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*🌹💙सखियों के श्याम💙🌹* 

 *(7)* 

🌹 *बांसुरी बैरिन भयी* 🌹

'सखी! यह घर-घाला बंसुरिया फिर बज उठी।'– व्यथित स्वरमें माधवी बोल उठी। उसकी बात पूरी होते न होते तो सबके गात शिथिल हो चले।

आह! आधी घड़ी पश्चात वंशीने विराम किया तो प्रत्येकके कंठसे 'आह' निकल गयी। स्वेद-स्नात तन और अश्रु स्नात मुखके मार्जन की शक्ति भी न रह गयी थी। अब भी नेत्रों के सम्मुख श्याम तमालकी शाखा से पीठ टिकाये वंशीमें स्वर भरते वनमाली अवस्थित थे। वह त्रिभंगललित छवि बाँयी ओर को झुकी ग्रीवा, झुकी पलकों तले अधखुले नयनोंकी वह मुग्ध दृष्टि, संकुचित अधरोष्ठ, वंशीके छिद्रोंपर नृत्य करती उंगलियाँ, फहराता पीतपट, कपोलोंपर अलकोंके साथ झुक आये कुण्डलोंकी छवि और स्तब्ध चराचर।🌹💙

श्यामसुंदरकी यह मनोहर शोभा देखो सखी! त्रिभुवनमें कौन है जिसका धीरज न छूट जाय!'- कुछ प्रकृतिस्थ होने पर सुमति बोली अब भी सबके
अंगोंमें हल्का कंपन है, मन रह-रहकर अंतर्मुख हो उस तमाल-तरुकी ओर दौड़ पड़ना चाहता है। उसे बहिर्मुख करनेमें हमें कितना परिश्रम पड़ रहा है. यह हमीं जानती हैं। कुछ-न-कुछ चर्चा करना आवश्यक था मनको सम्हाले रहनेके लिये; पर चर्चा भी श्यामसुंदरके अतिरिक्त दूसरी आती- सुहाती हो नहीं हमें।🌹💙

'हमसे तो ये वनपशु और गायें ही सौभाग्यशाली हैं बहिनों! कि नयन भर श्यामसुंदरके दर्शन तो पा लेते हैं।'- माधवीकी बात सुन पुनः कई जोड़ी आँखें मुक्ता वर्षणकर उठीं।

‘अरी वनपशुओंकी क्या बात करती हो! हमसे तो ये नदी, निर्झर, तरु, पादप भूमि, गिरी, कानन, पक्षी और कीड़े-मकोड़े सब श्रेष्ठ हैं। — भरे कण्ठ से पद्माने कहा–'सच हैं बहिन ! श्रीकृष्ण जब धरापर पाँव धरते हैं तो उस स्पर्शसे हुआ रोमांच ही दुर्वाके रूपमें प्रकट है। जब कान्हाकी बंसी बजती है, तो तरु-खोहरोंसे रसधार बह निकलती है, यमुना स्थिर हो जाती है। क्या कहूं! पत्थर भी कठोरता त्याग कर रस टपकाने लगते हैं। इनका दर्शन-स्पर्श पा चर अचर और अचर चर हो जाते हैं।'🌹☺️

'देखो, देखो बहिन!' हाथ उठाकर उषा सजल नयन भावभरे स्वर में उतावली हो बोल पड़ी— 'गायोंके-मृगोंके मुखमें लिये तृण ज्यों-के-त्यों दबे हैं। ये सब कानोंसे स्वर और नयनोंसे रूप माधुरी पान करनेमें तनकी सुधि भूल बैठे हैं।'🌹☺️

'बहिन! औरोंकी बात जाने दो, हम अपनी ही बात लें। यह बैरिन बंसुरिया जब जब भी बजती है, हमें हाल बेहाल कर देती है। इसके बजनेका कुछ निश्चित समय भी तो नहीं जब श्यामकी इच्छा हुई इसे मुखसे लगा लेते हैं। 

कल मैं खिरकमें गाय दुह रही थी कि यह सौत बज उठी।
 गैयाके चारो थनोंसे दूध झरने लगा और मेरे घुटनोंमें थमी दोहनी छूट कर भूमिमें लुढ़क गयी। मैं स्वयं कब तक चित्रलिखी-सी बैठी रही ज्ञान ही नहीं।'🙈


'मैं मैयाकी आज्ञासे दादाके लिये छाककी तैयारी कर रही थी कि यह बैरिन बज उठी। 
क्या कहूँ सखी! लड्डुओंमें नमक और साग-सब्जीमें मीठा मिला दिया। 🙈

छाक भेजकर मैं भोजन करने बैठी-ग्रास कंठमें ही अटक गया भयसे।

साँझको दादा आयेंगे और मैयासे कहेंगे तो मैया क्या कहेंगी?

 पर साँझको गैया दुहते समय दादाने कहा- 'हेमा! आज लड्डु और लौकीका साग किसने बनाया था ?"

'मेरे तो बहिन! प्रान सूख गये।' धीरेसे बोली- 'मैंने।'

उन्होंने होकर मेरी पीठपर हाथ फेरा-'बड़े अच्छे बनाये थे बहिन! श्यामसुंदरने रुच रुच कर माँग माँगकर खाये बड़ी प्रशंसा की। मेरी बहिन पाकशास्त्रमें निपुण हो गयी है, इस सत्यसे मैं तो नितान्त अनभिज्ञ ही था तू ऐसे ही स्वादिष्ट पदार्थ बना बना कर रखा कर मेरे छींकेमें, जो कन्हाईको अच्छे लगे।'

मैं क्या कहती ?🥰

***************

'क्या कहूँ सखी! कभी तो ऐसा लगता है मानो वंशी हमारा नाम लेकर पुकार रही हो। ऐसेमें धैर्य रखना महा कठिन हो जाता है।' 

'सच कहती है तू!' एक साथ कई सखियाँ बोल उठीं।

'बहिन! बड़े-बड़े लोग श्यामसुंदरको अंतर्यामी कहते हैं, क्या वे हमारे अंतरकी बात भी जानते होंगे? यदि वे हमारी पीड़ा पहचानते हैं, तो क्यों इस दयीमारी वंशीसे हृदय जलाते हैं।'

'यह क्या कहती हो बहिन! बंसी जलाती ही नहीं, शीतल लेप भी लगाती है। दिनभरके अदर्शनके तापसे झुलसते हमारे हृदयोंको वंशीसे निसृत सुधा धारा ही तो संध्याको शीतलता प्रदान करती है।'

'इस वेणुने क्या तपस्याकी होगी सखियों! जिससे उसे श्यामसुंदर के कोमल अधर पल्लवोंकी शय्या मिली। वे इसे अपनेसे तनिक भी दूर नहीं होने देते। कभी फेंटमें, कभी करमें, कभी अधरपर धरे ही रहें। बड़ी बड़भागिनी है यह बंसी; कहाँ हम अभागिनें दर्शनको भी तरसती रहती हैं,,,,

और कहाँ यह वेणु आठों पहर संग लगी रहे।' 'क्यों सखी! किसी दिन श्यामकी बंसी हम चुरा ले तो ?"

सुनकर सब सखियाँ खिल उठी-'बंसी! यह कार्य कैसे हो ?' 🥰

बरसानेकी सखियोंसे बात करने की ठहरी

'एक दिन की बात कहूँ सखियों!' पाटला बोली-
 'मैं पानी भरकर आ रही थी, पथमें दाहिने पदतलमें काँटा लगा। न चला जाय, न रुका ही जाय,
बड़ी असमंजसमें पड़ी! तभी सम्मुखसे श्यामसुंदर आते दिखायी दिये, 

समीप आकर पूछा- 'पथमें क्यों खड़ी है सखी ?"

 'पांवमें काँटा गड़ गया है।'– मैंने कहा।

'कौनसे पाँव में ?"

'दक्षिण पद में।'

'तुम घड़े उतरवा दो, तो मैं बैठकर निकाल दूँ।'

 ‘नहीं सखी! मेरी बाट देख रहे होंगे सखा,,,, 
अब तेरे घड़े उतरवाऊँ, तू काँटा निकाले और मैं फिरसे घड़े उठवाऊँ, इतना समय नहीं है मेरे पास !

ऐसा कर, तू मेरे कंधेका सहारा लेकर पाँव उठा दे, काँटा मैं निकाल दूँगा।' 💙

और कोई उपाय नहीं था बहिन! 
मैंने ऐसा ही किया। 

उन्होंने काँटा निकाल कर उस स्थानपर अपना थूक लगाकर मसल दिया☺️; फिर बोले 'अब दुखेगा नहीं, जा!' और मेरी ओर देखकर हँस पड़े।🥰


सबसे छोटी नंदा बोली-
'मैं जमुनामें नहाकर लौट रही थी।  सिरपर पानीका भरा घड़ा और हाथमें गीले वस्त्र लिये आ रही थीं। न जाने कब कंचुकी गिर पड़ी। पीछेसे पुकार सुनकर मैंने ठिठक कर मुख फेरा, तो हाथमें वस्त्र लिये श्याम खड़े थे।

 मैं लज्जित हो गयी।

 'अरी इत्ता-सा लीरा भी नहीं सम्हाला जाता तुझसे ?'- समीप आकर उन्होंने कहा।

 मैंने मौन हाथ बढ़ा दिया, तो अपना हाथ दूर हटाते हुए बोले,,,
 'मुँहमें जीभ नहीं है ? तू बोलेगी नहीं, तो मैं भी नहीं दूँगा; अपनी धौरी गैयाके गलेमें बाँध दूँगा।' ☺️

मुझे हँसी आ गयी- 'इससे धौरीकी क्या शोभा बढ़ेगी ? अपने ही गलेमें बाँध लो न !'☺️

'अरी सखी! तू जितनी छोटी है, उतनी ही खोटी है! कहाँ तो बोल ही नहीं रही थी और बोल फूटा, तो मानो तलवारकी धार फेर दी।'- कहते हुए वस्त्र मेरे कंधेपर फेंक, दोनों गालोपर चिकोटी भर हँसते हुए चल दिये।🥰

 सब सखियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ी बात तो सच ही कही कान्ह ने।

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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