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*🌹💙सखियों के श्याम💙🌹*
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🌹 *मन धावत मग छोर* 🌹
मैया री मैया! यह पड़िया है कि महिषासुरकी नानी, कैसी घोड़े-स दौड़ लगाती है दयीमारी। मैं तो दौड़ते-दौड़ते थक गयी। इस मालती-कुंजमें थोड़ा विश्राम कर लूँ, फिर ढूँढ़ने जाऊँगी । अहा, कैसी ठंडक है यहाँ और यह सुचिक्कण शिला तो मानो विश्रामके लिये बुला ही रही हो, तनिक देरी से जाऊँ हो न हो पड़िया अपनी मैयाके पास ही गयी होगी । तब तो और अच्छी बात होगी, वहाँ एक पंथ दो काज सिद्ध हो जायेंगे मेरे । पड़िया-की पड़िया ढूंढ लाऊँगी और श्यामसुंदरके दर्शन भी हो जायेंगे | कितना सुंदर रूप है उनका! किंतु कैसा दुर्भाग्य है हमारा कि दर्शनको यही प्रातः सांय दो
समय; और उस समय भी मूरख विधाताकी दी हुई पलकें उठ - गिरकर बाधा देती रहती हैं। कैसा भोला स्वभाव, बोलना, चलना, निहारना, हँसना, सब कुछ कितना मनोहारी जी करता है आठों पहर आँखोंके आगे रहें। हृदय उमड़-उमड़ पड़ता है पर किससे कहें ? कौन सुने ? और सुनकर क्या करेगा भला ? हँसेगा और क्या !
हमसे तो ये पशु-पक्षी भले, यह यमुना और यमुना पुलिन भले, वृक्ष भले, फिर यह भगवती वसुन्धरा तो भूरिभागा है, जो उनके चरण कमल नित्य प्रति अपने वक्षपर धारण करती है। हमारा ऐसा भाग्य कहाँ कि
"अरे कौन है भाई ? मेरी आँखें छोड़ो। मेरी पड़िया भाग गयी, उसीको ढूंढ़ने आयी तो आँखमें धूल पड़ गयी। तनिक ठहरकर विश्राम कर रही हूँ । कौन सखी है - विद्या, कमला, पद्मा, पाटला, राका, उषा, माधवी, हेमा कौन है री? अच्छा सखी! मैं हारी तुम जीती।'
'अरे कन्हाई! कहाँसे आ गये तुम ?' 'क्यों सखी! मेरा आना अच्छा नहीं लगा तुझे ?'
'इस बातका क्या उत्तर दूँ?'
'क्या बात है, बोली नहीं तू ! चला जाऊँ ?'
'श्याम......'– मेरे मुखसे निकला, नयन भर आये और कंठ रुद्ध हो गया, भला इतना भोला भी कोई होता है ? 'मेरा साथ तुझे अच्छा नहीं लगता ?' मेरे समीप बैठते हुए वे बोले
'मुझसे कुछ अपराध बन गया ?' मैंने 'नहीं' में सिर हिला दिया।
'अरी इतना बड़ा-सा सिर हिलायेगी पर दो अंगुलकी जीभ नहीं
हिला सकती ?"
'क्या कहूँ ?'
'क्या कहनेको कुछ भी नहीं रह गया है ?"
'श्याम...... ।'
'श्याम-ही-श्याम कहेगी। मैं श्याम हूँ सखी! पर तू तो उजरी है, फिर
क्या चिंता है ! यहाँ क्यों बैठी है ? ' 'पड़िया खो गयी है। '
हँस पड़े कान्ह–‘तो इस कुंजमें ढूँढ रही है उसे? चल मैं ढूंढ़वा दूँ। उस दिन संदेश पहुँचा दिया उसका आभारी हूँ।'
'आभारको मैं क्या करूँगी! न ओढ़नेके काम आये, न बिछानेके।' तो तेरा क्या प्रिय करूँ इला ?' 'मेरा प्रिय ! क्या कहूँ, कुछ कहते नहीं बनता।' नयन झर-झर
बरस उठे ।
'यह क्या सखी! क्या दुःख है तुझे ?' - कान्ह घबरा कर बोल उठे। 'कहनेसे क्या होगा? मेरा दुःख किसी प्रकार नहीं मिट सकता।' 'मुझसे कह इला! कैसा ही दुःख हो, मैं मिटा दूँगा उसे।'– मेरा मुख अंजलीमें भर व्याकुल स्वरमें बोल उठे वे ।
'मन निरन्तर तुम्हें देखते रहना चाहता है! कोई ऐसी औषध दे दो कि तुम्हें भूल जाऊँ।'–हिलकियोंके मध्य अटक-अटक कर मैंने बात पूरी की।
'इला...... ।'
'तुम्हें छोड़ मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, मैं क्या करूँ, किससे कहूँ, कहाँ जाऊँ ?'– वाणी रुद्ध हो गयी, मैंने हाथोंसे मुँह छिपा लिया।🙈
'क्या करूँ इला! जिससे तू सुखी हो ।'
'किसी प्रकार तुम्हें भूल जाऊँ, किंतु यह संभव नहीं लगता ! यह नासपिटा मन मानेगा नहीं। अच्छा कान्ह ! कोई ऐसा उपाय है जिससे लगे कि तुम सदा मेरे समीप हो।'
'तुझे ऐसा नहीं लगता सखी ?'– वे हँस पड़े।
'लगता तो है, पर ऐसा लगता है समीप होने पर भी दूर हो । '
"और कुछ चाहिये ?"
' और है क्या तुम्हारे पास?'
'सच कहती है, महा असमर्थ हूँ मैं।'
'ये साधु-महात्मा जोर जोरसे माथा झुकाते हैं; कहते हैं- तुम बड़े बली हो, काल-के-काल, देवों-के-देव और भी न जाने क्या क्या कहते रहते हैं, सो ?'
'तूने कहाँ सुनी ?'
'महर्षि शाण्डिल्यके और भगवती पौर्णमासीके यहाँ बहुत महात्मा इकट्ठे होते हे।आते जाते उनहीं लोगोंसे सुना है।
' 'उनकी बात रहने दे सखी! सो सब व्रजमें नहीं चलता।'
मैं पछताने लगी; व्यर्थ मनका दुःख इन्हें बताया, इनका कोई वश नहीं 'अच्छा सखी! मुझे भूल कर तू सुख पायेगी ?'
"कैसे कहूँ ? पर स्मरणकी सीमा नहीं, वह जैसे विरमित होना नहीं जानता।' 'ठीक है, मैं कुछ उपाय करूँगा।'
"किसका ? "
"जिससे तू मुझे भूल सके।'
'नहीं! नहीं !! तुम्हारा स्मरण ही तो हमारा जीवन है, तुम्हें भूलकर और
क्या करूँगी ?'– प्राणों की व्याकुलता स्वरमें फूट पड़ी ।
'यह क्या ! क्षणमें इधर और क्षणमें उधर; तेरी बातका कोई ठौर
ठिकाना है ?'
'मुझे भी कुछ समझमें नहीं आता। रहने दो, जैसी हूँ वैसी ही भली !'
'इला..... ' – इस भावभरे सम्बोधनके साथ ही उनके नयनपद्म मेरे मुखपर टिक गये। कितने समयतक हम जड़ हुए बैठे रहे, ज्ञात नहीं । 🌹💙
'उठ इला!
सखा मुझे ढूँढ रहे होंगे, चल तेरी पड़िया ढूँढ दूँ !' मेरा हाथ थाम वे उठ खड़े हुए।🌹
*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*
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