28

🌹💙 *सखियों के श्याम* 💙🌹

 🌹*कहा करूँ कित जाऊँ सखी री* 🌹

 *(28)* 

एक पर्णकूटी, यमुनातट से हटकर वृक्ष समूह से आवृत-सी। उसमें बाँस की खपच्चियों से बना केवल एक ही वातायन छोटा-सा ।

यह अपराह्न से ही वातायन से सिर टिकाकर खड़ी हो जाती। संध्यापूर्व से ही प्रतिचि गोरज मंडित हो जाती और धीरे-धीरे वह प्राणहारी वंशी रव मन प्राण देह को झनझना देता है- उसके प्राण नेत्रों में आ समाते। गौरजघन-पटल पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ता, तब उसमें स्थिर विद्युत सी आभुषणों की चमक काँधने लगती। कुछ क्षण ही कुछ ही क्षण, पर वे कुछ क्षण कैसे कठिन; प्रतिक्षा के अंत का उत्साह, उत्सुकता, आवेग तीव्र अभिप्सा बनकर, प्राणघातक हो रोम-रोम में व्याप्त हो जाती। वातायन की ताड़ियों से टिका सिर, फटे-फटे नेत्र, दोनों हाथों से वातायन की छड़ियों को दृढ़ता पूर्वक थामें वह थरथर काँपती देह को सम्हालने का यत्न करती.... । आह! कितना कठिन है यह देह को सम्हालना..... और तब.... तब जैसे प्राची की कोख से अंशुमाली उदित हुए हों... वह घनश्याम वपु अपनी मंद-मधुर-मादक गति से आगे बढ़ता दृष्टिगोचर होता – देह त्यागकर सम्मुख दौड़ जाने को आतुर प्राणों को जैसे दर्शनौषधि पाकर अवलम्ब मिलता अवलम्ब पाती वह काँपती कमनीय देह दर्शन संजीवनी पाकर।

कभी सखाओं से विनोद करते, कभी इधर मुड़कर फिरकी-सी लेकर एक हाथमें मुरली लिये, दुसरा ऊपर उठाये घूम जाते; कभी कालिन्दी की लहरों-सी उमड़कर हुँकार करती समीप आती गायों की पीठ पर थपकी देते, उनके मुख पर अपना गाल रख हाथों से दुलारते। कभी वे रतनारे दीर्घ दुग अट्टालिकाओं पर शोभित कुमुदिनियों को धन्य करते आगे बढ़ रहे थे। कभी वे प्रवाल अधर वंशी में विविध मूर्च्छनायुक्त स्वर फूँक प्रतिक्षा संतप्त हृदयों को शीतल लेप से जीवन प्रदान करते नंदभवन के द्वार की ओर बढ़ रहे थे।

झरझर झरता नयन निर्झर उसका वक्षावरण आर्द्र करता रहता। धीरे धीरे वह नील ज्योति भवन द्वारमें प्रविष्ट हो जाती और वह अवश-सी भूमिपर झर पड़ती। यह उसकी नित्यचर्या थी। कबसे? यह तो स्वयं उसे भी ज्ञात नहीं! उसे तो लगता है मानो वह युगों से ऐसे ही प्रतिक्षा करती आ रही है। ज्येष्ठकी प्यासी धराकी भाँति प्रतिक्षा ही मानो उसकी नियति है और नित्य ही आषाढ़के प्रथम मेघ-सी कुछ बूंदे प्राप्त होती हैं; जिन्हें पाकर उसकी तृषा द्विगुणित हो दावानलका स्वरूप ले लेती है।

कई सखियाँ जल भरने यमुनाकी ओर जा रही थीं। 'भला इस एकान्त कुटीमें कौन रहता होगा ?'– एक सखीने पूछा। 'कोई साधु बाबा होंगे उन्हीं को तो एकान्त रुचता है। संसारी तो सदा
समूह के ही आकांक्षी होते हैं। दूसरी ने कहा। 'मैं देखकर आती हूँ।' श्रियाने कहा- 'यदि साधु हुए तो तुम्हें भी बुला लूँगी, प्रणाम करके आ जायेंगे। उनके भजन-ध्यान में विन करना अच्छा नहीं होता।'

वह कुटीकी ओर बढ़ी धकेलनेपर द्वार खुल गया, प्रथम कक्षमें कोई नहीं था। वह अन्दर कक्षकी ओर बढ़ी; भीतर झाँकते हुए वह चौंककर दौड़ पड़ी, उसकी प्रिय सखी बेहाल पड़ी थी।

'इला ! इला!! ए इला, नेत्र खोल बहिन! इधर मेरी ओर देख मैं श्रिया हूँ! मैं श्रिया हूँ बहिन!!' एकाएक स्मरण आया- उसे वापस जाने में विलम्ब होते देख कहीं अन्य बहिनें भी न आ जाँय वह वैसे ही उठकर बाहर चली आयी।

'क्या हुआ, कोई है कुटियामें ? " 'नहीं, कोई नहीं।'

गहन निशा में आकर श्रियाने उसे अंक में भर लिया जलपूर्ण पत्र-पूटक उसके सूखे अधरोंसे लगाते हुए भरे कंठसे बोली- 'जल पी इला!'

उसकी अपनी नयन-वर्षा थमती ही न थी; कितने दिनों बाद मिली यह प्रिय सखी! कितना और कहाँ-कहाँ न ढूँढ़ा इसे मैंने ? कितनी बार प्रिया जू ने पूछा, श्यामसुन्दरने पूछा ! पर कहाँ बताऊँ ? काकी तो जैसे बावरी है ! पूछनेपर कहती है- 'अटरिया पै सो रही है लाली! साँझको कन्हाईके आयबेको समय होय, तभी उठके आवै।'

बहुत बहुत प्रयत्नों के पश्चात इला के नेत्र खुले; बाल सखी को पहचान गले में बाँहें डाल वह रो पड़ी।

'कहा भयो इला? मुख तें कछु बोल बहिन, इन आँसुन के जिह्वा नाय!'

'सखी मोकू विष लाय दे कहूँ ते!'- इला हिचकियोंके मध्य बोली। * क्यों ? किसलिये; मरने को ?' – श्रियाने पूछा ।

'मरकर क्या मिलेगा सुनूँ जरा! उठकर बैठ और अपनी बात कह श्रियाने सहारा देते हुए कहा। 'हाँ बहिन ! मरनेपर तो यह सुख भी छिन जायेगा।'

इलाने उसाँस लेते हुए कहा- 'यदि उनकी चरन रज मिल जाय!' 'चरन रजकी का कही; चल मैं तुझे ले चलूँ उनके समीप !' 'ना बहिन! यह मुख उन्हें दिखाने योग्य नहीं है, मुझे ऐसे ही रहने दे | यदि ला सके, तो उनकी चरन रज और चरण धोवन ला दे!'

'फिर मरनेकी बात कही तू ने ?' 'ऐस ही निकल पड़ी मुँहसे। मैं अनन्तकालतक उस वातयन के सम्मुख अवस्थित रहकर जीवित रह सकती हूँ बहिन! तू जा अब ।'

श्रिया बहुत प्रयत्न करके भी इला को मना न सकी, प्रभात से पूर्व वह घर चली गयी। रोती-निश्वासें छोड़ती इला स्वयं को ही न समझ सकी! तो सखी को क्या समझाती कि उसे क्या हुआ है। कभी-कभार गुनगुनाने लगती - ‘मोहे डस गयो री किशन कालो नाग...।' कभी रोते-रोते हँसने लग जाती और कभी हँसते-हँसते स्थिर हो जाती पत्थर की तरह। रात्रि ऐसे ही व्यतीत होती और प्रातः पूर्व ही दौड़कर वह वातायन से लगकर खड़ी हो जाती। उन नवघन सुन्दर के दर्शन का पारितोषिक पाकर नयन मत्त हो जाते; दिन इस नशे की खुमारी में बीत जाता। वह कभी उनकी चाल का अनुकरण करती, कभी मुस्कान-माधुरी के स्मरण में तन्मय हो जाती, कभी उनसे बात करती और कभी स्वयं प्रेष्ठ बनकर इलाको मनाने लगती। भ्रम टूटनेपर विरह-व्याकुल हो - मूर्च्छित हो धरापर गिर पड़ती। साँझ पुनः नयनोत्सवका आनन्द संदेश देती।

आज उसके व्याकुल प्राणोंको औषध नहीं मिली। उसके आकुल नेत्र गौओं-ग्वालबालों के बीच अपनी निधि खोज रहे थे। किंतु अपनी पारसमणि कहीं न पाकर वातायनकी देहरीपर मस्तक टेककर वह फफक पड़ी। कितना समय बीता ऐसे ही कैसे कहा जाय ?

किसी ने कंधे पर हाथ रखा तो वह पलट कर उससे लिपट गयी 'मैं क्या करूँ श्रिया, मैं क्या करूँ ?' रुदन का वेग अदम्य हो उठा। स्नेह सान्त्वनापूर्ण कर सिर पीठपर घूमता रहा। अधीर मनका वेग जब कुछ धीमा हुआ तो रुँधे कंठ से बोली-'समझाती हूँ मन को! कि नित्य दर्शन पा ही ले ऐसा कौन-सा सुकून बल है तेरे पास ? किंतु यह हतभागा हठी मन मानता ही नहीं; इसे तो दर्शन चाहिये-ही-चाहिये। कह तो बहिन! मैं क्या करूँ ? यह अभागा मन न मानता है, न शाँत होता है। यमुनामें डूबने गयी; किंतु आशा मरने नहीं देती। मरनेपर तो यह इतना सा सुख भी न मिल पायेगा। एक समय था जब मैं बड़ी होनेको मरी जाती थी। आज.... आज.... लगता है कोई लौटा दे मेरा वह हीरक जटित बालपन। पर बहिन! उसे लेकर भी मैं क्या करूँगी! इस जले कपालमें सुख लिखा ही कहा है? जहाँपर चर-अचर, छोटे-बड़े, अपने पराये, सभी उन्हें सुख देने, उनपर न्यौछावर होनेके आतुर रहते - क्षण-क्षण प्रयत्नशील रहते, वहीं मैं निरन्तर उन्हें चिढ़ाती। कभी इस जली जीभने दो मीठे बोल नहीं कहे। सदा व्यंग-तिरछा बोलकर दुःखी करती रही। एकबार भी सेवाकी बात मनमें नहीं आई। सदा ही यह चाहिये- वह चाहिये, करो- वह करो, ऐसा क्यों किया ऐसा क्यों नहीं किया करके उन्हें इधर-उधर दौड़ाती डाँटती रही। यही नहीं! बिना थके बिना चोट लगे झूठा प्रपंच करके उनकी पीठपर लद जाती कि मुझे उठाकर ले चलो। उन्होंने सदा मेरी रुचि रखी बहिन!'

'वे इतने सीधे और भोले कि जैसे मैं नचाती, वैसे ही नाचते! जो कहती, सो ही करते सम्पूर्ण व्रज जिनके चरणों में बिछा पड़ता था, उन्हें मैं थका थका देती। तुम सब मुझे समझाती, पर मैं उनपर एकाधिकार जताते न थकती। और जब वह सब समझमें आया, तो मानो ग्लानिका पहाड़ टूट पड़ा... मैं क्या करूँ सखी! मैं क्या करूँ! न जीया जाता है, न मर ही पाती हूँ।' "श्रिया! कुछ तो बोल बहिन; कुछ तो कह, मेरे संतप्त देह-मनको तेरे

स्पर्शसे बड़ी शीतलता मिली। कुछ उपाय बता श्रिया कि प्राणौषधि पा सकूँ। उनकी कुछ बात कर बहिन, उनकी चर्चा कर आज नयन अभागे ही रहे! तू श्रवणोंको धन्य कर दे बहिन....!'

'इला!'- कच्चे गले की वह सुपरिचित वाँछित वाणी के कानों में प्रवेश करते ही इला चौंककर सखी से अलग हो गयी; उसकी मूँदी आँखें खुल गयीं और सम्मुख श्यामसुन्दरको खड़े देख वह लाजके मारे दोनों हाथोंसे मुँह अंत:कक्षमें दौड़ गयी। द्वार भेड़, वह दीवारसे लगकर थर-थर काँपती हुई नीचे बैठ गयी। आह्लाद, ग्लानि और लाजने मिलकर उसे अधमरी कर दिया।

'इला!'–उन्होंने एक हाथसे बंद द्वारको ठेलते हुए पुकारा। द्वार खुल गया, क्योंकि उसमें श्रृंखला थी ही नहीं! वे भीतर आ उसके सम्मुख बैठ गये।

'इला!' एक हाथ उसके कंधेपर रख, दूसरेसे मुँहपर लगे हाथ अलग करते हुए उन्होंने कहा – 'बोलेगी नहीं मुझसे? अभी तो श्रिया समझकर कितना कुछ बोल रही थी ?"

इलाकी लज्जा की सीमा न थी। उसने किसी ओर थाह न पाकर उनकी गोद में मुँह छिपा लिया। उन्होंने हँसकर अंक में भरते हुए कहा-'अच्छा ही हुआ कि मुझे श्रिया समझ कर तू ने हृदय की बात कह तो दी; अन्यथा भला मैं भोला-भाला समझता ही कैसे? मैं तो सदा तुझे प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करता; तेरा रूठना, लड़ना-झगड़ना, सब मुझे अच्छा लगता। कोई अपनों से ही तो लड़ता है— रूठता है। तुझे रूठे से मनाना मुझे बहुत भाता था। अभी भी तो यही समझ रहा था कि तू रूठ गयी है, मैं मनाऊँ भी तो कैसे! तू मिल ही नहीं रही थी। काकी से, काका से, श्रिया से, प्रियाजू से; सबसे पूछकर हार थका; कोई ठीक-ठीक बताता ही नहीं था। मन न जाने कितनी आशंकाओंसे भर गया था कि कहीं सचमुच ही तो नहीं रूठ गयी तू? तुझे क्रोध बहुत आता है; मेरी किसी बात पर चिढ़कर यमुना में तो नहीं जा पड़ी ?

'तू लड़ती है, मैं तुझसे ब्याह नहीं करूँगा।' यह कहने पर तू सन्यासिनी बनने की धमकी देती थी! सो मुझे भय हुआ कहीं सचमुच तो सन्यासिनी नहीं हो गयी ।

किसीसे कुछ कह भी नहीं पाता, अपनी ही समझ के अनुसार खोजने का प्रयत्न करता। आज प्रातः गोचारण को जाते समय श्रिया ने बताया कि तू यहाँ है। तूझे पाकर ऐसा लगा मानो प्राण ही पा गया हूँ। अब मुझे छोड़कर कहीं ना जाना....।'

दोनों हृदयों में कहीं ठौर न पाकर लज्जा प्राण लेकर भाग छूटी। इला ने निश्चिन्त हो अपने प्राणाधार के वक्ष पर सिर टेक नेत्र मूँद लिये। 'मैं...... तु. म्हा... री ' आनन्दातिरेक में स्वर खो गये।

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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