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*🌹💙सखियों के श्याम💙🌹* 

 *(12)* 

 🌹 *घनश्याम बड़ो कि श्यामघन सखी री* 🌹

'यहाँ क्यों खड़ी है माधवी ?"

'कुछ कहना है!'

"किससे ?"

'श्यामघन से।'

'अहा हा, बलिहारी तेरी बुद्धि की! श्यामघनसे बात करनी है इसलिये बरसानेसे यहाँ तक दौड़ी आयी है। वहीं बात नहीं हो सकती थी ?"☺️

'तुम समझते नहीं कान्ह जू!
 मैंने बात तो वहीं प्रारम्भ कर दी थी; किंतु घन तो तुम्हारे दर्शनको आतुर दौड़ते आ रहे थे। इसी कारण मुझे भी इनके संग दौड़ना पड़ा।'☺️

'यही सही! तू मुझे बता दे अपनी बात, मैं कह दूँगा स्यामधन से तू कहा तक दौड़ती रहेगी इनके संग-संग ?'🌹

बड़ी गुप्त बात है श्यामसुंदर! 
किंतू में शीघ्रतामें समझ नहीं सकी कि संदेशा घनश्यामके लिये है कि स्यामघन के लिये। हमारी स्वामिनी दोनों ही को देखकर व्याकुल हो जाती है।'🌹

"ऐसा कैसे हो सकता है सखी दोनोंमें से एक आश्रय और दूसरा आश्रयण होगा न।'

'यही तो मुझे समझमें नहीं आता श्याम जू!'🌹



'सुन सखी! स्यामघन तो गरजना और बरसना ही जानता है। किंतु घनश्याम मोहना और मोहित होना भी जानता है।'🌹💙

'नहीं श्यामसुंदर! 
दोनों ही काले हैं, दोनों सुहावने, 
दोनों प्राण-संजीवन, दोनों चंचल, 
दोनों गगन विहारी और 
दोनों तड़िताम्बरधारी हैं। 
रही मोहनेकी बात, सो सुनो! क्या चातक और मोर मोहित नहीं होते ? क्या धरा पर मोहित होकर ही नहीं बरसता घन ?'☺️

'किंतु सखी! घन क्या सब प्राणियोंको मोह लेता है ?" 🤔

'क्यों नहीं! जैसे ही घन गगनमें छाये कि सब प्राणी आनन्दमग्र हो जाते हैं।'🌹

'तो सखी! जब इन्द्रने जल बरसाया; गगन काले काले बादलोंसे भर गया तब क्यों नहीं आनंद मनाया तुम लोगों ने; क्यों इधर-उधर भाग खड़े हुए
सबके सब ?" 

'वह तो इन्द्रका कोप ही घनका रूप धारण करके आया था। 
श्यामघन ऐसा निर्दय नहीं है।'🌹

'अच्छा सखी! और जो चातकपर पानीके बदले पत्थर बरसाता है, सो
कौन है ? "☺️

'तो कान्ह जू, 
घनस्याम भी कुछ कम नहीं हम गोपियोंको दर्शन बिना तरसा मारता है।💙 मेरा मन तो तब भरे जब कोई एक दूसरेके अधीन हो जाय उसकी श्रेष्ठता स्वीकार कर ले। '

'यह कैसे ज्ञात होगा कि एकने दूसरे की आधीनता मान ली है।' ☺️

'जो श्यामघन अभी गगनमें आकर धीमे धीमे गरजते हुए बरसने लगे तो मैं समझ जाऊँगी कि ये घनश्यामसे प्रेम करते हैं।'🌹💙🌹

'अच्छी बात है सखी।' 🥰

कहकर श्याम जू ने फेंटसे बंसी निकाली तमाल मूलसे लगी चट्टानपर बैठकर उससे पीठ टिका ली। 
बंसी अधरोंसे लगायी, 
नयन अर्धनिमिलित हुए, 
ग्रिवा बायीं ओर तनिक झुक गयी और कुण्डलोंने दौड़कर कपोलोंका चुम्बन किया, 
सुकोमल उंगलियाँ बंसीके छिद्रोंपर नृत्य करने लगी और मधुमय-स्वर लहरोंसे चर अचर और अचर चर होकर अपनपा खो बैठे। 🌹
मैंने धीरेसे आगे बढ़कर उनके चरणयुगल अपनी क्रौडीमें ले लिये।💙
 न जाने कब मैं उस स्वर-माधुरीमें बह गयी। जब चेतना लौटी उनका वाम कर मेरे मस्तकपर धीरे-धीरे घूम रहा था।

‘माधवी।'–💙

मधुमय स्वर सुनकर आँखे खुली तो देखा गगनसे झरे दिव्य पुष्पों से धरा रंग-बिरंगी हो गयी है। हल्की फुहार अभी विरमित नहीं हुई है। घन मृदुमन्द-स्वरमें मृदंग बजा रहे हैं, धरा और गगन-सम्पूर्ण सृष्टि मानो महोत्सव मग्न हो। 
घूमकर दृष्टि पुनः उस विश्वविमोहन मुखपर जा टिकी हृदयमें बिजली सी चमकी, मुख से गहरी कराह निकली और मैं व्याकुल होकर चरणोंसे लिपट गयी नयन निर्झर बनकर पद पखारने लगे।💙

'क्या हुआ माधवी ?'
 उन्होंने उठाकर मेरे आँसू पोंछे— 

'तू तो परीक्षा ले रही थी कि स्यामघन और घनश्याममें कौन श्रेष्ठ है। 
रोती क्यों है? मेरी विजय तुझे अच्छी नहीं लगी?'


 'तुम तो सदा विजयी हो प्राणधन! 💙🌹घन तो सदासे तुम्हारा दास है। ☺️
मैं क्या
परीक्षा लूँगी भला! इसी बहाने तुम कुछ समय सम्मुख ठहरे रहे; अदर्शनसे
आकुल दग्ध मन थोड़ी शीतलता पा जाय, इसीलिये सारी गोपियाँ तुम्हें
खिजाती, चिढ़ाती और बातोंमें अटकानेका प्रयत्न करती हैं।'☺️🌹 

श्याम हँस पड़े, मेरी पीठपर थाप देते हुए बोले- 🥰
'बहुत चतुर हो री तुम सब ! मैं भोला छोरा कुछ समझ नहीं पाता, इसीसे तुम्हारी बातों में आकर जैसे तुम नचाती हो, नाचता जाता हूँ चलो अच्छा हुआ! अब तो तेरी इच्छा पूरी हो गयी न, अब संदेशा कह।'☺️

मैं चौंक पड़ी, कितना विलम्ब हुआ। हाँ, प्रतीक्षा करती सखियोंके प्राण कंठमें आ सामाये होंगे और स्वामिनी जू की व्याकुलता स्मरण करके तो मन पश्चातापसे झुलस उठा। मुख नीचा हो गया, दुःख भरे स्वरमें बोल फूटे

 'मैं महास्वार्थी हूँ कान्ह जू! और इस कार्यके योग्य नहीं! अपने आनन्दमें उन
सबकी पीड़ा भुला बैठी; गिरिराज निकुञ्जमें तुम्हारी प्रतीक्षा हो रही है। 'अभी ?'🌹💙
'सूर्यपूजाके पश्चात।'

"तुझे कुछ चाहिये ?' वे मेरे केशपाश बाँधते बोले- 'मुझे तेरे केश बड़े अच्छे लगते हैं सखी।'🌹

'यह मेरा सौभाग्य ! यों व्रजमें ऐसा क्या है जो तुमपर न्यौछावर नहीं!🌹

अब तुम चलो कान्ह जू! बहुत विलम्ब हुआ।' 

'अच्छा सखी! तो जाऊँ मैं?'☺️

 मैंने 'हाँ' में मस्तक हिला दिया और देखती रही वह मनोहर चाल, 
फहराता पीतपट, 
लहराते केश और ललित गतिसे उठते-पड़ते चरणयुगल । नयन ओट होते ही मैं लोट गयी उस चरण रज पर।💙

श्यामसुंदर!
 तुम पूछते हो जाऊँ ? 
त्रिलोकीमें किसकी जीभ लोहेकी है, जो तुम्हें जानेकी अनुमति देते हुए लड़खड़ा न जाय।
 मेरे प्राण! तुम नयन भूषण हो, तुम्हारे जाते ही जगतमें अँधेरा हो जाता है। मेरी ही बात नहीं, यह चराचर साक्षी है। इन वृक्षोंसे, इन पत्थरोंसे और इस धरित्रीसे पूछो इन मृग वधुओं, जलचरों और इन केहरी शावकोंसे पूछो। 
श्याम जू! 
तुम्हारे बिना सबके प्राण छटपटाने लगते हैं। यह देखो सबके आकुल-व्याकुल नयन तुम्हें खोज रहे हैं। 
धरा और गगन सबके रोम-रोमसे एक ही पुकार सुनायी देती है- 
'श्यामसुंदर कहाँ हो.... श्याम सुंदर आह!'💙

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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