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*🌹💙 सखियों के श्याम💙🌹* 

 *( 4 )* 

🌹 *कौन बुझावे इन प्राननकी प्यास* 🌹

'सखियों! मुझे जल पिला दो! तृषासे कंठ सूखा जा रहा है।'

चार-पाँच सखियाँ घाटपर जल भरने आयी थीं, घड़े धोकर रख दिये और सब मिलकर बातें करने लगीं। बातें भी क्या ! व्रजमें कृष्ण चर्चाक अतिरिक्त और चर्चा ही क्या होगी ? तभी श्यामसुन्दरने आकर जल पिलानेका अनुरोध किया। सुनकर देखकर सबके प्राण हरे हो गये।

'यमुनामें अथाह जल है कान्ह जू! पीलो न।'- एक सखी बोली।

'जल तो है सखी! किंतु मेरे पास पात्र जो नहीं! हाथसे लेकर जल पीऊँगा तो सारा जल झूठा हो जायेगा, इसीसे तुम्हारा निहोरा करता हूँ। अपने घड़ेसे जल पिला दोगी तो यश मानूँगा।'

'यशसे क्या बननेवाला है श्यामसुंदर ! कामके बदले काम कर दो, तो कोई बात बने !'

'अच्छा सखी! बता कौन-सा कार्य कर दूँ तुम्हारा ? मेरा मुख प्याससे सूख रहा है।'

'तुम हमारे घड़े उठवा दो और जब तक हम घर न जाय, तब तक तुम यहीं हमारे पास रहो।' 'यह क्या कहती हो! मैं तुम्हारे समीप बैठा रहूँगा तो मेरी गायें कौन फेरेगा? वे इधर-उधर भाग गयीं तो साँझको मैया मारेगी मुझे।'

'तो फिर तुम जल अपने आप पी लो हम जाकर तुम्हारी मैयासे कह देंगी कि कन्हैयाने जमना झूठी कर दी है। अब वह जल नारायणकी सेवा पूजाके योग्य नहीं रहा।'

'अच्छी बात है सखियों! जो तुम कहोगी वही करूँगा; लाओ जल
पिलाओ।'

'नंदा! तेरा घड़ा छोटा है, इससे अच्छी धार बँधेगी।'- सुमतिने नंदासे घड़ा लेकर श्यामकी अंजलीमें जल ढालना आरम्भ किया और अन्य सखियाँ अपनी छूटी हुई चर्चाका सुत्र पुनः थामने लगीं।

'क्या कह रही थी वसुधा! तू?' – इन्दूलेखा जीजीने पूछा।

'कल मेरे बाबाके पास कोई साधु-महात्मा आये थे। वे बाबासे कहने लगे- यहाँ नंदग्राममें परात्पर-ब्रह्मने अवतार लिया है, मैं दर्शनके लिये आया हूँ। वे किसके घरमें अवतीर्ण हुए हैं, कृपा करके मुझे दर्शन करा दो।' वसुधाकी बात सुन सखियाँ मुस्कराने लगीं।

'अच्छा! फिर तेरे बाबाने क्या उत्तर दिया ?'

बाबा बेचारे समझे ही नहीं बोले- 'क्या कहते हैं महाराज; कैसा परात्पर ब्रह्म ! हम तो नहीं जानते वह कौन है कैसा है ? "

साधु घिघियाके बोले - 'अरे भैया ! भगवान् नारायणने अवतार लिया है। मुझे भुलाओ मत, दर्शन करा दो।'

बाबा तो बेचारे अचकचाकर अपने चारों ओर देखने लगे और हाथ जोड़ कर बोले- 'नहीं महाराज! हमको नहीं मालूम। यदि नारायणदेव पधारे होते,

तो हम सब उनकी पूजा करनेको दौड़ पड़ते!" 'साक्षात नहीं भैया ! बालक रूप धारण किया है उन्होंने।'- साधु बोले ।

अब बालक तो महाराज! व्रजकी गली-गलीमें दौड़ते फिरें, न जाने कौनसे नारायणदेव हैं। उनका कुछ अता-पता और चिन्ह बतायें तो कहूँ।'

'सुन भैया! नीलकमल-सा साँवला रंग है, कमलसे कोमल और विशाल नेत्र हैं, घुंघराले केश हैं, छातीमें श्रीवत्सको चिन्ह है, बड़ी मनमोहिनी छवि है देखनेसे तृप्ति न हो ऐसा मनमोहन रूप होगा।'

'ऐसा तो हमारा कन्हैया है महाराज!' बाबा बोले- 'पर वह तो महाऊधमी है; नंदरायके बुढ़ापेका पूत है। पर मनुष्यकी कौन कहे, पशु-पक्षी भी उसे घेरे रहते हैं।'

'बस बस भैया! मैं उनके ही दर्शन चाहता हूँ! कहाँ होंगे इस समय वे आनंद घन?'

'जमुना किनारे चले जाओ महाराज; वहीं कहीं गायें चराता होगा!'

'अच्छा वसुधा! क्या नाम बताया साधु बाबाने ?'

'परात्पर ब्रह्म।'

'यह क्या होता है सखी? - एकने पूछा। 'इनसे ही पूछ लो न!'- सुमतिने जल पिलाते हुए कहा। एकाएक श्यामसुंदरको हँसी आ गयी, मुखमें भरा सारा जल फुहारके

रूपमें घड़ेके भीतर और समीप खड़ी सखियोंपर पड़ा। नंदा खीजकर बोली- 'यह क्या किया तुमने ? मैयाने नारायणकी पूजाके लिये जल मँगाया था, तुमने घड़ा जूठाकर दिया। मैया मारेगी मुझे!'

कन्हाई खड़े हो गये—'मैं क्या करूँ सखी! तुम्हारे परात्पर पुरुषकी व्याख्या पची नहीं, सो उछलकर बाहर आ गयी।' सब खिलखिलाकर हँस पड़ीं। 'लो सखियों! तुम्हारे घड़े उठवा दूँ। मेरी गैया भाग गयी होंगी तो सब सखा पंचायती मार लगायेंगे और नंदा घड़ा झूठा करनेके अपराध में

साँझको मैयासे पिटवायेगी, सो अलग। मुँह क्या देख रही है मेरा ! घर जाकर दूसरा घड़ा भरकर ले जा! नारायण बेचारे झूठे घड़ेके पानीसे नहाकर खिसिया जायेंगे।' 'श्याम ! तुमने तो हम सबको जूठा कर दिया । देखो न, तुम्हारे छोटेसे मुखसे कितना सारा पानी निकला कि हम सबकी सब भीग गयीं।'

किंतु उनकी बात सुननेसे पूर्व ही श्यामसुंदर वंशीवटकी ओर भाग छूटे पटकेके छोर और घुँघराली अलकें वायुके वेगसे लहरा रही हैं। बंसी फेंटमें खोस ली है और दाहिने हाथमें लकुट लिये दौड़े जा रहे हैं। सखियां खड़ी अपलक निहार रही हैं।

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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