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।।श्रीहरिः।।

 सखाओं का कन्हैया

(ठाकुर श्रीसुदर्शनसिंहजी 'चक्र')
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           (6). न्यायशास्त्री

          'अरे, तूने फिर ये कपि एकत्र कर लिये ?' माँ रोहिणी जानती हैं कि इस नीलमणि के संकेत करते ही कपि ऊपर से प्रांगण में उतर आते हैं। उन्हें डर लगता है, कपि चपल होते हैं और यह कृष्णचन्द्र बहुत सुकुमार है। यह भी कम चपल नहीं है। चाहे जब कपियों के बच्चों को उठाने लगता है। उस दिन मोटे भारी कपि के कन्धे पर ही चढ़ने लगा था। कपि चाहे जितना इसे मानें, अन्तः पशु ही हैं। वे इसे गिरा दे सकते हैं।
          माता बार-बार मना करती हैं कि–'कपियों को प्रांगण में मत बुलाया कर ! मैं इनके लिए भवन के ऊपर रोटी फेंक दिया करूँगी।' लेकिन श्याम मानता नहीं है। माता और मैया यशोदा के तनिक हटते ही हाथ हिलाकर कपियों को बुला लेता है।
          ये कपि भी तो कहीं जाते नहीं हैं। पता नहीं कब की कन्हाई से इनकी मित्रता है। रात्रि में भी नन्द भवन के ऊपर अथवा आसपास ही रहेंगे। प्रात:काल होते ही उछल-कूद करने लगते हैं। श्याम के साथ लगे फिरते हैं। यह कही जाय तो सब इसके साथ लगे जायेंगे। फिर कोई एक भी भवन के ऊपर नहीं दीखेगा।
          मैया इनके लिए रोटियाँ टुकड़े करके सबेरे ही डलवा देती है; किन्तु इनको तो कन्हाई के हाथ की रोटी ही खानी है। इनके आसपास कूदना-उछलना है। श्याम और उसके सखा इनके कान खींचे अथवा पूँछ, ये रहेंगे इन बालको के ही साथ।
          'तू बानर बन्धु है ?' मैया यशोदा ने खीझकर अपने लाल से कहा।
          'हाँ !' कन्हाई ने तो ऐसे प्रसन्न होकर यह नाम स्वीकार कर लिया, जैसे कोई बड़ी उपाधि मिल गयी हो।
          'छिः ! यह भी कोई अच्छी बात है ?' माता रोहिणी ने श्याम को उठा लिया अंक में।
          'क्यों, अच्छी बात क्यों नहीं है ?' बहुत भोलेपन से कृष्णचन्द्र पूछ रहा है। यह माता की गोद से उतरकर बन्दरों के मध्य जाने को उत्सुक है।
          'बन्दर अच्छे नहीं होते। तुम तो बहुत अच्छे हो।' माता ने स्नेह पूर्वक दुलराया।
          'ये सब तो बहुत अच्छे हैं।' श्याम ने बन्दरों का पक्ष लिया। संसार के दूसरे बन्दर बुरे होते होंगे; किन्तु जो नन्दनन्दन के समीप आते हैं, वे कैसे बुरे हो सकते हैं ?
          'ये बहुत चञ्चल होते हैं और ऊधम करते रहते हैं।' माता ने हँसकर कहा।
          'मैया तो मुझे भी चंचल और ऊधमी कहती है।' माता रोहिणी की गोद में रहकर मैया की ओर देखते हुए माता से उसकी शिकायत करना निरापद है।
          'ये सब तो लुटेरे हैं। चाहे जिसकी वस्तु झपट लेते हैं !' मैया ने दूसरा दुर्गुण बतलाया कपियों में–'और चाहे जहाँ गन्दा कर देते हैं।'
          'माँ ! ये पशु हैं न ?' माता के कपोलो पर दाहिना हाथ रखकर उसका मुख अपनी ओर करके मोहन ने पूछा।
          'हाँ ! ये पशु तो हैं ही।' माता ने कहा–'इसीलिए तो अच्छे नहीं हैं।
          'अपनी गायें, बछड़े, वृषभ भी पशु हैं और वे भी चाहे जहाँ गोबर या गोमूत्र का त्याग करते हैं। वे क्या अच्छे नहीं हैं !' कन्हाई ऐसा तर्क देगा, यह तो मैया ने सोचा ही नहीं था। कोई गोप या गोपी गायों को कैसे बुरा कह सकता है।
          'गौ तो देवता है। वृषभ धर्म है।' मैया ने दोनों हाथ जोड़कर झटपट कहा।
          'कपि भी देवता है।' कन्हाई की यह बात मैया अथवा माता रोहिणी भले न मानें, कोई सर्वज्ञ मुनि होते तो तत्काल स्वीकार कर लेते।
          'देवता भी कहीं दूसरे की वस्तु ऐसे झपट्टा मारकर छीनते-उठाते हैं ?' मैया ने हँसकर कहा।
          'ये खेती तो करते नहीं। हम सबकी भाँति पशु पालन भी नहीं करते और न व्यापार कर सकते है। कृष्णका मुख गम्भीर हो गया–'इनको भी तो भूख लगती है। इनको भी तो भोजन चाहिये।'
          'इसलिए इनको चाहे जिसका भोजन छीन लेना चाहिये या चुरा लेना चाहिये ?' मैया यशोदा ने हँसकर ही यह बात कही।
          'जो बचाकर नहीं रखता, उठाकर सीधे मुख में डालता है, उसके लिए अपना-पराया नहीं है। उसके लिए भोजन की वस्तु केवल भोजन है।' कन्हाई ने कहा–'कोई न देता हो, उसे अपनी मान ले तो भूख लगने पर छीनकर खा लेने में भला दोष क्या है। ये उठाकर सीधे मुख में ही तो डालते हैं। ये कहाँ छीनकर कहीं बचाकर रखते है।'
          'मेरा लाल न्यायशास्त्री हो गया है।' माता रोहिणी ने स्नेहपूर्वक कन्हाई को हृदय से लगा लिया।
          'इसीलिए गोपियाँ इसके ऊधम का उलाहना देने दिन भर आती ही रहती हैं। मैया ने कहा–'इसने अपने बन्दरों से यह न्यायशास्त्र पढ़ा लगता है।
          मैया कुछ कहे; किन्तु परिग्रह-रहित का भोजन-अधिकार है, यह क्या मानने योग्य बात नहीं है ?

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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