🌹

मेरी बात सुनकर चुप हो रही वह कुछ कहनेको होती तो रुलाई उमड़

पड़ती उसे; ज्यों-त्यों रोकती तो शब्द न मिलते, होठ फड़फड़ा कर रह जाते। 'बोलेगी नहीं ? इतनी अपदार्थ हूँ मैं?'

हँसनेकी चेष्टामें एक करुण रेखामें खिंच कर रह गये उसके अधर और आँखों में भरे जलकी दो बूंदे गालोंपर ढल गयीं।

'अब मारूँगी मैं तुझे!'– मैंने स्नेह रोष दिखाया।

'सच बहिन! तो मैं जी जाऊँ।' उसने विह्वल हो मेरी गोदमें सिर धर दिया- 'कोई तो मुझे कुछ कहे- धिक्कारे.... ।' "कैसे करेगा ? तेरी बानी फूटे तब तो ! ले मेरा वचन रहा; मैं वह सब
करूँगी जिससे तेरा दुर्भाग्य घटे। अब बोल तू !' 'मुझे किशोरीजीके समीप पहुँचना है। जानती है! सबसे कठिन कार्य है चन्द्रवली जू की सम्हार करना ? श्रीकिशोरीजीने ही कहा मुझे-चम्पा ! तू चन्द्रा जीजीकी ओर ध्यान दें; वे ऊपरसे अपनेको बड़ी कठोर बनाये रखती है, सबकी सार सम्हालमें लगी रहती है, किंतु स्वयं; उनके मनकी मैं ही जानती हूँ! तू मुझपर बड़ा उपकार करेगी यदि दिनमें एक बार भी उन्हें थोड़ा खिला-पिला सके।'

मैं तो धन्य हो गयी, श्री जूने मुझे किसी कार्यके योग्य तो समझा, पर यह सरल कार्य नहीं है यह मैं उसी समय समझ गयी। चन्द्रावली जू की आज्ञा सबपर चलती है; यहाँतक की किशोरीजी भी उनकी बात मान लेती हैं, उन पर किसीका शासन चलेगा? चिरौरी विनती भी कितनी? जो केवल दो टूक बात करना ही जानती हों! जिनकी आँखोंके आँसू दिखायी न पड़ें, उन्हें धीरज किस प्रकार दिया जाय बहिन? इसलिये तू अपनी बात कह! कि दोनों मिलकर उस दुर्भाग्यको रंचमात्र भी पीछे ठेल सकें तो कुछ साहस आये।'

"तू यहाँ की नाय ?'

‘ऐसा मेरा भाग्य कहाँ! मैं तो तेरे पतिके सखा जयन्तकी साली हूँ। दो वर्ष पश्चात पुनः यहाँ आ पायी हूँ। मेरा कंठ रुद्ध हो गया- 'एक बार केवल एक ही बार सौन्दर्य - पारावारको देख पायी-अधा भी न पायी थी कि.. जाने दे मेरी बात !' मैंने स्वयं ही हँसकर अपने आँसू पोंछ लिये–'मेरी बात करने को बहुत समय है। अब मैं यहीं रहूँगी, किशोरीजीकी आज्ञा हो गयी। फिर वहाँ है क्या अपना! मैया रही नहीं, बाबा पहले ही सिधार गये थे, उनकी तो स्मृति भी नहीं मुझे! अब तू बोल सखी, तेरा निहोरा करूँ!

'मेरा विवाह हुए भी उतना ही समय हुआ जितना तुम्हें यहाँ लौटनेमें लगा।'– माधवीने गहरी उसाँस छोड़ी-ब्याहके थोड़े ही समय पश्चात गौनेकी शीघ्रता मचाई इन्होंने कहा कि मेरी सासके लड़की नहीं है; बहुका लाड़-दुलार करके मनकी साध पूरी करनी चाहें।' जब गौनेकी बात चल रही थी तभी एक दिन मेरी मैयाने मुझे एकान्तमें बिठाकर भली-भाँति समझाया कि- 'तेरी ससुरालमें व्रजराजका छौरा, जिसका नाम कन्हाई है। इतना सुन्दर है कि जो एक बार हू किसीकी दृष्टि पड़ जाये तो वह बावरो है जाय! और आगे-पीछे कछु सूझे नाय वाको! मैयाने मुझे नारी धर्मकी महिमा समझायी, उससे डिगनेपर होनेवाले सर्वनाशसे भी परिचित कराया और फिर अंतमें कहा कि मुझे किसी भी प्रकार उस कन्हाईको न तो अपना मुख दिखाना है, न स्वयं उसका मुख देखना है। यही नहीं! उसने बताया कि उसके स्वरमें – बंसीमें ऐसी माधुरी है कि लोग उसे सुनकर बिना देखे भी वशमें हो जाते हैं, अतः मैं सावधान रहूँ। उसका एक ही नाम नहीं है। एकमात्र लड़ता और वह भी बुढ़ौतीका पूत जो ठहरा- उसे कृष्ण, कन्हाई, कन्नू, श्यामसुन्दर, नीलमणि, मदनमोहन, गोविन्द, गोपाल, मोहन, बंसीवारो, साँवरो-ऐसे अनेकों नाम है। वह उठते-बैठते, चलते-फिरते रात-दिन मुझे यही सीख देने लगी कि न उस साँवरे कुँवरको देखूँ, न सुनूँ, न स्वयं उसके सामने पड़ें और न बोलूँ।'

'आह! कैसी प्राणघाती शिक्षा'- मेरे मुँहसे निकल गया। यही शिक्षा मेरे दुर्भाग्यकी सुत्रधार बनी।'- कुछ रुककर वह पुनः

कहने लगी- 'एक दिन वह भी आया कि सबसे मिल कर विदा होना पड़ा। प्रियजनोंसे बिछुड़नेका दुःख तो था ही बहिन! उस व्रजराज पुत्रका भय, ढ़का हुआ रथ, जिसे स्वामी स्वयं चला रहे थे।"

उसने अपनी सूजी-भारी पर कोमल बड़ी-बड़ी पलकें उठाकर मेरी ओर देखा। तनिक व्यंगसे मुस्करायी और कहने लगी- 'जब प्रथमबार मैंने अपने पतिको देखा तो बहुत आश्वस्त हुई, अबतक मैंने वैसा सुरूप पुरुष नहीं देखा था। वहाँ हमारे पूरे व्रजमें उनके रूपकी चर्चा थी; सभी हमारी जोड़ीकी मुक्त कंठसे प्रशंसा करते थे। मैं बहुत प्रसन्न थी अपने भाग्य पर! पीहर में इकलौती पुत्री और ससुरालमें इकलौती बहु; भरा पूरा घर, हजारों गैया! और क्या चाहिये गोपकी बेटी को ?'🌹

रथने जब वृंदावनकी सीमामें प्रवेश किया तो उनकी आज्ञासे मैंने रथका परदा गिरा दिया। थोड़ी ही देरमें कहींसे दौड़ता-सा स्वर आया 'सुन्दर भैया! लिवा लाया बहुको ?'

'हाँ कन्नू!'

'मो कू दिखाय दे।'

'मैं कहा दिखाऊँ भैया! तू ही रथपर चढ़ आ, और देख ले तो सों भला कहा लाज-घूंघट?'– उनकी बात सुन मैं अच्छी तरह मैयाकी बात स्मरण कर घूंघट खींच हाथ-पैर तक ढाँप ढूँप कर बैठ गयी।

उसी समय रथकी झरप खुली- 'ए बहु! तनिक अपना मुख दिखा तो?"

बाल सुलभ भोला-मीठा स्वर सुन हँसी आने को हुई, पर मैयाकी शिक्षा याद कर मैं और सिमट गयी। उसने हाथसे मेरा घूंघट हटाना चाहा, किंतु मैं कसकर पकड़े रही।

'सुन्दर भैया! बहुने तो बहुत गाढ़ौ घूंघट कस राख्यो है, दिखावै नाय!' 'अरे यह तो अपनो कन्हाई है, इससे क्या घूंघट रखना! वैसे भी यह मुझसे छोटा ही है; क्यों कन्नू ?'- पतिने बाहरसे ही सस्नेह कहा; पर मैं कृतनिश्चय थी। इतनी शीघ्र मैयाकी शिक्षाको बहा देना अच्छा न लगा।🌹

उन्होंने बहुत प्रयत्न किया, अन्तमें थककर बोले-'अब तू क्या दिखायेगी अपना मुँह, तू ही मेरा मुँह देखनेको तरसेगी।'

'वह स्वर बालकका न था; इतना गम्भीर भारी स्वर सन अन्तर्मनमें भयभीत हुई, परन्तु अपनी प्रथम विजयसे मैं प्रसन्न थी। वह ठहर गयी।
माधवीकी बात सुन एक गहरी साँस मेरी छातीसे निकल पड़ी। 'इसके पश्चात् ?' – मैंने पूछा। इसके पश्चात मैंने उन्हें नहीं देखा, न स्वर सुना। ऐसे अवसर मैं जान बूझकर टाल जाती, अथवा वे स्वयं टाल जाते। जैसे, जब नंदभवनमें मुझे मैयाके पाँव लगने ले जाया गया; पैर छू कर मैयाके दिये वस्त्राभूषण गोदमें लिये मैं बैठी थी कि वे आये। मैयाने उल्लास पूर्वक पुकारा – 'नीलमणि ! देख तो बेटा, सुन्दरकी बहु आयी है। तू इसका मुख नहीं देखेगा? कैसी पूनमके चन्द्रमा सी सुन्दर है। आ, मैं दिखाऊँ!'🌹

'नहीं मैया! फिर कभी देख लूँगा, अभी सखाओंका एक काम करना है मुझको।'–कहकर चले गये।

व्रजरानी मैयाको बहुत आश्चर्य हुआ, उनका नीलमणि तो नये जन्में बालक और नयी आयी बहुको देखनेको सदा उत्सुक रहता है। आज देहरी तक आकर कैसे लौट गया !

फिर मेरी सास उनका निहोरा करने लगीं कि- 'कन्हाईका ब्याह अब हो ही जाना चाहिये।'🌹

'उसके भाइयों के सखाओंके कितने-कितने ब्याह हो गये हैं। फिर वह स्वयं भी कम उत्सुक नहीं है अपने ब्याहके लिये। जब भी किसीका ब्याह होता है, पूछता है मैयासे कि मेरा ब्याह कब होगा? बरसानेसे भी संदेश आते ही रहते हैं। जीवनका कौन भरोसा बूढे लोगों के मनकी मनमें ही न रह जाय।' आदि-आदि।

प्रातः सायं वन जाते-आते समय मैं अपने घरके भीतरी कक्षमें चली जाती थी कि न कुछ दिखे—न सुनायी दे । सासको आश्चर्य होता जब स्त्री-पुरुष - बड़े-बूढ़े सभी घरसे बाहर निकल उनका दर्शन लाभ लेना चाहते, तब मैं घरके भीतर क्यों चली जाती हूँ। वह दूसरोंसे कभी-कभी कहती—'बहु बड़ी लजवंती है। माधवी फिर व्यङ्गसे हँस दी।'🌹

पानी भरने नहानेका समय भी मैंने ऐसा रख लिया था कि श्यामसुन्दरका सामना होनेकी सम्भावना ही न रहे। इतने पर भी घरके लोगोंको व्यसन था उनकी चर्चा करने का पतिके पास तो जैसे अपने सखाकी बातको छोड़ अन्य कोई बात ही न थी, अतः न चाहते हुए भी बहुत सी बातें कानमें पड़ ही जाती। जिनका सार यही था कि- 'उन-सा सुन्दर त्रिभुवनमें नहीं है। मनुष्यकी कौन कहे; पशु, पंखेरु, धरा, गगन, नदी, वृक्ष और पाहनाका भी उससे प्रेम हैं। उसे चाहे बिना रहा नहीं जा सकता! साथ ही वह बहुत भोला सीधा है। गोपियाँ खूब चिढ़ाती है, झूठे उलाहने लेकर मैयाके पास जाती है।' पति कहते – 'यह सब कन्नूको देखनेके लिये- उससे बात करनेके बहाने मात्र हैं। जब सब उसे खिजाती है, तो वह उनके घड़े फोड़ देता है। सखाओंके साथ घरमें घुसकर दूध-दही-माखन; जो मिले उसे पी और बिखेर आता है। सबको अच्छा लगता है, इसीलिये ऐसा करता है वह ! अन्यथा उसके घर में क्या कमी है। '🌹

'बहू! तुम्हारे आनेके पश्चात कन्हाई घर नहीं आता!' सास कहती 'नहीं तो दूसरे-तीसरे दिन कुछ-न-कुछ उधम कर ही जाता था। अब तो कहती भी हूँ तो कोई बहाना बनाकर चला जाता है। मुझे तो लगता है तुझसे लजाता है वह। लेकिन कन्हाई और लाज! न कोई उससे लजाता है, न वही किसीसे लजाता है; तुम दोनोंकी अनोखी बात देखी मैंने तो !'💙

'मैं सब सुनकर भी मौन रहती; अपनी मैयाकी शिक्षाको गाढ़े हाथों थाम रखा था। कभी पीहर जाती तो मैया दो चार महिनोंतक बिदा ही नहीं करती; उसके लाड़का अंत ही नहीं रहता। तब बीच-बीचमें वह व्रजराजकुमारके बारेमें पूछती कि मैंने कभी देखा तो नहीं अथवा स्वयं अपना मुख दिखाया तो नहीं?'

मैं हँस कर मनाकर देती और उसे बताती कि- 'एक मुझे छोड़कर पूरा का पूरा सारा व्रज उसके पीछे बावरा है। तो मैया डर जाती और पुनः पुनः मुझे समझाती।'🌹

'उन दिनों मैं यहीं थी जब इन्द्रयागके स्थानपर गोवरधन पूजा हुई। मुझे तो ये सब बावरे लगे कि एक बालकके कहनेपर सबने पीढ़ियों से चले आ रहे इन्द्रयागको बंदकर दिया और पहाड़ पूजने बैठ गये। किंतु मुझे क्या! मैंने तो अपनी सावधानी रखी; पूजनके समय - परिक्रमाके समय कहीं दृष्टि न पड़ जाय श्यामसुंदर पर!'🌹

और फिर बज्र बनकर टूटा इन्द्रका कोप व्रज पर कोई बिना देखे सोच भी नहीं सकता! अंजलीमें न समाये इतने बड़े-बड़े उपल और रस्सी जैसी मोटी धाराओंकी वृष्टि; लगा-प्रलयकाल उपस्थित हो गया। किसीको किसीका ध्यान नहीं था; सब एक स्वरसे कन्हाई, कन्नू, गोविन्द, नीलमणि पुकारते हुए भाग रहे थे। तभी एकाएक देखा; सुना तो बहुत था कि श्यामसुन्दरने छः दिनकी आयुमें पूतना राक्षसीको मार डाला। मेरी सास तो कहती थी कि कन्हाई भला क्या मारेगा, वह तो इतना सा था! राक्षसीको तो उसके पाप ही खा गये। एक वर्षकी आयुमें तृणावर्तको मारा, तीन वर्षका था तो बकासुरको मारा, कालीय नागको दहसे बाहर कर दिया। इसपर तो मुझे भी आश्चर्य हुआ कि वह सौं फणोंवाला नाग ! भला उसे पाँच वर्षका बालक कैसे वशमें कर सका? दाऊने धेनुकासुर और उसका साथियों को मार डाला, श्यामसुन्दरने दावानलसे दो-दो बार गायो और व्रजवासियों की रक्षा की, एक ब्योम नामका राक्षस बालक बनकर सखाओं में आ मिला; उसे पकड़ एक ही मुष्ठी प्रहारसे चित कर दिया, आदि आदि। पर आँखोंसे तो उसी दिन देखा जब सब व्रजवासी और पशु जैसे जलमें तिनके बहते हैं वैसे ही भागे जा रहे थे गोबर्धनकी ओर मैं भी उनमें साथ थी न वस्त्रोंका न तनका ध्यान ऊपरसे मूसलाधार वृष्टिकी मार वायुके थपेड़ोंमें पाँव अपने आप उठ रहे थे। अकस्मात देखा कि गिरिराज गोबर्धन ऊपर आकाशमें उठ रहा है; कैसा आश्चर्य ! परन्तु उस समय आश्चर्य करनेका अवकाश किसे था, प्राण बचानेको ठौर मिले बस। सबके सब ढ़ोर-ढंगरों के साथ गिरिराजके नीचे जा घुसे, तब जी में जी आया। उस समय जो देखा....' माधवीकी वाणी गद्गद हुई.... और मूर्च्छित हो वह मेरी क्रौडीमें लुढ़क गयी। मैंने पुनः उपचार करके सचेत किया उसे, पीठपर हाथ फेरते हुए पूछा कि- 'फिर क्या देखा ?'

'मैंने कहा न, उस समय वस्त्रोंका ध्यान किसे था! घूंघट था ही नहीं, होता तो यहाँ तक आ ही नहीं पातीं। दृष्टि घूमती हुई छत्रसे तने गिरिराजका आधार ढूंढने लगी, जो आधार मिला उसने मैयाकी सारी शिक्षा, इतने दिनों की सावधानी और निश्चयके बाँधको ढहा दिया। एक दृष्टिमें यही दिखा कि सात वर्षका एक बालक बायाँ हाथ ऊँचाकर कनिष्ठिकाकी कोरका अवलम्ब दिये खड़ा है गोबर्धन को।'🌹

"कैसे? कैसे विश्वास हो बहिन कि यह साढ़े सात कोसका पहाड़ किसीकी उँगलीकी पोरपर टिका है? फिर जो यह सौन्दर्य महासिंधु नेत्रों में समाया तो हृदय उसी पथसे पानी हो बह चला। आह! कितना कितना समय व्यर्थ गया मेरा— कैसा महानाशी निश्चय था मेरा और जननीकी वह सत्यानाशी शिक्षा....! किंतु वह भी क्या करे, बिना देखे सुने कैसे कोई जान सकता है। मैं... मैं.... कैसी.... मूढ़, कितनी चिरौरीकी थी इन्होंने मेरा मुख देखनेको, अथवा कि अपना यह मुख दिखाकर नेत्रोंको सार्थक करनेकी घरके लोग कितनी बातें कहते थे पर मैंने स्वयंको अंधी बहरी बना दिया। कालिय जैसा प्राणघाती प्रयत्न किया मैंने यह सब तो अब सोचती हूँ उस समय तो सोचने योग्य बुद्धि बची ही कहाँ थी— वर्षोंके भूखेको जैसे चौंसठ व्यञ्जन मिलें वैसे ही बस प्राण नेत्रों में आ समाये थे। एक और आश्चर्य देखा मैंने! व्रजमें कभी किसीने श्यामसुंदरको चतुर्भुज नहीं देखा। मैंने देखा-दो हाथोंसे वे बंशी बजा रहे थे एक हाथ सुबलके काँधेपर धरा था और एक हाथ उठाये गोबर्धन थाम रखा था। वे सात दिन.... वे सात दिन मेरे जीवन के सबसे धन्यतम दिन थे। मुझे तो वे सात क्षण भी नहीं लगे, पर सब कहते थे बादमें कि वृष्टि सात दिन-रात हुई। वह रूप सुधा - वह मुरलीकी माधुरी, बस और कहीं कुछ न बचा....।🌹

फिर वही कच्चे गलेकी अमृतवाणी गूँजीवृष्टि रुक गयी है, सब बाहर निकलकर और अपने-अपने घर लौटें |

उस समय...., उस समय जाने कैसे बुद्धि लौटी और स्मरण आयी वह बात–'अब तू ही मेरा मुख देखनेको तरसेगी।' तो प्राण हाहाकार कर उठे 'अब जो यह रूप देखनेको न मिले तो प्राण कैसे बचेंगे! बचें या न बचें पर इस आशंकासे जो आकुलता उपजी उसे फैलनेसे रोकनेकी शक्ति किसमें थी? किसी ओर त्राण न पाकर मैंने अंतमें उन्हीं चरणोंकी शरण ग्रहण की 'मैं अग्य हूँ, मूढ़ हूँ, दया करा.... दया करो। इन सबके साथ मैं भी पालनीय रक्षणीय हूँ, मुझे दर्शन-श्रवणसे वंचित मत करो.... मत करो.... मत... करो।'

जैसा गम्भीर स्वर उस दिन रथपर सुना था, वही स्वर सुनायी दिया - 'उस दिन बिना सोचे समझे तूने अपराध किया था। अब जो पश्चाताप किया है इससे कुछ समय दर्शन श्रवण ही सुलभ हो सकेगा, लीलामें सम्मलित नहीं हो सकेगी। कलिमें पुनः जन्म लेकर इस किये गये अपराधका प्रायश्चित करेगी, तभी लीलामें सम्मलित हो पायेगी।'

सुनकर मैं वही मूर्च्छित हो गयी। कौन वहाँसे मुझे उठा लाया, कल गोबर्धनको स्थापित किया उन्होंने मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं चेतना होनेपर भी जैसे हाथ पैर शरीर सब सुन्न हो गये, अपनी व्यथा स्मरणकर रोनेके अतिरिक्त रह ही क्या गया था ? केवल प्रातः सायं बंसी बजती तो जैसे तनमें प्राण उतरते, मैं दौड़कर अटारीपर चढ़ जाती, झरोखेसे प्यासे नयन जा लगते और पुष्पाञ्जलि छूटती, किंतु केवल एक बार - केवल एक बार उन्होंने ऊपरकी ओर देखा! वह दृष्टि ही मेरा सम्पूर्ण मूलधन है बहिन !

सासको चिंता लगी बहुको क्या माँदगा लगी ? मैयाके यहाँसे बुलावा आया, मैंने 'ना' कर दी। मनमें कहा- 'अब लौं नसानी अब न नसैहौं।' धीरे-धीरे मैं घरके काम काजमें सासका साथ देने लगी, किंतु खाने-पीने, पहनने ओढ़ने, काम काज, वार-त्योहार किसीमें पहले सा उत्साह नहीं रहा। अवश्य ही पति गौचारण करके लौटते और विश्राम करने लेटते तो मैं पद-संवाहनके बहाने जाकर बैठती- कोई चर्चा चला देती। उन्हें तो अपने सखाकी चर्चाका बहाना भर चाहिये- 'आज क्या क्या किया, कहाँ गये, किस पेड़ चढ़े, कन्नूने किसको छकाया, किससे खेलमें हारा, कैसे रूठा, कैसे माना, छाकमें क्या रुचा उसे, कैसे थकनेपर सबने लेटनेको विवश किया, किसकी गोदमें सिर था, किसकी गोदमें पाँव, कौन व्यजन कर रहा था, कौन गा रहा था और कौन ताल दे रहा था, कैसे उसके पदादलायत नेत्र अध मूंदे हुए, कैसे वह सुन्दर उदर- वक्ष ऊपर-नीचे होता है, कैसे हस्तकमल है और कैसे पदतल, कैसी ऊँगलियाँ, कैसा हास्य और कैसी मुस्कान, कैसे वह नासिकाग्रपर दृष्टि जमाकर किसी मुनीका अभिनय करता है....।' असंख्य लीलायें और अनन्त है उनका वर्णन कभी-कभी सम्पूर्ण रात्रि कैसे व्यतीत हो गयी ज्ञात ही नहीं होता। वे वैसे ही लीलाओंका वर्णन करते रहते और मैं मरुस्थलकी प्यासी धरतीकी भाँति श्रवण करती रहती। अब.... अब.... तो वह सुख भी छिन गया है, उन्हें स्वयं अपना ही

ध्यान नहीं रहता मुझे क्या सुनायेंगे । 'मैं उस दिन वही गिरिराजके नीचे ही प्राण त्यागकर पायी होती तो आजकी यह दारुण व्यथा मेरा भाग न बनती, पर बचे दिनोंके दर्शनोंका लोभ न झेल सकी। अब तुम्हीं कहो बहिन! व्रजमें मुझ-सी अभागिनी अन्य कौन है ? किस सुखके लिये देह रखूँ? जिसे उन्होंने त्याग दिया, उसे कौन स्वीकार करेगा ? किससे कहूँ अपनी व्यथा ? सुनकर कौन न धिक्-धिक् कर उठेगा ? न करे धिक्-धिक्, दया-उपेक्षा ही तो मेरा भाग बनते हैं। न जाने कलि आनेमें कितने युग बाकी है ? कहाँ जन्म मिलेगा, कैसे पुनः अपना स्थान पा सकूंगी? कुछ भी नहीं जानती कि क्या करूँ, किससे पूछूं?'

सचमुच मैं अपने ही दुर्भाग्यको सर्वोपरि मानती आ रही। पर इसके दुर्भाग्यकी तो कहीं समता ही नहीं है जैसे क्या कहकर धीरज बंधाऊँ इसे ? कुछ न कहनेसे तो यह ग्लानिके मारे मर ही जायेगी- 'सुन बहिन! यह देह, यह मन उनके हुए, वे जैसे चाहें इनकी व्यस्था करें। जैसे रखें। तुम कौन हो इन्हें त्यागने और रखने वाली ? अपनी ओरसे कुछ भी थामें मत रहो, सब छोड़ दो उनपर जैसे रखें, रहो। उनकी प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता मानो। वे अभी नहीं मिलना चाहते तो प्रतिक्षा करो। हम सबको प्रतिक्षा ही तो करनी है उनकी, उनकी कृपा की सबके पास अपने-अपने अनुभव है बहिन! वह उनकी सम्पदा है, इस सम्पदाके आश्रय वे ये प्रतिक्षाके कुछ दिन व्यतीत कर पायेंगी।'

'किंतु मैं किसके आश्रय ? आशाका झीना-सा तार भी तो हाथमें नहीं, जिसे थाम युगोंका अन्तराल पारकर जाऊँ।'– उसके रुदनका बाँध फिर कूल तोड़कर बहने लगा।

'सुन माधवी! तूने जो सुना, जो देखा वही तेरा पाथेय है। ये लीलास्थल देख! यहाँकी धूलि ले। श्रीकिशोरीजी हम सबकी आश्रय है। उनकी चरण शरण सब विपदाओंसे पार कर देती है। तू उन्हीं चरणोंका आश्रय ले। सखियोंकी बातें सुन और अपना धन बढ़ा। मुझे भी अपने जैसी ही मान बहिन! अन्तर इतना ही है कि जो कुछ तूने जानबूझकर किया, वह मैं अनजानेमें कर बैठी। मैंने तुझे वचन दिया है कि मैं तेरी सहायता करूँगी। ले; कलिमें या कहीं भी जहाँ तू जायेगी, मैं तेरे संग चलूँगी; बनेगी सो सेवा करूँगी और सदा साथ बनी रहूँगी। बस, अब व्याकुल न हो।'🌹

'यह.... यह.... क्या... कह रही हो चम्पा बहिन! मुझ अभागिनीके लिये इतना त्याग ?'– माधवीने अपना सिर मेरे पदोंपर रख दिया। 

मैंने उसे बाँहों में भर लिया-'सब अपनी-अपनी कमायी खाते हैं बहिन ! कोई किसीके लिये भला क्या कर पाता है ? केवल उनकी करुणा ही सबको आश्वस्त करती है। अब उठ जा बहिन! चल तुझे किशोरीजी के समीप ले चलूँ। अपने को उनके चरणोंमें समर्पितकर देना बस आगेकी सारी व्यवस्था वे संभाल लेंगी। मेरे पास क्या है जो समर्पित करूँ? वे स्वयं ही इस
अभागिनी को अपना लें तो....।'💙

'तू उठ जा।'– मैंने आश्रय दे उसे उठाया, साथ-साथ ही माधवी बार-बार संकोचसे मरी जा रही थी— 'मैं इस योग्य कहाँ हूँ कि

श्यामसुन्दर भी जिनकी चरणरजकी स्पृहा करें, उनके सम्मुख जाकर खड़ी होऊँ।' 'तू एकबार मेरा कहना मान ले।'- कहते हुए मैं उसे श्रीकिशोरीजी के समीप लाई।🌹

श्रीकिशोरीजीने उसे प्रणाम करते देख पूछा-'यह कौन सखी है चम्पा ! कभी देखा नहीं यहाँ ?'

मैं.... मैं.... आपकी दासी हूँ श्री जू ! – रुदनसे टूटते स्वर में माधवी बोली- 'मैं.... महा.... अधम हूँ।'

'ऐसा मत कह सखी! हम सभीका आश्रय उनका स्मरण है। प्रतिक्षाके अतिरिक्त उपाय ही क्या है? सब साथ रहकर कालकी प्रतिक्षा करें। हमारी तो श्यामसुंदरके अतिरिक्त अन्य गति नहीं! विस्मरण ही विपत्ति है, हम सब

एक ही है। '

"आप कृपा करके मुझे अपना लें।' माधवीने चरण पकड़े। "तू तो मेरी ही है बावरी! अपनी वस्तुका क्या अपनाना!'- कहकर उसके सिरपर हाथ रखती हुई श्रीकिशोरीजी बोली—'फिर चम्पा भी तो तेरे साथ है। बड़े भाग्यसे ही ऐसा साथ मिलता है; ले.... उठ!' माधवीकी आँखें चम्पाकी ओर देख मुस्करा उठीं। 'अपनेजनोंको वे कभी निराश्रय नहीं छोड़ते-कहते हुए मैंने किशोरीजी संकेतसे उसकी बाँह थाम ली।🌹

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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