16

*🌹💙सखियों के श्याम💙🌹* 

 *(16)* 

 *🌹कहा कहूँ सखी! उन नयनन की बात🌹* 

मेरो पालित मृगशावक बंसी-रव सुनते ही उस ओर भाग छूटा। 
मैं आश्चर्य चकित हो देखने लगी यह आज कौन आ गया हमारे वनमें ? अलगोजा बंसी, तो हमारी भीलपल्लीके अनेक युवा एवं वृद्ध बजाते हैं; किंतु यह अनोखी मिठास, मुझसे अधिक सोचा न गया, पाँव अपने आप उस और उठने लगे। 🌹

बरियायी खींची-सी जाकर एक वृक्ष तले खड़ी हो गयी। आँखें अपने आप अमृत बरसानेवाले स्रोतपर जा टिकीं। ग्वाल-छोकरों और पशुओंसे घिरा वह घनस्याम स्वरूप और कानों में उतरती वह रसधार- दोनों सरितायें नयन तथा श्रवण पथसे चलकर हृदय सरोवरको भरने लगी।💙

जब वह ध्वनि विरमित हुई, तब भी कुछ समय तक मानो कानों में गूँजती रही सचेत हुई तो देखा – गौओं और वनपशुओंसे घिरी खड़ी हूँ। वह पीतपटवारा मेरी ओर निहार कर मुस्करा दिया। लगा जैसे हृदयसे कुछ खिसक (सरक) गया हो। मैं पग-पगपर ठोकर खाती, गिरती पड़ती और छौनेको दुलारती हुई मृगशावक के साथ सूना- हृदय और सूने नेत्र लेकर वापस आयी।

यह मुझे क्या हो गया ? 
मैया-बाबा वनमें मधु संचयके लिये भोर ही को चले जाते हैं। घरका सारा काम मैं ही करती हूँ । झाड़-बुहारीसे लेकर बकरी दुहना, सूखी लकड़ी और कंडोंका संग्रह। मक्का अथवा बाजरीकी राबडी बनाना फिर खा-पीकर बकरियोंको चराने निकल जाती। वहाँ वनमें अपनी सखियोंके संग वन-धातु गेरु, खड़िया और रंग-बिरंगे पत्थर, पक्षियोंके पंख आदि इकट्ठे करके खेलती, हँसती और कभी-कभी झगड़ती भी थी। कैसा चिंता विरहित जीवन था ।
मेरे दोनों भाई मुझसे बड़े हैं, उनका विवाह हो गया है, उन्होंने अपनी अपनी झोपड़ी न्यारी बना ली है। मैं मैया-बाबाकी बढ़ौतीकी संतान हूँ। उनका सारा लाड़-दुलार मुझपर ही बरसता रहता है। मैं भी बस चलते उनका कहा नहीं टालती। किंतु आज मुझे उन साँवरे कुंवरको देखकर जाने क्या हो गया; काम काज, खाने-पीने और खेल कूद का सारा उत्साह समाप्त हो गया। 

जैसे-तैसे काम निपटाकर बकरियाँ लेकर वनमें आयी तो भूरी, जीवी, दीतू, मुंगली, सब दौड़ी आयी खेलने को। मुझे अनमनी देख कहने लगीं-

 'कहा भयो ? कछु मांदगी लग गयी तोकू ?'

'हाँ सखी! मेरो जी ठीक नहीं। तुम सब खेलो, मैं उस वृक्ष तले तनिक सो जाऊँ।'–कहकर उन सबसे पीछा छुड़ाया।

 किंतु सोनेपर भी चैन न मिला, रह-रहकर शरीर काँप उठता और हृदयमें खड्डा-सा पड़ जाता । साँवरे कुँवरकी वे कारी-कारी मोटी अँखियनकी वे कारी भंवर पुतरियाँ उनकी वे अधखुली पलकें और वह चराचरको खींच लेनेवाली चितवन, रह-रहकर हियमें शूल सी चुभ रही थी। किंतु उस पीड़ामें कितना सुख है, इन आँसुओंसे कितनी शांति मिलती है सो कहा नहीं जाता !💙🌹

तभी.... 
तभी वह बंसुरी पुनः बज उठी, 💙
न जाने कहाँसे शरीर में इतनी शक्ति आ गयी कि अपना धूलिभरा मुख लेकर दौड़ पड़ी ,,,
उधर मृगछौना तो मुझसे पहले ही वहाँ पहुँच, उनकी जाँघपर मुख धरकर खड़ा था। एक दृष्टिमें जो दिखा सो दिखा, फिर तो दृश्य जगतमें वही वह भर गया।💙

जब मुझे चेत आया, 
अपनी झोपड़ीमें कथरीपर पड़ी थी। बाबा मैया, दोनों दादा और भाभियोंने मुझे घेर रोना आरम्भ कर दिया था। मैया अपने भीगे आंचलसे मेरा मुख पोंछ रही थी और भाभीके हाथका व्यजन हिल रहा था। 
चेत होते ही मैं हड़बड़ा कर उठ बैठी; यह देख सबके मुख प्रसन्नतासे खिल उठे। मुझे उठते देख बाबाने दोनों हाथ जोड़ सिरसे लगाये-

'जय भोले नाथ!' 

मेरे बाबा महादेव बाबाके पक्के भगत हैं। भोर होते ही नहाकर एक लुटिया पानी महादेव बाबाकी पींडीपर चढ़ानेके पश्चात ही मुख जूठा करते हैं। उनके काँपते कंठकी ध्वनिसे ही मुझे ज्ञात हुआ कि वे मेरे कारण कितने चिंतित हैं।

सुगना! तुझे क्या हुआ मेरी लाली ?' मैयाने ममता भरे स्वरमें पूछा।

 'मैं क्या कहती सखी! कहा- कुछ भी तो नहीं मैया! मुझे सम्भवतः नींद आ गयी थी। कहकर हँसते हुए मैंने मैयाकी गोदमें सिर रख दिया। 

वे सब आश्वस्त हुए। किंतु बहिन! हृदयमें वे अनियारी आँखें जैसे तिरछी होकर अड़ गयी हैं। रह-रहकर कलेजेमें कसक उठती है, में कराहकर रह जाती हूँ।'🌹

'यह कैसी मांदगी लग गयी मिट्टी मुझे ? कोई औषध बता न! इससे तो न जीया जाता है, न मरा ही जाता है।'🌹- सुगना मेरी गोदमें सिर रखकर अचेत हो गयी।

क्या कहकर उसे धीरज बँधाऊ! यहाँ तो 'आपे बामन माँगता औरन को कहा भीख दे' वाली बात है💙। 

मैंने उसे छातीसे लगाकर भरे गलेसे आँसू बहाते हुए कहा–

‘सुगना! धीरज धर मेरी बहिन! जो तेरी दशा है, वहीं मेरी भी है। किंतु हम क्या करें ? हमारी पीड़ाकी औखद कहीं नहीं है। कहाँ हम दीन हीन भील कन्यायें और कहाँ वे व्रजराज कुंवर ! कहाँ चन्द्रमा और कहाँ कांचका टुकड़ा। हमें उनके दर्शन हो जाते हैं, उनकी चरणधूलि मिल जाती है यही बड़ा सौभाग्य है।'🌹

मेरी बात सुन सुगना आँखें फाड़-फाड़कर मेरी ओर देखती रही। फिर अटकते स्वर निकले– 'व्र.... ज... रा.... ज.... कुँ....अ....र...?'🌹

'हाँ बहिन! मैं उनके भवनमें फल लेकर गयी थी। उनकी मैयाने मूल्य देना चाहा, किंतु मैं प्रणाम करके चली आयी। आज उन्होंने कहलाया है मेरे लालाको तेरे फल बहुत रुचे, अतः नित्य दे जाऊँ। इसी कारण पाँच-सात दिनतक मैं आ नहीं पायी तेरे समीप।'

'सखी! मुझसे तो मेरा मृगशावक ही भाग्यवान है। वह तो बंसी ध्वनि सुनते ही निर्द्वन्द दौड़ता हुआ जाकर उनके अंग-से-अंग लगाकर खड़ा हो जाता है। मेरे दुर्भाग्यका कहीं अन्त नहीं! बाबा मैया मुझे देख-देखकर चिंतामें घुले जाते हैं सो अलग।'

'सुन सुगना ! आज तू मेरे साथ फल लेकर राजाके भवनमें चली चल।' - मैंने कहा।

ना सखी! यदि कहीं भवनमें कुँवर जू दृष्टि पड़ गये तो क्या करूँगी! उन्हें देखकर मुझे ध्यान नहीं रहता, कहीं अचेत होकर गिर गयी अथवा पाहन-सी स्थिर होकर उन्हें देखने लगी; तो लोग क्या कहेंगे?🌹 
मेरा तो कुछ नहीं पर वे राजकुंवर हैं न, उनका मान छोटा हो जाय यह तो ठीक नहीं रहने दे बहिन! जो मेरे भाग्यमें होगा भुगतूंगी💙।
 कभी-कभी समय निकालकर मिल लेना, तेरी बातें सुन बड़ी ठंडक मिली।'

'अच्छा बहिन, आऊँगी।'- कहकर मिट्टी चली गयी।

'कालू! तू कितना भाग्यवान है रे, कि उनके समीप जाकर जी भरकर रूप देखे और बंसुरिया सुने। जब जी चाहे उनका स्पर्श भी कर ले।'🌹💙— 
मैं अपने मृगशावकके गलेमें बांहें डालकर बातें कर रही थी। और है ही कौन ? जिससे हृदयकी बात कहकर जी हलका करूँ! मेरे नेत्रोंसे झरती बूँदे कालूका अभिषेक करने लगीं, तो उसने मुख फेरकर अपनी बड़ी-बड़ी आँखोंसे मेरी ओर देखा, मानो कहा-

'थोड़ा धैर्य धर बहिन!'

'कैसे धीरज धरूं मेरे वीर!' 

मैंने भरे गलेसे कहा-

 'मानुष जन्म पाकर मैंने क्या पाया? मुझसे तो तू पशु भला है! मैं क्या करूँ कालू ! कैसे यह मनकी पीर मिटे ? मिट्टी मुझे उनके भवनमें चलनेको कहती थी, किंतु यह कैसे बने। मेरे पैर तो उन्हें देखते ही ढीले पड़ने लगते हैं, दृष्टि धुंधला जाती है, तन-मनकी सुधि नहीं रहती! ऐसेमें वहाँ जाकर क्या होना ? वह राजाका महल है, वहाँ तो बहुत लोग होंगे। मेरे मुखसे कुछ निकल गया, तो सब हँसेंगे नहीं ? मुझे हँसे तो कोई बात नही ! किंतु कालू उन्हें कोई हँसा, तो कैसे सहा जायेगा मुझसे ? ना भैया ना! मैं यही भली।'💙🌹

'अच्छा कालू! तू तो अनेक बार उनके पास हो आया है। बता तो मेरे वीर! उनकी देह-गन्ध कैसी है, उनका स्वभाव कैसा है और कैसी है उनकी बोलनि चलनि ? क्या उन्हें ज्ञात है कि अभागिनी सुगनाको ऐसा रोग लगा है। जिसकी औषधि या तो वे स्वयं हैं अथवा फिर मृत्यु ही इसे शांत कर सकेगी ? हाँ रे कालू ! बिना ही काजल काली उन अँखियोंकी वह अनोखी चितवन, उन आँखोंकी वे टेढ़ी बरौनियाँ, वे तीखे लाल कोए तूने देखे हैं ? कैसी नुकीली हैं वे आँखें! एकबार हृदयमें कटारी-सी उतर जाँय तो जैसे निकलना जानती ही नहीं; भीतर ही भीतर कसकती रहती है। राते डोरोंसे सजी उन काली भंवर आँखोंको देखा है तू ने ? पर नहीं; तू ने देखी होतीं तो क्या ऐसे निश्चिन्त होकर पागुर कर पाता ? खान-पान और नींद भूल बिसर न जाती भला? ☺️
फिर तो उनके संग-ही-संग डोलता केवल । किंतु तुझे कहाँ कोई
बाधा है भैया! दुर्भागिनी तो यह सगुना ही है। 

क्या कहता है रे! वे मेरी पर पहचानते हैं? क्या मेरे कारण ही वह तुझे यहाँ भेजते हैं; तू नहीं आना चाहता? 

'यह सब क्या कह रहा है कालू! भला यह तो कह; उन्हें मेरे बारेमें बताया। किसने?
 क्या,,,,,, तूने कहा ? 
बावरे! यह सब क्या कहनेकी बातें हैं? महाबुद्ध है रे कालू! वे न जाने क्या सोचते होंगे मनमें। वे बहुत बड़े हैं, बहुत बड़े और मैं ?.... 
मैं एक भीलनी ! तूने उचित नहीं किया रे कालू! अब अपना यह लज्जा भरा मुख लेकर यमुनामें डूब मरना होगा। तूने यह क्या किया पगले, यह क्या किया.... !'🌹

'अरे कालू ! तू यहाँ बैठा है रे; मैं तो तुझे ढूँढ़ता-ढूँढ़ता थक गया।' 

'अरे यह कौन है! 
कच्चे गलेकी ऐसी मीठी वाणी किसकी है?
 होगी किसी की मुझे क्या ! कालूसे न जाने इसका क्या काम पड़ गया है कि ढूँढ़ता ढूँढ़ता थक गया बिचारा !'

'कालू! उठ।'

कालू तो सचमुच उठ खड़ा हुआ मैंने खीजकर मुख फेरा उस ढीठको देखने के लिये, जिसने हमारा एकान्त भंग किया। 
मेरी गाली मुखमें ही रह गयी सामने ही कालूके गलेका घूंघरू थामें, दूसरे हाथसे उसका मुख सहलाते वे ही पीतवसन सांवरे कुँअर खड़े मुस्करा रहे थे☺️।
 मैं बैठी-की-बैठी ही रह गयी; आँखें निपट निर्लज्ज होकर उस मोहिनी चितवनमें जा समायी।💙

'ऐसे क्या देख रही है री ! यह मृगछौना तेरा है ? बहुत प्यारा लगता है मुझे।' 

वह सुधास्यन्दि स्वर कानों में उतरा तो नेत्र सहज ही झुक गये। 
अहा! चरण कितने सुन्दर ! तुरन्त खिले दो कमल हों जैसे न जाने क्यों नयन झर उठे मेरे।🌹

'अरी रोती क्यों है ? क्या दुःख है तुझे ?'–

वे वहीं भूमिपर बैठ गये मेरे समीप कालूने उनके कंधेपर मुख धरकर नेत्र मूँद लिये ।

 "क्या हुआ तुझ ? भूख लगी है, फल खायेगी! ले मेरे पास है, खा ले। बहुत मीठा है।' उन्होंने फलको दांतोंसे काटकर खाते हुए कहा।🌹

'अरी तू रह-रहकर काँपती क्यों है? भय लग रहा है तुझे ?
 किसीने तुझे मारा है? 
क्या बात है कह तो! ले, यह फल ले।' उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर फल थमा दिया।💙
अरी यों पाहनकी मूरत जैसी क्यों हो गयी! 
मुझसे रूठ गयी है क्या ? 
मैं तेरा मृगछौना छिनूँगा नहीं! 
आज इससे तनिक छोटा मृगछौना विशाल दादा लाया है कहीं से! उसकी मैया भी संग-संग लगी आयी है। कालूको उससे मिलाने ले जा रहा हूँ; यह वापस लौटकर तेरे पास आ जायेगा, समझी ?'☺️

मैं क्या कहती! 

'अरी बोलती क्यों नहीं! रोती-ही-रोती है। चल और कुछ नहीं तो गाली ही दे दे; पर बोल तो!'🌹💙

मेरे अवश अंग लुढ़क पड़े, उनके सम्मुख धरतीपर औंधी गिर पड़ी।

गलेसे रूंधा स्वर निकला - 

'सांवरे.... कुँअर.... ।'💙

 वे हँस पड़े–'मैं सांवरा हूँ तो तू क्या उजली है सखी ?'☺️🌹

दोनों हाथोंसे कंधे पकड़ उठाते हुए बोले-

 'क्या दुःख है तुझे बोल ! 
किसीने मारा है; किसीने गाली दी है ? किसीने कुछ छीन लिया है? 
मैं तेरा दुःख मिटा दूँगा।' ☺️
मेरा मुख ऊपर उठाते हुए उन्होंने कहा।

 'कुँअर जू!' मैं अटकते हुए बोली- 'मुझे और किसीने दुःख नहीं दिया।'💙

'तो क्या कालूने दिया है ?' वे हँसे–'इसने सींग मारा तुझे ?'

मैंने 'नहीं' में सिर हिला दिया।

'तो क्या मैंने दुःख दिया तुझे ?'

मेरा सिर झुक गया।

 'हाँ' कैसे कहूँ! और 'ना' भी कैसे.... ? 

'ऐं!' 

वे जैसे चौंक पड़े– 'मैंने दुःख दिया तुझे! बोल क्या बात है ?'

 'मुझे मेरे भाग्यने दुख दिया है।'- कहकर मैंने निश्वास छोड़ी।🌹

 'क्या बात है कह; तुझे मेरी सौगन्ध! उधर सखा मेरी राह तक रहे होंगे, तू
फट-फट कह दे ! कोई ढूँढ़ता हुआ इधर आ निकला, तो सारी बात रह जायेगी।'☺️

 'सौगन्ध क्यों धरायी कुँअर जू! तुम्हारी अखियोंने दुःख दिया है मुझे ये देखनेमें बहुत सुन्दर हैं, किंतु कटार से भी अधिक तीखी धार है इनमें! न जाने किस पथसे हियामें उतरकर, आरी-सी चलाती रहती हैं। न देखनेसे चैन है और न बिना देखे चैन मिले!'–💙🌹
एक ही साँसमें सब बोल गयी मैं।

 अब न जाने क्या होगा! 
यह भय हृदयको मथने लगा। 
सौगन्ध न दी होती, तो मरनेपर भी कुछ न कहती!🌹

"क्या नाम है तेरा ?"

"सुगना।"

मैंने डरते-डरते आँखें उठायी।

'ये नेत्र तुझे केवल रुलाते ही हैं! यदि ये न रहें.....

 'स्वामी,,,,,,!' 

मैं आर्तनाद करती उनके चरणोंपर गिर पड़ी-ऐसा दण्ड मुझे न दो स्वामी! मुझे रोनेमें जो सुख मिलता है, वह अबतक हँसीमें कभी नहीं पाया!"🌹💙

'तब तू क्या चाहती है सुगना ? '

 'मैं क्या चाहूँ! मैं समझी नहीं ?"

'अच्छा, देख कर बता!'–वे हँस पड़े।☺️

'बड़े-बड़े महल, हाथीपर बैठे अग्निके समान तेजस्वी पुरुष, चमकते पत्थरों से जड़े आभूषण, रंग-बिरंगे अनेक ज्योतिष्मान पत्थर, उड़ते-फिरते घर, दास दासी, गायें-भैंसे, खेत-खलिहान, कुएँ-तालाब... इतना बड़ा तालाब कि दृष्टि जहाँ तक जाय जल-ही-जल, लहरें पहाड़-सी। दो, चार, पाँच और छः सिरवाले आदमी! सोना, चांदीके बरतन, गहने और अथाह सम्पत्ति जाने क्या-क्या दिखता रहा सपनेमें, जब चेत आया तो वैसे ही कुअँर जू के
सम्मुख बैठी हूँ।'💙

 'कैसा लगा तुझे यह सब ?'– उन्होंने पूछा।

मैं हँस पड़ी-

'सपना बड़ा सुंदर था कुअंर जू! ऐसा सपना मैंने कभी नहीं देखा।☺️

'यह सपना नहीं बावरी ! सच है। इसमें से तुझे जो चाहिये, जो रुचे सो कह, मिल जायेगा।

'सच ?'

"हाँ, हाँ सच! कह तो, क्या चाहिये ? '

'किंतु क्या करूँगी इनको लेकर मैं? बेचारे सब-के-सब पागल कुत्तेकी भाँति दौड़ते-फिरते हैं, कहीं चैन नहीं-सुख नहीं। जिसे सुख समझकर हाथ पसारे, वही दुःखसे लिपट करके हाथ आता है। कोई उनको चाहता नहीं, ऐसे ही हाय-हाय करते दौड़ते-भागते और हांफते हुए एक दिन हाथ पसारके मर जायँ! जो उनका था सो दूसरेका हो गया। जब मरना ही है तो इतना प्रपंच क्यों ? ☺️
किंतु कुँवर जू! तुम मुझे कुछ देनेको कह रहे थे न?"🌹

'हाँ, सुगना! वही तो पूछ रहा हूँ कबसे।'☺️

 'तो कुँवर जू! मुझे ऐसा सपना कभी न दीखे। इसमें से तो कुछ नहीं चाहिये। किंतु,,,,,

'वही कह सुगना!'– वे उत्साह पूर्वक बोले ।🌹

'कुँवर जू!' – मेरे काँपते हाथ उनके चरणोंकी ओर बढ़े, चरणोंको भुजाओंसे बाँधकर, उनपर सिर धरते हुए मैंने कहा- 

'मेरा मन तुममें ही रमा करे, क्षण भर भी इधर-उधर न हो। तुम्हारे दर्शन हों कि न हों, तुम मिलो कि न मिलो! पर मैं तुमसे मिली रहूँ। तुम्हारी ये कमलपत्र सी अंखियाँ सदा ऐसे ही हियमें गड़ी कसकती रहें। यह घाव कभी पुरै नहीं, आँखें कभी सूखें नहीं।'💙🌹

जैसे बिजली चमकी हो ऐसे ही कुँवर जू ने मुझे हृदयसे लगा लिया; 💙
उस आनन्दको सम्हाल सके ऐसा कौन है संसार में?🌹
 मैं अचेत हो गयी।
 चेत आया तब वे गीले पीतपटसे मेरा मुख पोंछ रहे थे।🌹

'सुगना!'– 

उनकी वे सुन्दर आँखें भरी भरी लगीं, उन्होंने काँपते कंठ स्वरसे पुकरा ।

मैं एकदम उठ बैठी—

'क्या हुआ?'

 उन्होंने मेरा मुख अपने हाथों में ले लिया-

 'सुगना! तुने मुझे अपना दास बना लिया।'🌹

'यह क्या कहते हैं स्वामी!
 तुम.... तुम.... कौन हो यह तुम्हारी कृपा से ही मैं जान पायी हूँ। कहाँ तुम, और कहाँ मैं मूर्ख भीलनी दासी 
मैं तुम्हारी जन्म-जन्मकी; ऐसी अनीति मत करो मोहन!'🌹

'एकबार और कह सुगना।'🌹☺️

'मोहन!'- 💙
मेरे नेत्र झुक गये।

'बावरी! मैं जात-पात, ऊँच-नीच, बुद्धिमान और मूर्ख नहीं देखता। मुझे तो प्रेमका नाता ही भाता है। इस रज्जूसे तूने जकड़कर बाँध लिया है मुझे !🌹

इसीसे तू मेरी है और मैं तेरा, 
हम न्यारे नहीं!' 

मैं क्या कहती ? 

एक अज्ञ भीलनी क्षणभरके सानिध्यसे क्या-से-क्या हो गयी। जो ज्ञान ऋषि-मुनि हजारों वर्ष तपस्या करके पाते हैं, वह बिना कुछ प्रीत बड़ी बेपीर
किये सुगना पा गयी। पर इसका भी क्या करेगी सुगना ?

 इसका इस कंकड़से अधिक मूल्य नहीं मेरे पास! मेरा धन तो तुम हो मेरे प्राण गरीबनी बनाकर मत छोड़ जाना! ! मुझे💙🌹

उनके सखा हैं, बाबा मैया और घर-गाँव है, वे उनके समीप गये कि नहीं, मैं नहीं जानती! 
मुझे तो यही ज्ञात है कि वे दिन-रात मेरे ही साथ लगे रहते हैं।।💙

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला