20

*🌹💙सखियों के श्याम💙🌹* 

*(20)* 

 *🌹अनाम अनुभूति🌹* 

कौन है यह ? कहाँसे इस पथपर कहाँ जानेके लिये कब आयी थी और अब दिग्भ्रमित सी रह-रहकर चारों ओर दृष्टि पसारकर किसे खोज रही है? कभी अधीर हो इस दिशा और कभी उस दिशाकी ओर दौड़ पड़ती है। कभी आत्महारा-सी बैठती अथवा गिर पड़ती है।

सम्भवतः वह स्वयं नहीं जानती कि क्या कर रही है। उसे तो केवल
इतना स्मरण है कि — ' क्षण मात्रमें उसके जीवनमें प्रलय घटित हो गया, कैसे भला ?
 उसके स्मृति पटलपर केवल दो आकर्ण-चुम्बित कारे-कजरारे दीर्घ दृग हैं। उसके आगे-आगे चलनेवाले किशोरने मुड़कर उसकी ओर देखा; और बस थम गयी सृष्टि 
आह! क्या था उस दृष्टिमें कि क्षण मात्रमें उसके सुखी संसारमें प्रलय उपस्थित हो गया ?"🌹

आशा, अभिलाषा, हँसी-खुशीको निर्दयता पूर्वक मिटाकर हृदयमें उतार दी गहरी पीड़ा भरी कसक, जो न जीने देती है और न मरनेका ही अवकाश प्रदान करती है। उस दृष्टिके आघात; हाँ आघात ही तो कहना होगा। यद्यपि इस आघातकी अनुभूति इतनी सरस स्निग्ध, कि सम्भवतः सृष्टिको सम्पूर्ण कोमल अनुभूतियाँ इसकी समतामें हार जाय !🌹

हाँ, तो उस दृष्टिके आघातसे घायल वह भरभराकर बैठ पड़ी; बैठी अथवा गिरी कहा नहीं जा सकता, किंतु इस क्रियाके मध्य ही एक मधु मुस्कानने उसके सद्यः लगे गहरे घावपर क्षारका गाढ़ा लेप कर दिया। हृदय आर्तनाद कर उठा, पर दृढ़तासे भींचे अधरोंके पीछे ही वह घुट गया, 
'आह' का हल्का-सा स्वर भी उन कपाटोंका अतिक्रमण नहीं कर सका।

उस सहायक विहीन प्रदेशमें पीड़ासे छटपटाते हृदयपर हाथ धर वह घुटनों में सिर दे सिसक पड़ी। 
किसे कहें?
 वहाँ था ही कौन ? 
कोई होता भी तो क्या कह पाती ? और सान्त्वना ? नहीं; 
मरणकी विभिषिका उससे कही अधिक सरल सह्य होगी।

यों भी सिरपर तना नील वितान-सा गगन, हरितिमा संकुल वसुधा और समीप ही प्रवाहित सरिताकी नीलधारा ही उसकी इस लज्जाजनक स्थितिके मानो साक्षी है। उस एक ही क्षणमें मानो उसका अस्तित्व लोप हो गया। अविराम चलती साँस और हृदयकी धड़कन भी जैसे थम गयीं। मन-बुद्धि किस ओर भाग छूटे जाननेका कोई उपाय नहीं रहा। उस अनाम पीड़ासे अवश हो वह धरणीपर लोट गयी।

कितने समयतक वह ऐसी अर्ध चेतनावस्थामें पड़ी आँसू बहाती रही, कौन बताये ? 
धीरेसे उसने सिर उठाया, 
अनायास बहे आँसुओंसे पुनीत हुए। रजकणोंने उसके मुखपर विचित्र - सी अल्पनाका चित्रण कर दिया था।💙

अहा हा इतने पर भी इस भलि धसरित, असता जदय, वाह-दग्ध और
मलीन अवस्थामें भी यदि कोई उसे देखता तो निश्चित ही सुन्दरी कहता।

वस्त्रों के धानी रंगमें उसका अपना वर्ण भी घुल गया था। वे काले विशाल नेत्र अवश्य ही किसी मृगवधूका सरस उपहार रहे होंगे, जो निरंतर मुक्तादानसे धराको धन्य कर रहे थे। उसके नखशिख वर्णनके समय कवि अवश्य ही उपमा ढूँढ़ने में कठिनायी अनुभव करेंगे।🌹

यौवनकी देहरीपर धरनेको उठा हुआ आयुका चरण, स्वभावके भोलेपन, कैशौर्यकी चंचलता और देहकी स्निग्ध-कोमलतासे सहमकर जैसे ठिठक गया हो। अपने महार्घ सौंदर्यसे अनभिज्ञ उसने बड़ी-बड़ी सुकोमल अश्रुसिक्त पलकें उठाकर देखा तो लगा- सम्पूर्ण सृष्टि अग्निमुखव्यक्तग्रास हो ।

किसी ओर त्राण न पाकर असंयत हो उसने मस्तक पुनः वसुधाके वक्षपर धर दिया। देखकर लगता है बड़ी तेजस्विनी रही होगी वह ऐसी आत्महारा दीनता उसके स्वभावके सर्वथा प्रतिकूल ही रही होगी। तभी तो स्वयंको संयत न कर पानेपर भी हृदयसे उठनेवाली असह्य पीड़ा भरी आहों कराहोंको अधरों तक पहुँचनेसे पूर्व ही वह बरबस भीतर ठेल देती है। 

किंतु इन नेत्रों का क्या करे वह.... ? 
ये घर-भेदी तो पलकोंकी आन मानते नहीं। इनसे बरसती ये मोटी-मोटी बूँदे, जो धारा बनकर वक्षावरण भिगोती जा रही है। कैसे रोके इन्हें! कैसे.... ?

तब जैसे अपनेसे ही छिपाने के प्रयासमें अश्रुजलसे भीगे रजकणोंपर सिर धर दिया। 
किंतु यों शांत पड़ा रहना भी कितनों भाग्यशालियोंके भालपर अंकित होता है? उसकी भी भाग्यलिपि इस सौभाग्यसे वंचित ही लगती थी। अतः लड़खड़ाती सी उठी और पथ-पार्श्वमें आ खड़ी हुई। सूने पथपर खोयी दृष्टिसे दूरतक कुछ समय जाने क्या खोजती रही, फिर निराशा थकी दृष्टि लौटकर पथपर अपने ही पदोंके समीप ठहर गयी। पथ वीथिने सम्भवतः उसका उपकार करनेके लिये ही उस निर्मम अहेरीके चरणचिन्ह अपने वक्षपर अंकितकर लिये थे। उन चिन्होंको कृपणके धनकी भाँति बाँहोंमें भर लेना चाहती हो अथवा धराका आभार प्रकटकर रही हो-बाहें फैलाकर वह लोट गयी, उस पदरज पर।🌹

भगीरथ प्रयत्नसे बाँधे गये धैर्यके बाँधको आवेग भरे आँसुओंके पनारोंने ध्वस्त कर दिया। घायल हृदयकी कथा कहती-मरते पशुकै आर्तनाद-सी गहरी घुटी घुटी कराह मुखसे फूट पड़ी। रुदनके वेगसे सुकोमल देह झटके
खाने लगी।

किंतु कब तक?

कैसे ज्ञात हो ? जाननेका कोई उपाय जो नहीं।

कब अंशुमाली देवी प्रतीचिके रागारुण मुखपर झुक गये, कब नवीन प्रणयीसे मयंक सलज्ज निशाका कर थाम तारक खचित व्योम पथपर बढ़ चले। और कितनी बार इनके रागकी आवृत्ति हुई, कौन कहे ?🌹

नेत्रों में आशा, हृदयमें अवसादका भार लिये वह कितनी बार पथके इधर-उधर दौड़ पड़ी ? 
कितनी बार चरणाकिंत रजसे स्वयंको स्नात किया उसमें लुंठित हुई ? 
कितनी बार जड़-सी पथ जोहते बैठी रही? 
कितनी बार आकुल हो पुकार उठनेको तत्पर हुई!
 'किंतु क्या कहकर ?'– 
यह विवशता कितनी बार नेत्रोंसे झर पड़ी? नयन कटारसे घायल वह कितनी तड़फड़ायी और उस मधु-मुस्कानपर मुग्धसे निमिलित नयन कितने समयतक समाधिमें लीन-सी बैठी रही, कौन बताये ?🌹

आह! इस विवशताका, इस हलाहल दुःख भरे सुखका, इस कठिन अवस्थाका कोई तो नाम होगा? 

लज्जाके झीने वस्त्रको निर्दयता पूर्वक फाड़कर चिथड़ेकर देनेवाली, अहंकारको चूर्णकर हवामें उड़ा देनेवाली इस कोमल कठिन अनुभूतिकी कोई तो संज्ञा होगी, जिसने इस कोमलांगी किशोरीको उन्मादिनी बना दिया है।💙

हृदयका दावानल उसके निर्बल प्रयत्नोंसे बुझनेके स्थानपर और भभक भभक उठता है; क्या करे वह.... ? अकस्मात् धक-धक जलते हुए हृदय प्राँगणमें जैसे चंदनपंककी वर्षा हुई; सम्भवतः भाग्यके अधिदेव उसकी दशापर सदय हुए; गहन-काननके अंतरालको भेद मृदु-मंद्र आरोह-अवरोह युक्त सुहाना वंशीरव प्रकृतिको नवजीवन प्रदान करता प्रसारित होने लगा। 
बुद्धिने जाने किधरसे आकर सहायिका स्वांग-सा भरते हुए धीरेसे सूचना दी- उस जीवरक्षौषधिका भी दक्षिण कर वंशी विभुषित था।🌹

वह चमत्कृत-सी उठकर दौड़ पड़ी, उस प्राण-संजीवन स्वरकी दिशामें! दूर; कितनी कैसे कहा जाय ?💙

वे सुकोमल पदतल जो हरित दुर्वा अथवा नवकिसलयोंके स्पर्शसे भी पीड़ाका अनुभव करते होंगे कितनी बार कंटक-बिद्ध हुए, कितनी बार ठोकर खाकर गिरी, कितने क्षत पथ-रोड़ोंने दिये; उसे स्वयं स्मरण नहीं है। उसकी वह झीनी ओढ़नी किस झाड़ीमें फंसकर अपना कुछ भाग उसे ही समर्पित कर आयी- वह नहीं जानती।🌹

प्राणोंकी समस्त चेतना कणमें आ समायी है और आशाका प्रबल प्रभञ्जन उसे उड़ाये-दौड़ाये लिये जा रहा है। एक सघन वृक्षतक आकर चरण स्वतः ही ठहर गये। ध्वनी इसी वृक्षके दूसरी ओरसे आ रही थी, किंतु यह क्या.... !

गन्तव्य जब दो ही पद दूर रह गया - पद भारी होकर मानो धरासे चिपक गये जैसे! जाने कहाँ दुबककर बैठी बैरिन लज्जा और संकोचने उसे अपने बाहुपाशमें जकड़ लिया। प्राण व्याकुल हो हाहाकार कर उठे और वह मूर्च्छित हो धरापर जा गिरी।🌹

ऐसे अवसरोंपर मूर्छा अचूक औषधि सिद्ध होती है। किंतु पीड़ा ही जिसका स्वत्व बनी हो, वहाँ अचेतावस्था कितने समय टिक पायेगी ?

आँखें खुली तो कुछ क्षण लगे यह समझने में कि क्या हुआ है ? वंशीध्वनि विरमित हो चुकी थी, अतः उसे केवल इतना स्मरण आया- 'कुछ था ! जिसके लिये वह व्याकुल हो दौड़ रही थी। '💙

'क्या था वह ?' – स्वयंसे प्रश्न किया उसने

उत्तरमें—'वे रसवर्षी पद्मदलायत दीर्घ दृग, नवपल्लवसे करतल पदतल, मधुमुस्कान और उसके अपने हृदयमें सुलगता धीमा दाह.... ।

' धीरे-धीरे स्मृति पटलपर चलचित्र सा घूम गया सब लज्जाके अंकपाशसे मुक्त हुई तो उठकर चल पड़ी।

किधर ? ज्ञात नहीं!

चार छ: पद बढ़नेपर वह फिर ठिठक गयी दो सघन वृक्षों बीच भूमितलसे उभरी शिलापर वह खड़ा था। हृदय धक्से रह गया। प्राणोंने पूछा- 

'क्या सचमुच ?' 

बुद्धिने मुस्कराकर उत्तर दिया- 'हाँ! 

वही प्राण-प्रलयंकर है।🌹

' 'क्या मेरा ?' उसने चकित हो प्रश्न किया और स्वयं भी उत्तर दिया

'हाँ! मेरा.... मेरा.... मेरा! और मैं उनकी.... उनकी.... भवोभव उनकी....।' 

दृष्टि उठाकर देखा—'वही मंद समीरसे झूमता मयूरपिच्छ, फहराता पीतपट, सिंह शावक-सी कटि, शोभाकी सीमा स्पृहाका लक्ष्य स्थल वक्ष वृषभ स्कन्ध, कम्बु कंठ, सुघड़ सुढार प्रवाल अधरपल्लव....!💙

हृदयगति सीमा लाँघने लगी- देह शिथिल होने लगी तभी दृष्टि उन दोधारी कटार से नेत्रों पर जा टिकी- 

'आ.... ह.... ! वधिक भी क्या इतना सुन्दर मधुर रसमय होता है ? 
प्राणों में विप्लव मचाकर, भगवान् पद्मसम्भव के समस्त परिश्रमपर पानी फेर- उनकी विपणविधिको ही जलाकर रखकर देनेवाला हलाहल कालकूट भी कभी इतना मधुर इतना प्राणोपम प्रिय होता है ?'🌹

हृदय उछलकर बाहर आ कूदनेको मानो आतुर हो उठा प्राण पिघलकर अस्तित्व खोने लगे। मन! हाँ, यह जन्मका बैरी मन! यह कहाँ देहकी दुरवस्था देखता है; यह तो बस ठेलना ही जानता है। किंतु दुरंत लज्जा इससे अधिक बलशालिनी सिद्ध हुई। उसने उठनेको तत्पर पदोंको बाँध लिया।🌹

बुद्धिने तुरंत निर्णय दिया-

 'यह तो विग्रह है; देख ध्यानसे! 

भगवान् भूमितिलक देवी प्रतीचिका निराजन-अर्चन स्वीकार करने उनके भवन द्वारपर उपस्थित थे। उनका बिम्ब विग्रहके ठीक पीछे प्रकाश वलय सा शोभित था। सान्ध्य-मंद प्रकाशमें विस्फारित नेत्रोंसे उसने देखा- हाँ सचमुच यह तो नीलमणि निर्मित प्रतिमा ही है।'🌹

अहा, कैसी तत्सम सजीव-सी निर्माताके कौशलपर वह न्यौछावर हो.... हो गयी। लज्जा अबतक प्रताड़ित हो कहीं दूर जा बैठी थी वह दौड़कर उन चरणोंसे लिपट गयी। उसके भूलुंठित सघन जानुचुम्बित कृष्णकेशपाश; लगता था मानो कालिन्दीकी नील धारायें उमड़कर विग्रहके चरण प्रक्षालन कर रही हों।🌹

'तुम.... तुम... कौन हो?
''कैसे कैसे.. पाऊँ... तुम्हें ? 
यह..... यह.... क्या.... किया.... तुमने ?'– उमड़ते रुदनकी बाढ़से वापरुद्ध कंठ हृदयके उद्गारोंको घुटे-घुटे स्वरमें अटक-अटककर वाणी प्रदान करनेकी चेष्टा कर रहा था।💙🌹

'मैंने... क्या.... बि.... गा... डा. था.. तु. म्हा...रा... .... तु...म...बि...न... कैसे.... जी... ऊँ ,,,अ ब ? 
अ. ब... कै....से.... कि...सी...को... अ... प... ना. य... ह... क..लं. कि....त... मु...ख... दि. खा. ऊँ ! 
तु म्हे दे. खे... बि. ना. म...रा.... भी.... न....हीं.... जा... ता.... । 
म र. ना. तो.... हो....गा.... ही...., अ... न्य... था.... ! 
ए... क... बा... र... आ....ह.... ए... क... बा....र..... के... व. ल... ए... क... बा. र... दे....ख... लूँ.. जी..... भ... र... क. र. तो... म. र. ना. स. ह. ज... हो..गा...! 
जी....वि....त... र. ह. ना. तो उ,,,. स.,,, से. ,,,,भी.,,, अ,,,,. धि क..... दुष्क...र... है।' 💙
वह बेहाल हो हिचिकियोंके मध्य कहती जा रही थी।🌹🌹🌹

तुम.... ! ...तु....म... क्यों आ ग. ये मे रे सु. खी ...स....र.... ल... जी व न... में... ?

मैं क्या करूँ !
 क्या करूँ मैं? क... हाँ... जा..ऊँ. मैं ? क. हाँ. से. पा...ऊँ.....
तु....म्हें.... ? 
क्या... क...ह.... क...र.., कै. से. पु. का. रूँ.. तु... म्हें.... ?

कृ. पा. प र व स क र दे... व....ह.... स्व... र... कै...से... पा.... ऊँ ? तु....म.... कै... से.... जा. नो...गे. कि... मैं. कि. स. कि...स.....
वि. प. त्ति में फं. स. ग. यी हूँ..... ।

मैं... क्या.... क... रूँ ? तु म्हा...री... ए. क..... चि..त. व. न. ने. वि. प. त्ति के कै से. भ. यं. क. र..... आ.व....र्त... मे.... फं...सा... दि... या... है. मुझे.... ।

तुम.... क्या.... जा...नो. कि. मे रे. प्रा. णों....की.... डो....री..... तु म्हा रे च र णों में उ ल झ ग यी है।
 मैं.... क्या... क... रूँ... हा.... नाथ! हा प्रिय !- 🌹💙🌹

अकस्मात उसके रूंधे कंठका करुण स्वर कंठ गहरमें ही घुट गया। विग्रहको सहलाते कंपितकर ठहर गये और पाटल पंखुरीसे थरथराते अधर खुले के खुले रह गये।

उसे लगा— 'विग्रह सचेतन है...।' भावोंके आवेगसे अनुभव खो गया था किंतु धीरे-धीरे जब आवेग घटा अथवा बाहर निकला तो बुद्धिकी सूचना रंग
लायी-
 'विग्रह सचेतन है। इसके अंगोंमें प्रस्तर अथवा रत्न प्रतिमार्क नहीं है। और.... और.... उसके.... अपने.... सिरपर किसीका स्नेह-हस्त संचरित है....। हृदय आनंद, आश्चर्य और लज्जासे धड़कना भूल गया क्या करे.... वह.... ? 
अब.... अपना.... यह.... लज्जारुण.... मुख... लेकर... कहाँ.....
किस.... विवरमें... जा... समाये ? 💙

निस्पन्द-सी वह उन चरणोंमें पड़ी रही, उठकर भागनेकी भी क्षमता देहमें नहीं रही। दो सबल बाहुओंने उसे उठाकर खड़ा कर दिया, पर कम्पित देहका भार पद सम्हाल नहीं पा रहे थे, अतः वही बाहु सम्बल दिये थीं।

 बंद नेत्रों से प्रवाहित वारिधारा जैसे विरमित होना नहीं चाहती हो । एक बार पुनः जैसे देह धर्म सहित समय ठहर गया....। ललाटपर अधर स्पर्शके साथ ही सुगन्धित श्वासवायुका अनुभव हुआ और पलक पंखुरियाँ उघड़ गयी सम्मुख सौन्दर्य पारावार लहरा रहा था.... । वे दृग कमल....! क्या है उनमें ?🌹

आनन्द, अपनत्व, प्रेम और वह सब जिसे भाषाकी अल्प-क्षमता अभिव्यक्ति नहीं दे पाती उस अनन्त स्नेह सागरकी थाह न पाकर उसके अवश नेत्र पुनः मुँद गये तो सुदृढ़ भुजाओंके आवेण्ठनने वक्षको दबा लिया। मुख उनकी ग्रीवासे जा लगा- 

'ओह! यह देह गंध.... ?'🌹💙

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला