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*🌹💙सखियों के श्याम💙🌹*
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🌹 *प्रीत बड़ी बेपीर* 🌹
अहो, कैसा सुंदर सुहाना है यह व्रज ! ग्रीष्म ऋतु जैसे इसका स्पर्श करते सकुचा रही हो और बसन्त ढीठ होकर बैठ गया है। चारों ओर फूल-फल नव-पल्लव, झरने और वन गिरीकी छटा तथा इस यमुनाकी शोभा तो न्यागी ही है । जीजीकी बात मानकर जो मैं यहाँ न आती तो ऐसे सुन्दर दृश्य ऐसे सुरूप और स्नेहीजन पूरे जन्ममें भी देखनेको न मिलते। जीजीकी सासकी देवर, देवरानी, ननदें और पास-पड़ोसके सभी तो मुझे स्नेह-स्नात करते है हैं । जीजीके साथ जल भरने आयी तो वनस्थलीका यह अपार वैभव देखकर मैं चकित रह गयी। उसी दिनसे अवसर मिलते ही यहाँ आकर बैठ जाती हूँ, प्रकृतिका रूप निरख मन भरता नही - नयन थकते नहीं ।
कल साँझको ही जीजीने पूछा- 'इतनी देर कहाँ रही चंपा ?'
जब मैंने उसे बताया कि यमुनातटकी सुरम्यता मुझे खींच ले जाती है, तो वह हँस पड़ी
'जीजी! तुझे वह स्थान अच्छा नहीं लगता ?'
'सुवर्ण पाकर मनुष्यको पीतलका लोभ नहीं रहता बहिन !' - जीजी जैसे कहीं दूर देखती हुई बोली।
‘सच जीजी! उस स्थानसे सुन्दर स्थान कहीं है यहाँ ? मुझे दिखा दो न!' – मैंने निहोरा करते हुए कहा ।
‘चंपा! इस व्रजमें तू जिधर भी दृष्टि उठाकर देखेगी, तुझे प्रकृतिका असीम वैभव दिखायी देगा, पर...!'- जीजी कुछ कहती कहती रुक गया।
'पर क्या जीजी !'– मैंने पूछा।
साथ ही विचार आया, जीजी कहेंगी-पर
चंपा! पराये स्थानमें तुझे अकेली जाना और इतनी देर ठहरना उचित नहीं!"
किंतु मेरी आशाके विपरीत जीजी मेरी पीठ और सिर सहलाती हुई बोली-
'पर बहिन! यह सब कुछ ऐसे ही है, जैसे महासागरके सम्मुख डाबर ! सौन्दर्यके महासागरको देख लेनेके पश्चात और कुछ आँखोंमें समाता ही नहीं!'
'सौन्दर्यको महासागर! कहाँ है जीजी! तेरे पाँव पहुँ; मुझे दिखा दे जीजी।' जीजी हँस पड़ी-🌹
'बिना देखे यह दशा है, तो देखकर तू बावरी हो जायेगी। मैया अवश्य मुझे उलहना देगी।'☺️
'मुझे बता न जीजी!'
मैंने हाथ जोड़ दिये और पैर पड़ने झुकी,
तो .जीजीने हाथ पकड़ मुझे खींच कर छातीसे लगा लिया। उनकी आँखें आंसुओंसे गीली हो गयीं।
'इतने निहोरेकी आवश्यकता नहीं मेरी बहिन!' उसने भरे गलेसे कहा—
'वे आप ही किसी दिन दिख जायेंगे तुम्हें! तू प्रकृतिके रूपकी पुजारिन है, पर उनको देखकर तन-मनकी सुध नहीं रहती। वे हमारे व्रजराज कुमार हैं। तू तो सूर्यास्तके पश्चात लौटती है, अन्यथा साँझको गैया चराकर इसी मार्गसे लौटते हैं। जिस शोभापर तू लट्ट हो रही है, वह व्रजके लोगों को उनकी रूपमाधुरीके सम्मुख नगण्य लगती है।'
जीजीकी बात सुन मेरी सारी हाँस हवा हो गयी। मैंने हँसकर कहा
'वाह जीजी! वाह ! प्रकृतिके रूपकी मनुष्यके रूपसे क्या बराबरी ? मुझे नहीं देखना तुम्हारा व्रजराज कुमार यों तो हमारे व्रजसे तुम्हारे यहाँके सभी नर नारी सुन्दर हैं, अतः वे भी होंगे!'
मेरी उपेक्षा देख जीजी हँस दी- 'देखनेपर सारी उपेक्षा भूल जायेगी और तेरी ससुराल भी इसी व्रजको बनाना होगा, अन्यथा प्राण बचेंगे नहीं।' ☺️
मैंने और जोरसे हँसकर कहा- 'जीजी! रहने दो बहुत बखान हुआ ! मैं कोई मिट्टीकी डली नहीं कि तुम्हारे ब्रजराज कुमारके रूपका छींटा लगते ही गल जाऊँ। इसी कारण तो मैया कहती है कि मेरी पाटला भोरी है।'
'अच्छा मैं भोली और तू चतुरा सही!'- जीजी हँसकर गृहकार्यमें लग गयी।
'हूँ... हः ! ब्रजराजकुमार !! अरे किसी नारीके रूपकी चर्चाकी होती तो फिर भी कोई बात थी! भला पुरुष भी ऐसे सुन्दर होते हैं☺️? लोहेसे बनाया गया
हो ऐसा तन और डाढ़ी-मूंछसे भालू बना मुख, वाणी जैसे घन गरजे हों।'
मुझे फिर बरबस हँसी आ गयी। लगते हैं। पुरुष तो बस बालक हों, तब तक ही सुहावने फिर मानुस नहीं, बनमानुष हो जाते हैं। और सुन्दर हों तो हों, मुझे क्या? यहाँ यह यमुनाकी धारा स्थिर है, तटके वृक्ष झुक आये हैं जलपर वृक्ष, विरुध, क्षुप और लताओंने मिलकर यहाँ कुंज-सा बना दिया है। इनका प्रतिबिम्ब जलमें कितना सुन्दर दिखायी देता है, जहाँ तक दृष्टि जाती है, हरियालीका साम्राज्य छाया है। रह-रहकर मयूर, कोकिला और पपीहा बोल उठते हैं। यमुनाकें कल-कल संगीतके साथ सुगंधित समीर जैसे ताल दे रहा है, झूमते वृक्ष मानो गुणी श्रोता हैं । जीजी कहती हैं- सूर्यास्तसे पूर्व ही तू घर लौट आ, किंतु डूबते सूरजकी वह शोभा मानो यमुनाके स्थिर जलपर स्वर्णकी चद्दर बिछ जाती है। जैसे प्रतीची चिर-प्रतिक्षित पाहुनेको पा रंगोत्सव मना रही हो और चराचर उसकी प्रसन्नतामें योग दे रहे हों।'🌹
अहा, कैसा सुन्दर शांत स्थल है। जी चाहता है सचमुच इस व्रजमें ही बस जाऊँ और जीवनभर यह शोभा निहारती रहूँ ।
'अरे! यह किसने मेरी आँख मूँद लीं? अवश्य ही जीजी होंगी, मुझे अपने व्रजराज कुमारके दर्शन कराने-लिवाने आयी होंगी। अपनी भावतल्लीनता में व्याघात पड़नेसे झुंझलाहट हुई किंतु उसे दबाकर मैंने कहा-
'छोड़ो जीजी! जो देख रही हूँ वही देखने दो। मुझे नहीं देखना तुम्हारा ब्रजराज कुमार।'
मैंने झटका देकर आंखोंसे हाथ हटा दिये। किंतु हाथों को स्पर्श करते ही जीमें खटका हुआ–
'इन हाथोंमें स्वर्ण कंकण है पतली चूड़ियां नहीं शायद जीजीका छोटा देवर मंगल होगा।'
किंतु मुख फेरते ही जी धक्से रह गया... यह.... यह.... तो मंगल नहीं है.... आगे कुछ सोचने की शक्ति नहीं रही।☺️
मन-बुद्धि पंगु हो गये कि मर गये कौन जाने, मुझे निराधार छोड़कर न जाने कहाँ भाग छूटे अभागे ! इन दोनों के अभाव में इन्द्रियां भी मेरे वशमें रहीं। आंखोंने उस मुखपर दृष्टि ऐसे चिपका दी मानों अब तक इसी मुख को ढूंढ़ती रही थी। हाथ-पाँव की क्या गति हुई सो भगवान् ही जाने। और तो और दर्जी की कैंची-सी चलनेवाली मेरी जिह्वा भी न जाने कहाँ लोप हो गयी।☺️
‘कौन है री तू?’—
ऐसा सुधा स्यन्दि स्वर! मुझे देखकर उन नेत्रोंमें श्रीआश्चर्य उतर आया था।
'बोलती क्यों नहीं! इस व्रज की तो तू है नहीं, पाहुनी है क्या ?
अरे ऐसे क्या देख रही है मुझे ?'- वह खिलखिला पड़ा।☺️
जिसका रूप देखकर, स्वर सुनकर ही देह स्तम्भित हो गयी उसकी हँसीने कैसा गजब ढ़ाया सो कैसे कहूँ! आजतक मेरी वाचलता प्रसिद्ध थी, इस एक ही क्षणमें मैं मूक कैसे बन गयी ?💙
उसने मेरे समीप बैठकर, पैर पानीमें लटका दिये। एक हाथसे मेरा स्कन्ध स्पर्श करके बोल उठा-
'अरे तू कहीं मंगलकी भाभीकी बहिन तो नहीं ?"
न जाने कैसे मेरा मस्तक 'हाँ' में हिल गया। हृदय मन, प्राण सबके सब खिंचकर जैसे नेत्रों और कानों में समा गये थे।💙
'इतना भारी सिर हिलाया, पर दो अँगुलकी जीभ तुझसे न हिली! क्या नाम है ? " ☺️
बोलने के सारे प्रयत्न मेरे व्यर्थ हो गये? विवशता कैसी होती है, यह प्रथम बार ज्ञात हुआ मुझे। 🌹
'बोलेगी नहीं ?'–
उसने मेरी ठोडी उठाकर कहा। अरी मैया! यह क्या हुआ, मेरा पूरा शरीर थरथर कर काँप उठा और प्रत्येक रोम साहीके रोम-सा उठ खड़ा हुआ।
'तुझे मेरी सौगन्ध ! मुझसे रूठ गयी है क्या ? मेरा यहाँ आना बुरा लगा तुझे ?
" सौगन्ध सुनकर दो बूंद पानी आंखोंसे ढुलक पड़ा। हाय, कैसे बोलूँ! और जीभ सूखकर काठ हो गये हैं।🌹
'अरे काँपती और रोती क्यों है? ले मैं जा रहा हूँ। तू रो मत ! मैं तेरे पास नहीं आऊँगा। तू सुन्दर है, उजली है! मैं काला हूँ, मेरी छायासे कहीं तू' भी काली हो जायेगी। देख न ! मेरे स्पर्शसे यमुना जल भी काला हो गया है। - वह उठकर चल पड़ा।
प्राण हाहाकार कर उठे। नयन भादोंके बादलसे झरने लगे किंतु वाणीकी अधीश्वरी मुझपर सदय न हुईं। धीरे धीरे संज्ञाने भी मेरा साथ छोड़ दिया।
जब चेतना लौटी और मन कुछ समझने योग्य हुआ तो जान पड़ा कि हृदयमें एक अनबुझी-सी अग्नि जल रही है जिससे न तो जल कर राख हुआ
जा सकता है, और न वह बुझती ही लगती है। हृदयका, मन, प्राण और इन्द्रियोंका सारा रस वह अग्नि धीरे-धीरे खींचकर अपने तापसे सुखा रही है।
मैंने यमुना तटपर दृष्टि फेरी, सबका सब रूखा और सूना-सूना अहा! थोड़ी ही देर पहले ये सब कितने सुंदर सुहावने थे! अचानक ऐसा क्या हो गया कि धरा-गगन सभी उदास हो गये। इनको हुआ सो हुआ मुझे क्या हो गया? हृदयमें यह शीतल दाह कैसा ? सम्भवतः बैठे-बैठे मुझे निद्रा आ गयी और इस बीच प्रकृति को पाला मार गया मुझपर भी उसी का प्रभाव हुआ लगता है। हाथों पैरोंमें जैसे प्राण ही नहीं रहे।
अरे, यह घुघरू किसका है? मे नूपुरका तो है नहीं, यह तो किसी पुरुषके नूपुर का है।
पुरुष.... पुरुष.... और मैं ढाढ़ मारकर उस स्थानपर जा पड़ी जहाँ वह.... वह.... मनमथ बैठा था। मेरे हाथ अपने आप वहाँकी धूलिसे स्वयंका स्नात करने लगे। आंखोंके आँसू टूटनेका नाम नहीं लेते।🌹
अन्तमें जैसे-तैसे उठ बैठी। आह यह मुझको क्या हो गया? यह कौन था यह जो बिन बुलाये पाहुने-सा आकर बरियायी मेरे हृदयमें आँखों में घुस पड़ा ? यह है कौन ? क्या नाम है ? कहाँ रहता है? कुछ भी तो नहीं जानती मैं! मैंने उसका क्या बिगाड़ा था; क्यों आकर उसने मेरा संसार उजाड़ दिया। अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ, किससे कहूँ? यह दारुण दाह कैसे मिटे? मैं पुनः पछाड़ खाकर भूमिपर जा गिरी।
जब सचेत हुई तो घरमें शय्यापर लेटी थी। जीजी विपुला जीजीसे कह रही थी-
'मुझे तो लगता है चम्पाको कोई भूत-बूत नहीं लगा ! जो रोग व्रजमें अबाल वृद्ध सबको है, वही रोग चम्पाको भी लग गया है।'
'क्या कहती हो बहिन!'- विपुला आश्चर्य पूर्वक बोली।
'मेरा मन तो यही कहता है सखी! इसने कहीं-न-कहीं श्यामसुन्दरको देख लिया है। अभी ज्ञात हो जायेगा, मंगल लला गये हैं बुलाने!!-कहते हुए जीजी हँस दीं।
'श्यामसुंदर! अहा कैसा मीठा नाम है। सचमुच श्यामसुन्दर ही तो थे। काले रंगमें इतना माधुर्य ! प्राण अपने आप ही आवृत्ति करने लगे
श्यामसुंदर.... श्यामसुंदर... श्यामसुन्दर !'
'भौजी! कन्नू तो कह रहा है—यमुनातटका भूत मेरे बसका नहीं है। महर्षिशाण्डिल्य अथवा भगवती पौर्णमासीको बुला लाओ।'
मंगलका स्वर सुनायी पड़ा।
'यह कन्नू कौन है ? क्या मुझे सचमुच भूत लगा है? भूत भी क्या इतना सुंदर होता है ? कौन जाने, इस सुन्दर भूमिका सब कुछ सुन्दर है, तो भूत भी सुन्दर होते होंगे।'☺️
'अरे लाला! हौं तो पै बलिहार! तनिक बाबासे जायके कहो न श्यामसुन्दर तो आते नहीं! महर्षि शाण्डिल्यको बुला दें।'- जीजीने अपने देवरसे कहा।
'मैं कन्नू, पूर्णमासी, शाण्डिल्य, श्यामसुन्दर इन नामों में उलझी रही।'
'अरी बहिन!' विपुला बोली-
'तेरी साससे कह जाकर भगवती पूर्णमासीको ले आयें, वही निदान करेंगी। महर्षिको बुलाकर भला छोरीका रोग कैसे बतायेगी ?"
'क्या हुआ बेटी ?'– वात्सल्य स्निग्ध स्वर कानों में पड़ा, तो मैंने नेत्र उघाड़े। श्वेत वस्त्रों में लिपटी गौर देहयष्टि, कटि तक लटकते श्वेत केश, नेत्रोंसे झरता वात्सल्य सौम्यता, पवित्रता और सात्विकताने सम्मलित होकर जैसे नारी- देह धारण किया हो। वे समीप आयी, तो मैं उठ बैठी।
'ना....ना, सोयी रहो बेटी!'-
उन्होंने मेरे प्रणाम करनेपर सिरपर हाथ धर आशिर्वाद दिया और शय्याके समीप रखी चौकीपर बैठ गयीं।
'न जाने इसे क्या हुआ है माता!'- जीजीकी सास कहने लगीं 'लल्लीको जमुना पुलिन और कुंजनको देखिबो भावैं ! नित्य सूर्यास्त होनेपर ही घर लौटती है। किंतु आज जब विलम्ब हुआ तो लल्ला गया ढूँढ़ने ! यह जमुनातटपर अचेत पड़ी थी; वहाँसे उठाकर लाया है। रह-रहकर बड़बड़ा रही है; कभी कहे
'जमुनामें आग लगी हे', कभी कहे
'मैं जल रही हूँ' ।
किसीको पहचानती नहीं! ऐसी बातें करती है जिनका कोई अर्थ नहीं। बहुकी बहिन है भगवती! आयी नहीं जनाय, गयी जगत जानेगा। फिर बेटीकी जात; समधिन क्या कहेगी!'
भगवतीने मेरी नाड़ी देखी, ललाटपर हाथ रखा फिर बोली
'तुम सब बाहर बैठो।'
'अब कहो बेटी ?'– उन्होंने मीठे स्वरमें पूछा।🌹
'माता! लज्जा और भय जैसा कुछ भी नहीं मेरे पास।' कहकर मैंने
अपनी आपबीती सब कह सुनायी। अंतमें कहा–
'क्या यहाँके भूत भी इतने सुंदर होते हैं ? यदि वह मनुष्य होता! तो मेरी इन्द्रियाँ कैसे जकड़ जातीं? मेरे रोम क्यों उत्थित होते ? उसके स्पर्श से कम्प क्यों होता ? उसके जाने के पश्चात सब सूना-सुना लग रहा है। मुझे उसका नाम-धाम कुछ भी तो ज्ञात नहीं! यदि आप एकबार पुनः उसे दिखा दें....!' कठिन संयम रखनेपर भी आँखें बरस पड़ीं।💙🌹
'बड़ी भाग्यशालिनी है वत्से! ऐसा भूत बड़े भाग्यसे लगा करता है।'☺️
भगवतीकी बात सुनकर मैं चिढ़ गयी, भूल गयी कि व्रजमें उनका सम्मान और श्रद्धा काशीकी माता अन्नपूर्णासे तनिक भी न्यून नहीं।
'क्या कहती हैं माता! मैं तो सम्पूर्णतः लूट गयी और आप कहती हैं
भाग्यशालिनी हूँ।'
'हाँ बेटी!' वे बाष्परुद्ध कंठसे बोली- 'बड़ी भाग्यशालिनी है तू ! उसे देखना चाहेगी ?"🌹☺️
'हाँ, माँ! मैं कल पुनः उस स्थानपर जाकर उसकी प्रतीक्षा करूंगी। क्या
नाम है उसका ?'
'जो नाम तुम्हें अच्छा लगे वही नाम वह मान लेगा।'☺️
'उसके सम्मुख मेरी वाणी क्यों रुद्ध हो जाती है माता! मैं उससे बात करना चाहती हूँ।'💙
'प्रथम बार देखा है न! इसीसे ऐसा हुआ। क्या बहुत पीड़ा है हृदयमें ? '
'उसकी चर्चा चिन्तन मुझे अच्छा लगता है, इसी कारण यह पीर भी भली लगती है। कैसा आश्चर्य माता! जिसे एक बार देखनेसे संसार बदल गया उसके संग-साथसे न जाने क्या होगा। पहले जो कुछ मुझे अच्छा लगता था, वह अब निस्सार जान पड़ता है। ऐसे भूत तो मैंने कभी सुने भी नहीं! आपने कभी देखा है उसे ?"☺️
'अच्छा बेटी, अब चलूँ मैं! सुनो बहू ! चिन्ता न करना। जो कुछ हो, होने देना।'– घरके सभी लोगोंने भगवती को प्रणाम किया और वे उन्हें आशिर्वाद देकर चली गयी । जीजा उन्हें पहुँचाने गये ।
जीजीने पूछा कि भगवतीने क्या कहा सो मैंने उन्हें सब कह सुनाया।🌹
'तू भगवती पर चिढ़ी?' – जीजीने चिन्ता भरे स्वरमें पूछा।
'और नहीं तो क्या करती! अब वे कहें कि भूत लगना बड़े भाग्यकी बात है; तो तुम्ही कहो जीजी! भूत-प्रेत लगना कहीं सौभाग्यकी बात हो सकती है ? '
'मैंने सुना है चम्पा! कि भूतकी छाया नहीं पड़ती, उसके पाँव धरतीका स्पर्श नहीं करते। तूने उसकी छाया देखी अथवा उसे भूमिका स्पर्श करते देखा ?"
"भूत चूत तो तुम्हीं सबलोग कह रहे हो! मैंने तो उसे मनुष्य ही जाना माना था। अब अवश्य सोच रही हूँ कि मनुष्य ऐसा कैसे हो सकता है। किंतु भूत भी कैसे हो सकता है? क्यों जीजी! भला भूतके लिये भी किसीके प्राण इतने व्याकुल हो सकते हैं ?"☺️
'मैं क्या जानूँ बहिन ! मुझे इतना समय कहाँ है कि निश्चिन्त होकर पेड़-पौधे निरखूँ और कोई प्रेत आकर मुझसे बतियावै ।। मुझे लगा जीजी ताना दे रही है! बात भी सच है; न मैं जमना तट जाती, न यह रोग लगता। मेरे कारण बेचारे पूरे घरके लोग चिन्तामें पड़ गये हैं।
किंतु अहा ! कैसा सुन्दर रूप कि चराचर जिसके सम्मुख तुच्छ लगे! नयन भर देख पाऊँ इसके पूर्व ही वह उठकर चल पड़ा। हाय! यह दयीमारी जीभ ना खुली।☺️
समझ नहीं पाती; प्रथम बार देखनेसे ही वह इतना अपना कैसे लगने लगा? प्राण देहकी कारा तजकर उसके समीप भाग जाना चाहते हैं। वाणीकी मिठास कैसे कही जाय! आजतक किसी प्राणी अथवा वाद्यकी ध्वनी ऐसी नहीं सुनी। अबकी बार मिलेगा तो पकड़ कर जीजीके पास ले आऊँगी।
उसे दिखाकर कहूँगी–
'देख तेरे व्रजराजकुमार उसके पाँवकी धूलकी भी समता रखते हैं कि नहीं?' उसे अपना सखा बना लूँगी। साथ-साथ खेलना, खाना, गाना और प्रकृति दर्शन करना; किंतु नहीं उसे देखने के पश्चात अन्य कुछ देखना कहाँ अच्छा लगता है ? कहीं पुनः जिल्ह्वा और हाथ पैर जड़ हो गये तो ? पर भगवती कह रही थी ऐसा प्रथम दर्शनके कारण हुआ, अब न होगा।
वह मुझसे रूठ गया है जो पुनः न आया तो ? हे भगवान! और कुछ हो,
पर यह न हो! जगत सूना हुआ और अब तुम भी त्याग दो; तो भाग्यहीना चम्पा क्या करेगी, कैसे जीयेगी ? किसके आश्रय ?
हृदयमें जो मरोड़ उठी तो लगा बिछौनेपर अंगारे बिछे हों जैसे! मैं उठ खड़ी हुई, घर के सबलोग सोये पड़े हैं। मुझे स्मरण नहीं कब द्वारको अर्गला शृङ्खला मुक्त किया और कब मैं उस पथपर चल पड़ी कि ठीक उसी स्थानपर पहुँचकर मुझे ध्यान आया—'ओह, यह मैंने क्या किया? रात ढल गयी है, कुछ ही समयमें जागकर सब मुझे ढूँढेंगे। जीजीका मनःसंताप बढ़ जायेगा। किंतु मैं भी क्या करूँ; घरमें मुझसे ठहरा नहीं जाता, जी घुटता है!'
मैं उस स्थानपर आँधे मुँह गिर पड़ी- 'तुम कौन हो ? कहाँ हो ? आकर मुझे धैर्य बँधाओ। मुझसे क्या अपराध बन पड़ा ? क्यों मेरी ऐसी दशा बनायी ? जीजीकी प्रसन्नता के लिये आयी और यहाँ आकर उनके दुःखका कारण बनी। अब मेरा क्या होगा? मैं तो किसी कामकी न रही। तुम चाहे जो होओ! मैं तुम्हारे हाथ जोहूँ- पाँव पहुँ; मुझे स्वस्थ कर दो।' अंतर चीखता रहा और आँखें बरसती रही! न जाने कब भोर हो गया।
हठात् कहींसे बंसीकी धुन सुनायी दी; जैसे कर्ण-कुहरोंमें अमृत सिंचनकर दिया गया हो। मैं भूल गयी उस मन्मथको, जिसके बिना क्षण-क्षण भारी था। उसे देखकर जो दशा हुई, वही वंशी रव सुनकर हो गयी। प्राण आनंदसे अचेत होकर कानोंमें जा बसे।
न जाने वह ध्वनि कब विरमित हुई; मुझे ध्यान आया तो मन ग्लानिसे छटपटाने लगा—
'हाय ! ये अभागे प्राण क्या-क्या चाहते हैं? आह! विधाता तूने दो आँख - दो कान देकर क्यों जन्म दिया? ऐसा मन ही क्यों दिया, जो कभी रूपपर और कभी रागपर न्यौछावर हो जाय! कलका रोग मिटा नहीं और यह नया और आ लगा। नारी तन पाकर भला ऐसी मनःस्थिति ! धिक् ! इससे तो मृत्यु भली।'🌹
'चंपा घरमें नहीं है।'—
मैंने उठते ही कहा, तो वे चौंक पड़े।
'कहाँ गयी ?" 'जमुनातट गयी होगी, कहीं जलमें न कूद पड़े कल भगवतीने कुछ कहा तुमसे ?'– मैंने चितिंत होकर पूछा।
'चिंता जैसी कोई बात नहीं, यही कहा सबसे।'🌹
'मैं जाऊँ एकबार और भगवती पौर्णमासीके पास? न जाने क्या हुआ छोरी को! मैयाको क्या मुँह दिखाऊँगी मैं!'
मैया कुछ 'भूत-वूत' की बात कह रही थी।
'तुम समझते क्यों नहीं! भूत कहाँसे आयेंगे ब्रजमें? अबतक तो
कभी देखा-सुना नहीं किसीको भूत लगते! कोई रोग हो गया है; बेटीकी जात हैं, किसीसे कह भी नहीं सकते। माता पौर्णमासीके स्पर्शसे ही सब रोग-दोष भाग जाते हैं, किंतु हमारा भाग्य! कि उन्होंने भी कुछ नहीं किया। '— मैंने कहा ।🌹
'सुना है कन्हाईके स्पर्शसे भी भूत या कोई रोग नहीं ठहरते!'
'मंगल लला गये थे; कन्हाई बोले- यमुनातटको भूत मेरे बस को नाय न हो तुम महर्षि शाण्डिल्यके समीप हो आओ।'
'अच्छा।'
जयन्तकी बात सुनकर महर्षि मुस्कराये-
'बेटा! चिंता जैसी बात नहीं। न तो चम्पाको कोई भूत लगा है, और न कोई रोग! उसने कोई अचिन्त्य, अतर्क्य, अनिर्वचनीय और अपरूप वस्तु देख ली है; इससे चित्त भ्रमित हो गया है।'☺️
'ऐसी क्या वस्तु हो सकती है महाराज! हमारे व्रज में? वह तो भगवतीको बता रही थी कि कोई छौराने उसकी आँखें मूँद ली थीं। कहीं हमारा कन्हैया तो नहीं महाराज! उसकी बहिन चिंतासे सूख रही है महाराज! कि कहीं यमुनामें न कूद जाय!'
'यमुनामें कूदै कि गिरीसे कुदै, उसका रक्षक उसे सम्हाल लेगा। हम-तुम कुछ नहीं कर सकते। फिर भी जीवन हानी नहीं होगी, यह दायित्व मेरा रहा।'
'महाराज! वह क्या ऐसी ही बनी रहेगी?'–जयन्त जैसे किसी ओर नहीं पा रहा था ।☺️
'ऐसा भाग्य किसका है कि ऐसा ही बना रहे!' महर्षि जैसे अपने आपसे कह रहे हों –
'कौन कह सकता है कि यह अवस्था जीवन भर बनी रहेगी! किंतु वे करुणा-वरुणालय हैं। उनके अतिरिक्त और कौन है, जो जीवको यों सहज अपना लें। फिर अपनाकर त्यागना तो उन्हें आता ही नहीं यह तो,,,,
उनका स्वभाव ही नहीं।'
फिर सचेत होकर बोले- 'तुम बहुसे कह देना चंपा जो करे-जैसे रहे, रहने दो धीरे-धीरे स्वस्थ हो जायेगी।'
जयन्तने आकर पाटलासे कहा—'महर्षिकी बातसे जान पड़ा कि उसे न रोग है, न भूत लगा है। केवल किसी महाशक्तिकी कृपासे ऐसा हुआ है और
वही उसे संभालेगी। धीरे-धीरे ठीक हो जायेगी, चिंता जैसी बात नहीं।'🌹
वे तो कहकर चले गये किंतु अब मुझे सचमुच ही चिंता लगी-
'मैया री! अब क्या होगा ? मैं तो समझ रही थी इसने कहीं श्यामसुंदरको देख लिया है। दो-एक दिन ऐसे ही तड़फड़ाय लेगी, तब एक दिन सन्ध्याको वनसे लौटते हुए दिखाकर कहूँगी–देख यही है न यमुना तटवाला भूत ? अब यह महाशक्ति कौन है ? महर्षिकी बात असत्य तो नहीं हो सकती! कुछ भी हो चिंतासे क्या बनेगा ? महर्षिने भी कहा है चिंता की कोई बात नहीं।
'आह, विधाता! तूने मुझे जन्म लेते ही मृत्यु क्यों नहीं दी ? अब मैं कहाँ जाऊँ?
क्या कहकर किसको पुकारूँ ?
हाय, किस कुघड़ीमें इस व्रजमें पैर रखा मैंने!'-
चंपा बिलख-बिलखकर रोती और अचेत हो जाती है, कभी मौन होकर मूर्ति-सी स्थिर हो जाय।🌹
नित्य सूर्योदयसे पूर्व ही यमुना तटपर जाकर बैठ जाती है। साँझको मैं ही समझाकर घर ला पाता हूँ अथवा उसका अचेत तन उठा लाता हूँ। उसकी बहिनका जी सूख जाता है- 'मैया मुझे क्या कहेंगी?'
मेरी मैया भी चिंता करती है- 'कैसी फूल सी हँसती-खेलती छोरी दिनमें मुरझा कर आधी रह गयी समधिन देखेगी तो क्या कहेंगी?'
बात भी सच है— चंपाका चंपा-सा रंग साँवला हो गया है। लम्बे-लम्बे काले केश उलझकर लटें बन गये और आँखें, होंठ, रोनेके कारण सूजे ही रहते हैं ? केश, मुख और शरीर मिट्टीसे स्नात बने हैं। दो दिनमें ऐसी दशा हो गयी है कि पहचानी नहीं जाती। यह तो हमारा घर गाँवके छोरपर है; फिर भी कोई-कोई तो पूछ ही लेते है—'जयन्त! तेरी साली आयी थी न, वापस चली गयी क्या! दिखायी नहीं देती।'
मैं क्या कहूँ –
'नहीं भैया! बड़ी शर्मिली है, घरपर ही रहती है। किंतु यह बात कितने दिन चलेगी? पूरे घरका खान-पान आधा हो गया है। हमारा कन्हैया ऐसी कोई समस्या नहीं, जिसे वह सुलझा न सके !
वही कन्हैया मेरी बात सुनकर रूखा-सा बोला- 'यह रोग मेरे बसका नहीं है।☺️
दादा! देखकर क्या करूँगा। महर्षिने कहा है तो ठीक हो ही जायेगी।'
अब तो महर्षिकी बातका ही आसरा है। यदि इस बीच चंपाको इसके गाँवसे कोई लिवाने आ गया तो क्या उत्तर देंगे हम ? ऐसी अवस्थामें कैसे भेजेंगे और न भेजें तो कहेंगे क्या? हा भगवन्! यह क्या हो गया ?
'अहा यह तो गगनमें खड़ा है। तुम तुम..... 💙उस दिन रूठ गये थे मुझसे ? मेरी जीभ सूख गयी थी, इससे बोला नहीं गया।
आज....! आज.... आज आओ; जो पूछोगे वही कहूँगी मेरा नाम चंपा है, तुम्हारा क्या नाम है भला?"💙
"अरे तुम तो कदम्बके भीतर घुस पड़े; क्यों? मुझसे छिपनेके लिये किंतु मैंने तो तुम्हें देख लिया न! अब निकल भी आओ आओ हम दोनों मिलकर खेलें।'
'यह क्या! तुम जलमें उतर पड़े। अरे, तुम जल, थल, गगन, वृक्ष, पशु, पाहन सबमें ? ये पत्थर पत्थर न रहे, ये पशु, यह यमुना सब तुम्हारे रूप हो गये। यह कहाँ गये तुम? यह सब क्या मेरा भ्रम था ? किससे तुम्हारा ठौर ठिकाना पूछूं ? किससे माँगू तुझे ?'💙🌹💙
यह....., यह...... किसका प्रतिबिम्ब है? डालपर बैठकर पाँव पानीपर लटकाये है। अहा! यह वही तो है, वही है.....
मेरे प्राणोंकी औषध ! रे मन थोड़ा धीरज धर! उन्हें ज्ञात न हो, इस तरह उनके चरणोंमें जा पहुँगी। मुझे कुछ नहीं चाहिये; केवल तुम्हारे दर्शनकी भिक्षा चाहिये। कहीं वृक्षसे कूदकर चल दिये तो ? इससे अच्छा तो यह है कि इन्हें देखते हुए यमुनामें समा जाऊँ ।
'यमुना महरानी; एक ही विनय है तुमसे! मेरे मृत तनका एक बार अपने लहरोंके हाथों से उनके चरणोंका स्पर्श करा देना। वे देख लें अपने कमल नेत्रोंसे एक बार बस! सच ही है, चंपाके पास श्याम अलि भला क्यों आयेगा? विधाता! अगले जन्ममें मुझे पाटल अथवा कमल बनाना; जिससे उनका स्पर्श मिले! अहा, अब विलम्ब क्यों! इन लहरनमें सारी ज्वाला शांत.... हो.... जा....य....गी।'
'भाभी! अरी ओ भाभी!
देख यह कौन है ? तेरी बहिन तो नहीं ? "
'हाँ लाला! कहाँ थी यह ? तुम्हारे दादा तो ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गये।'
'भाभी यह तो यमुनामें बह रही थी। मैं पाँव लटकाकर कदम्बपर बैठा था कि यह आ लगी पाँवोंके पास। यमुनामें उतरकर निकाल लाया हूँ।'
चंपाको शय्यापर सुला कर श्यामसुंदर बोले-
'इसे घर भेज दे भाभी ! किसी दिन मर गयी तो तेरे माथे आयेगी।'☺️
'लालाजी, मैं बलिहारी जाऊँ! न जाने क्या रोग लगा है इसे; ऐसी ही भेजकर मैयाको क्या मुँख दिखाऊँगी! कोई उपाय करो, मैं तुम्हारे पाँव पहूँ।'
'अच्छा भाभी! मुझे जयन्त दादाने इसका रोग बताया था। तू पद्मासे कहना भोर होते ही मुझसे औषध लाकर इसे पिला दे। कल इसे यमुना तट मत जाने देना। और हाँ! तू अपनी मैयासे कहकर इसका विवाह शीघ्र करवा दे अथवा इस बावरीसे विवाह कौन करेगा?'
'अपने मंगल ललासे विवाह कर दें इसका ?"
'कल इसीसे पूछ लेना।' कहकर श्यामसुन्दर चले गये।☺️
मैंने देखा चंपा अचेत पड़ी है। इन सात ही दिनमें वह भरी पूरी देह अस्थि-पिंजर रह गयी है। श्यामसुंदरने कहा है तो अवश्य कल ठीक हो जायेगी। चलूँ सासजीकी आज्ञा लेकर पद्मासे औषधके लिये कह आऊँ। भोर
होते ही देनेको कहा है।
'चंपा....! ए चंपा ! नेत्र उघाड़ बहिन; यह औषध पी ले।'पद्माने चंपाको बिठाकर प्याली मुखसे लगायी।
'आह, कौन हितैषी है तू? हियामें बड़ी ठंडक पड़ी।'
'नयन उघाड़ बावरी ! मैं पद्मा हूँ। श्यामसुंदरने औषध भेजी है।'
'श्यामसुंदर ! हाँ वह श्याम और सुन्दर भी था, किंतु जाने कहाँ खो गया। वह! तूने उसे देखा है कहीं ?"
'देख बहिन! ऐसी ही बातें करती है। मैंने रोते हुए कहा—
'न खाना, न पीना, न नींद और न विश्राम ! ऐसे शरीर कितने दिन टिकेगा ?"
'ए भाभी, तू रो मत ! बाहर जा मैं इसकी मांदनी मिटा दूँगी।'पद्मा बोली।
मैं उठकर बाहर चली गयी, किंतु दो घड़ी भी नहीं बीती और देखा पद्मा चंपाका हाथ पकड़ अपने घरकी ओर जा रही है। यह देख हम सास-बहूके मुख आश्चर्यसे खुले रह गये।
'कन्हाईने औषध तो बहुत अच्छी दी।'- सासजी बोली।🌹☺️
'हाँ! चंपा उदास तो है, पर दीखती भली चंगी है। मैंने कहा। भगवान भोलेनाथ,,,, कन्हाईको हजार वर्षकी उम्र दें। हम दोनोंने हाथ जोड़कर सिर झुकाया ।🌹
चंपाको अपने घर लाकर मैंने उसकी सारी कथा सुनी। मेरी गोदमें मुख छिपाकर रोते हुए उसने सब कह सुनाया। कैसी भोली छोरी है।
'जो मैं तुझे तेरा भूत दिखा दूँ तो ?' मैंने पूछा।
'बहिन! मैं तेरी दासी बनकर रहूंगी।' चंपा ने मेरे पाँव पकड़ लिये।☺️🌹
'सच!"
'सच बहिन! तूने उसको देखा है? बातकी उससे? नहीं! उसे देखनेके
पश्चात कुछ और देखना अच्छा नहीं लगता।
उसकी वाणी सुननेके पश्चात् और कुछ सुननेको जी नहीं चाहता और वह स्पर्श....
' चंपाकी वाणी रुक गयी, देह वल्लरी काँप उठी, रोमावली उत्थित हुई और नयन मानो अनवरत मुक्तावर्षण करती सीप हों।🌹💙
मैंने उसे हृदयसे लगा लिया-
'सो सब मैं जानती हूँ चंपा! मैं भी ही भांति अक्खड़ थी। जो तूने कहा; वही मैंने भी कहा था और परिणाम भी तेरे समान ही पाया। मेरी बात मानकर कुछ खा पी ले बहिन ! सन्ध्या समय उसे दिखा दूँगी तुझे!'☺️
मेरी मनुहार मानकर चंपाने मुँह झूठा कर लिया। उसकी आँखें सूखनेका नाम नहीं लेतीं। दृष्टि सूनी सूनी और रह रहकर भान भूल जाना....
हाय, कैसी सोनेकी मूर्ति सी सुन्दर काया थी। सात दिनमें जैसे जल बलकर कोयला हो गयी।
सन्ध्याको वंशीनाद सुनते ही चम्पा फूट पड़ी–
'बहिन! मैं बड़ी पापिनी हूँ! एक की ही बात नहीं है, जैसे उसका साँवला रूप देखकर मैं बावरी हुई थी, वैसे ही एक दिन किसीके वंशीनादने भी मुझे मोह लिया था। तुम मुझे कहींसे विष ला दो, यह मुख अब कहीं दिखाने योग्य नहीं रहा।'
'आज कोई उत्सव है बहिन ?'– चम्पाने पूछा।
'नहीं तो, क्यों पूछ रही है ? "
' पथके दोनों ओर सब स्त्री-पुरुष सजधज कर ऐसे खड़े हैं मानो किसीका स्वागत करनेके लिये आये हैं। स्त्रियाँ आरतीका थाल लिये हैं और ब्राह्मण,,,
दूब, कुश पुष्प, और जल लिये हैं। वधुएँ लाजा और पुष्प लिये अटारियोंपर खड़ी हैं।'
'चंपा! यह तो हमारा नित्योत्सव है बहिन! ये सब जिसकी प्रतिक्षामें खड़े हैं, उसपर तो हमें भी पुष्प वर्षा करनी है। सम्मुख झरोखोंमें देख; एक भी खाली नहीं। तेरे मेरे जैसी रोगीणियाँ यहीसे दर्शनोषधि पाती है।'
बंशी पुनः बज उठी। चंपाने असंयत हो मेरी बाँह थाम ली और कार दृष्टिसे मेरी ओर देखने लगी। मैंने प्यार से उसका मस्तक अपने कंधेसे टिका लिया तथा नेत्र भंगिमा द्वारा उसे आश्वासन दिया। उसने निश्चिन्त होकर जैसे नेत्र मूँद लिये। ध्वनि धीरे-धीरे समीप आयी, हृदय जैसे वक्ष फाड़कर पथपर कूद पड़ना चाहता है। नित्यकी बात और है !
आज..... आज श्यामसुन्दरने मुझे चम्पाका भार सौंपा है।
'पद्मा! उसका खान, पान, निद्रा, लोक-लाज यहाँतक कि देहका भान भी छूट गया है। अहर्निश मेरा ही ध्यान और चेतना लौटते ही मेरी चरणधूलिमें लोटकर धूलिस्नात हो जाती है। ऐसे प्राण कितने दिन टिकेंगे उस पिंजरेमें? सारी वाचालता न जाने कहाँ जा छिपी है, उसके मनकी तपन शांत करने के लिये वंशी बजायी, तो उसकी भी विपरीत प्रतिक्रिया हुई ! चंपाने मुझे और वंशीवादकको भिन्न समझकर अपना दुःख बढ़ा लिया है।'-कहते कहते श्यामसुंदरके वे आकर्णदीर्घ दृग भर आये थे। अपनेजनोंका दुःख वे कहाँ सह पाते हैं।🌹
'मुझे क्या करना है ?'– मैंने पूछा था।
मंगलके घरसे अपने यहाँ लिवा लाना। समझा-बुझाकर कुछ खिला पिला देना। आज सात दिनोंसे वह निराहार है। उसकी चिंताके मारे मुझे कुछ भी सुहाता नहीं।
अपने भरे-भरे नयन उठाकर मेरी ओर देखा और रूंधे स्वरमें बोले
'संध्याको मुझे दिखा देना। मंगल कहता था- हमारे घरमें एक समय ही चुल्हा जलता है, कोई खाता है कोई नहीं! भाभी अधमरी-सी हो गयी हैं। सब एक दूसरेको दिखानेके लिये मुँह झूठा करते हैं।'
'तो घरवालों की चिंतासे उसे दर्शन दिये जाते हैं? इसमें पद्माका भला क्या काम है? उसी यमुनातटपर दर्शन दे दो न!'- मैने कहा।🌹
'तू समझती क्यों नहीं पद्मा! यमुनातटपर वह मुझे भूत ही समझेगी और बात बातमें व्रजराज कुमारकी निंदा करेगी। जितनी पीड़ा उसने भोगी
है वही क्या पर्याप्त नहीं।'
'श्यामसुंदर!'-
मेरी आंखें भर आयीं।
ऐसा करुणामय और कौन है ? फिर भी मैं हृदय कड़ा करके बोली- 'श्याम जू! यह पाहुनी है।
'हाँ पद्मा! यह भूमि चिन्मय है; इसमें प्रवेशाधिकार सहज नहीं मिलता इतना ही पर्याप्त है।'
'श्याम जू! तुम कृपण कबसे हो गये ? किशोरी जू से आज्ञा माँग लूँ ? यहीं किसीसे, मंगलसे विवाह हो जाय इसका!'
उसे पूछ लेना, विवाह के लिये माने तो।'
मैंने देखा उन भुवनमंगलकी आँखोंसे कुछ बूँदे झर पड़ीं- पद्मा! तूने मुझे कृपण कब देखा ? कृपाका सम्बल और प्रेमका बल- पाथेय साथ हो, तो सभी भूमि यह व्रज बन जायेगी! और चराचर उसका रू.... प....!' आगेके शब्द गलेमें फंस गये।🌹
"मुझे क्षमा करो श्यामसुंदर! चंपा जितना बल मुझमें नहीं है।'
'तुझमें बल न होता, तो इतना भार कैसे सौंपता तुझे मैं? सन्ध्याको अपनेको सम्हालकर उसका समाधान कर देना।'
'यह मुझसे कैसे बनेगा श्यामसुन्दर ! वंशीनाद सुनते ही तन-मन अवश हो जाते हैं।'
'मेरा कार्य।'
'चम्पा! देख बहिन! नयन उघाड़ यह देख.... ।'🌹
पर कौन सुने ! चम्पा पत्थर बनी, मेरे कंधेसे सिर टिकाये बैठी है।
अब मैं..... क्या करूँ कैसे चेत कराऊँ?
'ए चम्पा! देख, तेरा वह यमुनातटवाला भूत।'
मैंने उसे पूरी-की-पूरी झंझोड़ दिया- 'देख ! देख तेरा भूत !'
'ऐं क्या?'– चम्पाके नेत्र उघड़े तो मैंने उसका मस्तक झरोखेसे लगा दिया। जैसे ही उसकी दृष्टि श्यामसुन्दरपर पड़ी, देह थर-थर काँप उठी। आश्रयके लिये उसने मेरी ओर हाथ बढ़ाया। मैंने उन हाथों में लाजा, पुष्प और दुर्वाङ्कुर थमा दिये।🌹
इनकी वर्षा कर, नयन लाभ ले बहिन!'- मेरे साथ ही उसकी अंजली,,,
भी छूटी। उधरसे प्रक्षिप्त हुए वनकेतकीके पुष्प हम दोनोंके अंकमें आ गिरे। ऊपर उठे उन दृगोंकी वह चितवन - वह मुस्कान.... ; चम्पा आनन्द विह्वल हो मेरी गोदमें लुढ़क पड़ी ।💙
'कुछ समझी बहिन ?"
'यही व्रजराज कुमार है जीजी ?'
'इनके लिये क्या कहा था तू ने ?'
उत्तरमें चंपा धीरेसे हँस दी- 'तुम्हीं कहो जीजी ! सृष्टिमें इनका सौन्दर्य संभव है ? '🌹
'नहीं! और कहीं सम्भव नहीं है। विश्वास नहीं न ?'
'तुम सच ही कहती हो जीजी।'- उसके नेत्र नीचे हो गये ।
'जीजीने भी कुछ ऐसी ही बात कही थी- सौन्दर्य महासागर को देखकर
डाबर देखना नहीं सुहाता किंतु उस समय अपनी समझके अहंकार अंधी थी। आजसे तुम मेरी गुरु हुई जीजी !'- चंपाने झुककर मेरे पैरोंपर मस्तक रख दिया।
'यह क्या बावरी ?"🌹
'हाँ, जीजी ! तुमने मुझे नया जन्म दिया है। निर्धनको धनी और मुझ अंधीको प्रकाश दिया है। कितनी मूढ़ थी मैं !"
'तू नही जानती चम्पा ! श्यामसुन्दरने ही मुझे तेरे पास भेजा था।'
चम्पा सुनकर अवाक हो गयी। 'एक बात पूछूं?'– मैंने कहा; उत्तरमें चम्पाने नेत्र उठाये ।
'तू इस व्रजमें रहना चाहेगी ? '☺️
'चाहने-से क्या होगा जीजी! ऐसा भाग्य कहाँ है मेरा ?"
'तेरा विवाह यहाँ हो जाय यदि ?' 'विवाह ?'
वह चौंक पड़ी - 'नहीं जीजी ! मुझसे दुहरा जीवन न जीया जायेगा।'
"कहीं तो होगा ही।'
'नहीं होगा ! मैं मैयाको मना लूँगी। अब इससे अधिक और क्या पाना रह गया ?'🌹
'किसके आश्रय कटेगा जीवन ?"☺️
आश्रयकी क्या अटक है जीजी! सब कुछ मेरा ही तो है।' फिर कुछ सकुचाकर बोली-
'कभी आवश्यकता जान पड़ी तो तुम तो हो ही!'☺️
'चम्पा; मेरी बहिन! तू हम सबसे वीर निकली।'- मैंने उसके सिरपर हाथ रखा।
'मेरा अभाग्य ही इस वीरत्वको न्यौत लाया है जीजी ! तुम्हारी समता
करूँ, ऐसा भाग्य कहाँ है मेरे पास ?'
'अच्छा बहिन! जितने दिन यहाँ रहना है, मेरे पास ही रह
'यह तो तुमने मेरे मनकी कही जीजी! मेरे कितने दिन व्यर्थ गये यहाँ।'
'जीजी! दादा लिवाने आये हैं; जीजीने परसों विदा करनेको कहा है।'
रातको खिरकमें गाय दुहते समय मैंने पद्मा जीजीसे कहा।
'यदि ऐसा है तो फिर कल तू नहा-धोकर सब स्थान घूम-फिरकर देख ले और अपनी सब सखियोंसे मिल भी ले।' – पद्माने कहा।
दूसरे दिन दोपहर ढलनेतक मैं सबसे मिलती रही फिर नहाने यमूनाटत चली। वस्त्र धोकर सूखनेको फैला दिये तब सहज ही उस स्थानकी ओर पाँव उठने लगे जहाँ प्रथम श्यामसुन्दरके दर्शन हुए थे।
पद्मा जीजी कह रही थी कि तू तो यमुनामें गिर पड़ी थी, श्यामसुंदर ही निकालकर घर लाये थे।
अहा! जैसे सुन्दर, वैसे ही उदार और सुशील! मैंने
उसी स्थानपर बैठकर पाँव पानीमें लटका दिये।
'जो आज पुनः आकर पूछें कि तेरो नाम कहा है री? तो बानी फूटेगी ?
यदि ये मेरे सखा होते! हम साथ-साथ खेलते-खाते-पीते। जाने क्यों विधाताको रंग-में-भंग करना सुहाता है! नारी तन तो सदासे पराधीन रहा है, जीवनमें अब कहाँ फिर दर्शन होने हैं!'- हृदयसे एक गहरी निश्वास निकल पड़ी।
'हैं! यह बंसी कहाँ बजी ?'–
हृदयमें जैसे एक गड्डा सा हो गया हो। 'ध्वनीमें आमन्त्रण है; क्या मुझे बुला रहे हैं ?'
'अरे नहीं! उनके सहस्रशः सखा है, गायें हैं, वनपशु और पक्षी हैं; वंशी उन्हींमें-से किसीको पुकारती होगी; मुझे वे क्यों पुकारेंगे! इतने दिनोंमें एकबार भी पूछा नहीं आकर कि-चम्पा! कैसी है तू?
पद्मा जीजीको वैद्य बनाकर,,,,,
भेज दिया और बस..... ठीक भी तो है।'
मैंने मनको समझाया – 'वे बुलायें भी तो वहाँ जाकर खड़ा हुआ जा सकेगा मुझसे ?'
'कहीं समीप ही, अकेले हैं।'–मनने कहा।
'तुझे कौन आकर समाचार दे गया ?' मैंने झिड़का-
'वे अकेले तब भी मुझसे बात करते नहीं बनेगा!'
'बात नहीं! एकबार देख भी लें।'–मनने अनुनय की💙
'वह तो संध्याको होगा न! वनसे लौटते हुए.........
तभी करुण स्वर आरोह-से अवरोहपर उतरा ! स्वर मूर्छनाने मुझे व्याकुल कर दिया -
'आह, दयीमारे! तू जो न कराये सो थोरी! आह दबाकर, मैं लड़खड़ाते पदोंसे चली।'
तमाल तरुका आश्रय ले खड़े श्यामसुंदर तिरछी ग्रीवा, तिरछे नयन मत्स्य, तिरछे कुण्डल, तिरछी कटि और तिरछे चरण लहराता मयूर पिच्छ और फहराता पीतपट, संकुचित अधरपुट और वंशीके छिद्रोंपर नृत्यरता चंपक कलिकाओं-सी उँगलियाँ! बीच-बीचमें वे ठहर जाते, तब अर्धनिमिलित दृगोंके सुकोमल पलक-पटल उघड़ जाते । वन पुष्पों, वन-धातुओं और स्वर्णाभरणोंसे भूषित तनमें सौंदर्यकी मानों लहरें उठ रही हों।
मेरी इन दो छोटी-छोटी आँखों में यह महासागर कैसे समाये! किंतु आँखोंने क्षमतानुसार जितना बटोरा; हृदयने झपटकर क्रूर दस्युकी भाँति उसे छीनकर अपनी अंतरगर्भ मंजुषामें सहेज लिया। कुछ क्षण! हाँ, कुछ ही क्षण तो नयनोका संग्रह और हृदयका दस्यु-कर्म चलता रहा! अकस्मात वेणुके पाँव दबानेवाली सेविकायें थमी; तो मानो सारी सृष्टि साँस रोककर थम गयी।
दृष्टि मेरी ओर उठी तो पलकें झुक गयीं। चरणकमल निकट आये तो कमल, चंदन, अगर, केसर और तुलसी मिश्रित देहगंध चारों ओर घूम घूमकर मुझे लपेटने लगी ।🌹
'चंपा।'
'मैं तो भूत हूँ चंपा; व्रजराज कुमार नहीं! वह तो सुहाता नहीं न तुझे? ऊपर देख, मैं वही यमुना-पुलिन वाला भूत हूँ?
क्या नाम रखा तू ने मेरा?☺️
क्या कहा तू ने भगवती पौर्णमासीसे? मधुमंगल कहता था तू ने मेरा नाम 'मन्मथ' रखा है।
क्या वह सच कहता था ?"
उसने हंसकर दो उंगलियों से मेरा चिबुक ऊपर उठाया-
'तू मुझे सखा बनाना चाहती है न! भला सखा से इतना अलगाव कैसे निभेगा री ?"
नेत्र उठाकर मैंने उस लहराते महासागरकी ओर देखा तथा दृष्टि नीची करके धीरे से कहा-
'मैं जा रही हूँ।'
'कब?' उसने चौंककर पूछा।
'कल।'
'चंपा!'-
रूंघा कंठ-स्वर सुनकर मैंने चौंककर सिर उठाया ओर देखा....कि कमलदृग भरे-भरे से थे।
'यह क्या ?'– मेरे व्याकुल कंठसे निकला।💙
'क्या कहूँ चंपा! तुम्हें कुछ चाहिये तो नहीं ?'
'नहीं! मुझे तो कुछ नहीं चाहिये।'-
लगा, इतनी सी बातपर दुःख क्यों? मुझे तो सब कुछ मिल गया है।
'मुझ-सा निष्ठर कोई न होगा सखी!'
'माँगू?'- कोई ओर पथ न पाकर मैंने कहा।
'हाँ चंपा! कह तो।' वह हर्षपूर्वक बोले।
'तुमने मुझे अभी सखी कहा है; यह भूलना मत !'
'चंपा!'- उन्होंने सिरपर हाथ रखा, तो कृतार्थ हो गयी।🌹💙
'मेरी प्रसन्नता के लिये कुछ स्वीकार करेगी ?'
मैंने सिर हिला दिया और जड़ाऊ मुक्ताहार मेरे गलेमें आ पड़ा।
'यह क्या श्यामसुन्दर ?'
'यह देख!'– उन्होंने नीचेके लटकनका ढक्कन खोलकर दिखाया।
यह तो उनका चित्र था ! मैंने फिर प्रसन्नतासे सिर हिलाया।
'यह चित्रा ने बनाया है।' उन्होंने कहा- 'मुझे भूल तो न जायेगी ?'
'सम्भव लगता है तुमको ?'☺️
'तुझे विदा करनेको मन नहीं करता!'
'कुछ उपाय है रुकने का ?" फिर तनिक रुक कहा-
यह बात क्या ब्रजराज कुमारकी है?🌹
'नहीं तेरे मन्मथ की; आ बैठ मैं तेरा श्रृंगार करूँ!' 💙🌹
हाथ पकड़कर उन्होंने मुझे अपने समीप बिठा दिया। उंगलियोंसे सुलझाकर केशोंकी चोटी बनायी। अपने गलेको पुष्पहार उतार कर केशोंमें गूंथा।
दूसरा हार उतारकर मुझे पहनाया, वह कुछ लम्बा लगा, तो तोड़कर हाथके गजरे और कानोंके लिये कर्णफूल बनाकर पहनाये।🌹☺️
'ले यह फल खा ले।'– उन्होंने फेंट-से निकाल अधखाया फल मुझे दिया। कुछ हटकर खड़े हुए फिर मुझे निरख कर बोले-
'अहा, कितनी सुंदर
है तू ! मेरी पूजा पूरी हुई।'🌹☺️
'अब यह सेवा मुझे मिले!' मैंने कहा ।
'अच्छा।'
स्वीकृति पाकर मैंने फूल चुने और उनका शृंगार किया। दोनोंने साथ खड़े होकर यमुना जलमें अपनी परछाहीं देखी।💙
'वस्त्र सूख गये हैं, अब जाऊँ ? संध्या समीप है।'
'पुनः कब लौटेगी?'
'कैसे कहूँ !'
मैंने झुककर चरण रज ली ।
'चंपा!'– उन्होंने उठाकर अंकमें भर लिया। उन जलज नयनोंसे कई
बूँदें झरकर मेरा अभिषेक कर उठीं। उनकी यह भक्त-परवशता।
'यह क्या श्यामसुन्दर ! मेरा धीरज कैसे बचेगा फिर?"
'तू ने कुछ पाया है चंपा ! मैं तो खो रहा हूँ।'💙
'हाँ, मैंने पाया है अतुलनीय धन! किंतु काँटा-कंकड़ जो भी हूँ, इन चरणोंमें अर्पित हूँ; फिर खोनेकी बात क्यों प्रभु !"💙🌹
'चंपा..... चंपा....!'–
उनके व्याकुल स्वरने मेरा धीरज चुका दिया। मैं बरबस दौड़ पड़ी।
पद्मा जीजीकी कंचुकी मेरे आँसुओंसे गीली हो गयी-
'चंपा! धीरज धर
मेरी बहिन! उसने मुख पोंछकर अंकमाल दी—💙
'तू हम सबसे विलक्षण निकली।'🌹
*जय जय श्री राधे
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