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।।श्रीहरिः।।

सखाओं का कन्हैया

( ठाकुर श्रीसुदर्शनसिंहजी 'चक्र')
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         (4) अपनों का ही  

          'सुना कि कोई बहुत बड़ा मल्ल आने वाला है।' गोपियों को गोपों को, सबको ही कोई बात, कोई बहाना चाहिये जिससे नन्दनन्दन उनके समीप दो क्षण अधिक ठहरे। यह चपल कहीं टिकता नहीं, इसलिए इस गोपी ने कोई बात निकाली है।
          'मल्ल ? मल्ल तो अपना विशाल दादा है।' कन्हाई को ऐसी कोई विशेषता नहीं ज्ञात जो उसके सखाओं में उसे न दीखे। संसार में कहीं और कुछ भी विशिष्ट गुण-कर्म किसी में सम्भव है, यह बात यह सोचना ही नहीं चाहता।
          'एक बड़े भारी तपस्वी भी आज महर्षि शाण्डिल्य के आश्रम में आने वाले हैं। श्यामसुन्दर की रुचि मल्ल में नहीं है तो गोपी को कोई और समाचार सोचना ही चाहिये।
          'तू जाकर मैया को बतला दे!' नन्दनन्दन स्वयं क्या करे तपस्वी का। मैया बाबा को कह देगी। बाबा जाकर उनका सत्कार कर आवेगे अथवा मैया उन्हें भवन में बुलाबेगी तो वह भी प्रणाम कर लेगा।
          'तू कहाँ जा रहा है ?' गोपी ने पूछा।
          वरूथप के यहाँ। गोपाल को कब कौन-सा सखा स्मरण आ जायेगा, इसका कोई नियम तो है नहीं।
          वहाँ मत जा, वरूथप अच्छा नहीं है। अब गोपी चाहती है कि कृष्ण खीझे और झगड़ने के लिए ही सही, कुछ क्षण रुके।
          'वरूथप तो अच्छा है–बहुत अच्छा। मोहन खीझ गया–'तू अच्छी नहीं है।'
          'मैं क्यों अच्छी नहीं हूँ ? मुझमें क्या बुराई है ?' गोपी को तो बात बढ़ानी है।
          'वरूथप ने तेरा क्या बिगाड़ा है ?' कृष्ण कुछ रोष से ही पूछता है–'तेरी चोटी खींची थी या तेरी गैया ले गया।
          'वह तो मोटा है और अकड़ता कितना है ! तुझे डाँटता भी तो है।'
          'तू सींक जैसी पतली है। कंजूस है और.....। कन्हाई सोचने लगा है कि इस गोपी में और कितने दोष वह गिना सकता है। उसके सखा में–उसके अपनों में कोई दोष निकाले, यह इसको सहन नहीं है।
          'तुझे डाँटता नहीं क्या ?' गोपी हँसती जा रही है।
          'तब क्या हुआ ? मेरा सखा है मेरा भैया है।' श्याम तो ऐसे कह रहा है जैसे वरूथप का डाँटना उसे प्रिय लगता है–'वह अच्छा है, बहुत अच्छा है।
          'उहँ, वह घमण्डी है।' गोपी हँस रही है। इस नटखट को खिझाने में भी आनन्द है।
          'तू घमण्डी है। तू गन्दी है। तू आलसी है ! तू। कमलमुख कुछ अरुण होने लगा है–'मैं तुझसे नहीं बोलूँगा।'
          अरे लाल ! सुन तो। मैं तो हँसी कर रही थी। गोपी चौंकती है। यदि यह इस प्रकार रूठकर चला गया तो सचमुच इसके द्वार की ओर ही नहीं आवेगा–'वरूथप सचमुच बहुत अच्छा है। उसे लेकर तू इधर ही आना। मैं तुम दोनों के लिए मीठा माखन निकाल रखूँगी।'
          :उसके घर में माखन नहीं है क्या ?' अभी कन्हाई की झुँझलाहट गयी नहीं है।
          'मैं उसे मनाऊँगी कि वह मेरे सुदेश का तनिक ध्यान रखा करे।' गोपी का स्वर अनुनयपूर्ण हो गया–'सुदेश दुर्बल है और तेरा भी तो छोटा सखा है।
          'कहाँ है वह ?' कन्हाई को इस गोपी के पुत्र से अभी मिलना है–'मैं उसे ले जाऊँगा अपने साथ।
          'वह तो कहीं खेलने चला गया। गोपी तनिक सोचकर कहती है–'तेरे भवन ही तो जाता है। तू अभी भवन से नहीं आ रहा है ?'
          'मैं उसे ढूँढ़ लूँगा। कन्हाई को अब इस सखा को ढूँढ़ना है। यही ढूँढ़ता है। अपनों को ढूँढ़ता ही रहता है। कोई भटक जाय, कोई कुछ दूर हो जाय तो नन्दनन्दन उसे ढूँढ़ लेता है, पुकार लेता है या स्वयं उसके पास दौड़ जाता है। अपनों के लिए यह सदा सचेष्ट, सचिन्त; किन्तु जो इसके नहीं हैं, वे मल्ल हों या तपस्वी, योगी हों या याज्ञिक, कृष्णचन्द्र के मन में उनके लिए–उनको देखने के लिए कोई जिज्ञासा, कोई कूतूहल नही।
          'तू किसका है ?' बाबा पूछे या मैया, दाऊ दादा पूछे या कोई सखा, प्रायः वृद्ध गोप, गोपियाँ भी पूछते ही हैं।
          'तेरा ! कन्हाई का एक बँधा उत्तर है। वह अपनों का–अपनों का ही है। अब सुदेश तो उसका सखा है और उससे मिलने ही उसके भवन गया है तो कन्हाई अन्यत्र कहीं कैसे जा सकता है। सुदेश उसे नहीं पावेगा तो ढूँढता भटकेगा–सब तो उसे ढूँढ़ते नहीं भटकते। सब भटकते हैं; किन्तु पता नहीं क्या-क्या ढूँढते भटकते हैं। भाग्यवान हैं वे जो कन्हाई को ढूँढते भटकने को उद्यत हुए। उन्हें श्याम ढूँढ लेगा, उनके लिए वह स्वयं भटक लेगा।
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          'तू तो मैया का है। एक दिन ताऊ उपन्दजी ने तब हँसकर कह दिया, जब बाबा के पूछने पर श्यामने कहा–'तुम्हारा !'
          'मैया का, बाबा का, तुम्हारा।' मोहन बाबा की गोद से उठकर ताऊ की गोद में जा बैठा और दोनों भुजाएँ उनके कण्ठ में डाल दीं।
          'तो तू सबका है ?' उपनन्दजी के नेत्र भर आये। शरीर पुलकित हो गया। नन्दलाल को हृदय से लगाकर उसके अलकों से घिरे मुख की ओर देखते किसी प्रकार कहा उन्होंने।
          'सबका ? नहीं तो।' कन्हाई ने सिर हिला दिया। सचमुच वह सबका कहाँ है ? वह अपनों का है–अपनों का ही है।

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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