22

🌹💙 *सखियों के श्याम* 💙🌹

 *(22)*

🌹 *जात न पूछे कोय* 🌹

यह कौन है; ऐसे वटवृक्षकी जटाओंमें लटकी हुई ? गोपी! नहीं, यह तो कोई शबर कन्या है। कहीं फाँसी तो नहीं लगा ली ? 'कौन हो सखी! ऐसे क्यों लटकी पड़ी हो ?'🌹

मेरी बात सुन वह कृष्ण-वर्णा शबर कन्या चौंककर खड़ी हो गयी। कुछ समय एकान्त पानेके उद्देश्य से इस सघन वटकी ओर चली आयी थी। इसकी जटाओंने भूमिमें पैर गाड़ गाड़कर अनेक स्तम्भ निर्मित कर लिये हैं। और ऊपर सघन वट-पत्रों का वितान-सा तन गया है। मूल वृक्षके नीचे तो अंधेरा रहता है। वही एक पाहन मानो राजसिंहासनकी भाँति रखा है। कभी कभी मैं वहाँकी भूमि स्वच्छ करके इस पाहनपर आ बैठती हूँ।🌹
 सर्वप्रथम यहीं श्यामसुंदरसे वार्तालाप हुआ था मेरा ।💙
एक दिन ऐसे ही बैठी मनोरथोंके महल बुन रही थी- 'कभी श्यामसुंदर अपने मुखसे मेरा नाम पुकारेंगे? कभी अपना कोई काम करनेको कहेंगे? कभी उनका स्पर्श प्राप्त होगा? कभी वे हँसकर कोई बात ..... ?'☺️💙

उसी समय किसीने मेरी आँखें बंद कर ली, मैं कुछ झुंझलाई भी और लजाई भी कि मेरे इस एकान्त स्थलका ज्ञान किसी और को हो गया। मैंने ग्लानी भरे स्वरमें कहा–'छोड़ सखी! तुम जो भी हो, तुम जीती और मैं हारी।'🌹

हाथ हटते ही मैंने पीछे मुड़कर देखा- 'श्यामसुंदर! मुखपर हँसी और आँखोंमें कौतुक लिये खड़े थे।'💙

'अरी विद्या! इस अंधेरेमें बैठी-बैठी क्या नींद ले रही है? घरमें स्थान नहीं है क्या ?"☺️

मैं क्या कहती ? बस देखती रह गयी।🌹 '
मुझे बैठनेको भी नहीं कहेगी ? ☺️
एक ओर हट! मैं भी बैठूंगा; थक गया। हूँ चलते-चलते। गैया भाग गयी थी, उन्हें घेरकर अर्जुनके संग कर दीं। मैं विश्राम करने यहाँ आया तो देखा आप विराजी हैं। वे मुझे धकेल समीप ही बैठ गये। कैसी मधुर देह गंध...., निहारनि, बतरावनि..... ।💙

'ए विद्या! बोलेगी नहीं ?'– उन्होंने मेरे सिरपर हाथ रखकर जोरसे हिला दिया। 🌹
अकस्मात मुझे ध्यान आया, ये थक गये हैं। मैं उठकर उनके चरणोंमें बैठ गयी और उन्हें गोदमें धर धीरे-धीरे संवाहन करने लगी।💙 
अहा! 'कैसे सुन्दर कोमल चरण बिन पनही या कठोर भूमि पर गैयनके पीछे दौरें।'- मेरी आँखोंसे कुछ बुँदे उनके चरणोंपर झर पड़ी।💙

'क्या हुआ री ?' उन्होंने हँसकर मेरा मुख ऊपर उठा दिया—'तेरे आसनपर मैंने अधिकार जमा लिया इससे रो रही है? अरी मैं तो जो तेरा सो मेरा समझकर बैठ गया था। क्या तू मेरी नहीं है? और मैं तो इधरसे निकलता हूँ तो कभी-कभी यहाँ आ बैठता हूँ मुझे कहाँ ज्ञात था कि यह तेरा स्थान है....।'🌹💙

'श्यामसुन्दर !' मेरे रुद्ध कंठसे वाणी फूटी-'व्रजके ही क्या, संसारके सारे स्थान तुम्हारे ही हैं; आज अपने मुखसे मुझको अपना कहकर धन्य कर दिया। अब अन्यथा कुछ न कहना मेरे लिये इतना बहुत है। मुझे अपनी सेवा का अवसर दो।'💙

'कर तो रही है सेवा।' उन्होंने हँसकर कहा। कुछ समय बाद बोले 'अब रहने दे विद्या! सखा ढूँढ़ रहे होंगे मैं चलूँ?' प्राणोंमें हूक-सी उठी; बस !🌹

वे हंसकर पुनः बैठ गये-'अच्छा तेरा नाम ही विद्या है कि कुछ विद्या जानती भी है ?'☺️

'तुम कहो, मैं तो कुछ नहीं जानती पर........ ।' 'मुझे प्यास लगी है, कहीं पानी.... !'

'पानी.... ?'– मैं उठ खड़ी हुई। मुझे ज्ञात है कि यमुना यहाँसे बड़ी दूर है किंतु श्यामसुंदरको प्यास लगी है। मैंने शीघ्रतासे ढ़ाकके दो पत्ते तोड़ पत्र पूटक बनाया चल पड़ी। मेरी व्याकुल दृष्टि जलका अनुसन्धान कर रही थी; दूर पश्चिममें दो बगुलोंको भूमिपर उतरते देखा। अनुमानने कहा- 'बिना जलके तो बकुल भूमिपर क्या लेने उतरेंगे ?' मैंने शीघ्रतासे पद बढ़ाये। वहाँ जाकर देखा कुछ नहीं केवल हाथ दो हाथ स्थानपर बड़े-बड़े हरित तृण सिर उठाये खड़े हैं और उनके बीच एक बकुल भूमिमें चाँच गड़ाये कुछ खानेकी चेष्टाकर रहा है। मुझे निराशा हुई फिर कौतुहलवश समीप चली गयी कि यहाँ खानेकी क्या वस्तु हो सकती है? दोनों बकुल मुझे देख फुदककर दूर जा बैठे! सोचा-कीड़े-मकोड़े खा रहे होंगे चलूँ! श्यामको तृषा सता रही है.... किंतु ये हरित तृण इतने ही स्थान पर....!

तृणोंपर पद पड़ते ही भूमि गीली लगी। मैंने केन्द्रमें बैठ उँगलीसे खुरवा भूमिको कुछ तृण उखाड़े जल था, मेरे हृदयमें आशा लहराय शीघ्रता अपेक्षित थी; कान्ह जू तृषित हैं कहीं उठकर चल न दें...।🌹

शुष्क काष्ठसे खोदकर गड्डा बनाया, वह धीरे धीरे जलसे भर गया। मैंने हाथसे एक बार उसे उलीच दिया। अबकि बार वह अपेक्षाकृत स्वच्छ था मैंने हर्ष से अपनी ओढ़नीका पल्ला जल पर बिछा दिया। जब जलसे भर गया तो अंजलीसे पत्र पुटकको भर दिया और यथा शीघ्र वटकुंजकी ओर चली।☺️ किंतु वहाँ पहुँचकर देखा पाहनका आसन तो खाली है। मेरे पगभारी हो गये धीरे-धीरे चलकर जलपात्र मैंने आसनपर रख दिया और वहीं माथा टिकाकर गिर पड़ी—'हा विधाता! आज ही तूने सौभाग्य द्वार खोला और आज ही उसमें आग भी लगा दी?' मेरी आँखोंसे झरझर अश्रु वह चले, हृदयकी ऐंठन सही नहीं जाती थी।💙

'मुझे देर हो गयी, तुम प्यासे हो, मैं जल तक न पिला सकी! व्यर्थ है मेरा विद्या- ब्रह्मविद्या होना व्यर्थ है। देवर्षि! तुम्हारा आशिर्वाद, मेरी तपस्या, यह जन्म सब व्यर्थ हो गया.... सब व्यर्थ हो गया।🌹

निराशाके अंधकारमें चेतना डूबने लगी। जब आँख खुली वह कमलमुख सम्मुख था, वे दीर्घ स्नेह भरे दृग मेरे मुखपर टिके थे, वे अपने पीताम्बरके गीले छोरसे मेरा मुख पोंछ रहे थे।
'कैसी बावरी है री तू! मैं तो इस पेड़के पीछे छिप गया था कि तू मुझे पुकारेगी-ढूंढेगी, किंतु तू तो आते ही ऐसे गिर पड़ी जैसे पाँव कट गये हों
बावरी!'–💙
 उन्होंने हँसकर मेरा मुख अपने वक्षसे लगा लिया। 🌹💙
अब इस सुखकी तुलना मैं किससे करूँ। एकाएक स्मरण आया ये तृषित है; मैं उठ पड़ी– 'तुमने जल पी लिया ?'🌹
"अहा, तू तो मरी पड़ी थी!' वे खुलकर हँस पड़े-'जल कौन कैसे पीता ?'☺️

"मैं तो स्वस्थ हूँ, तुम जल पी लो। मैंने पत्र पुटक हाथ बढ़ाकर

उठाना चाहा किंतु उन्होंने उसे उठा लिया। 'नहीं, पहले तू पी। देख तेरे होठ सूख गये हैं, जाने कहाँ से लायी है, सो पहले तू पी ले।'💙
उन्होंने जलपात्र मेरे मुखसे लगाना चाहा। मैंने हाथसे बाधा दी, आँखें भर आयी। 'मेरा लाया जल भी उन्हें स्वीकार नहीं।' रुद्ध कंठसे अस्पष्ट स्वर निकले-'पहले तुम लो... मुझपर
दया करो.... दया करो...!' मैंने उनके चरणोंपर सिर रख दिया, नेत्र जल
उन्हें धोनेका उपक्रम करने लगा।🌹🌹

'अच्छा ले, रो मत! अपने ही हाथसे पिला दे मुझे उठ पागल कहीं की, परिहास भी नहीं समझती!'- उन्होंने मुझे उठाकर दोना थमा दिया। मैंने उतावलीसे लेकर उनके मुखसे लगा दिया। कुछ जल छलक पड़ा और बचा हुआ वे पी गये।💙🌹

और लाऊँ ?'- मेरी आँखोंमें आँसू और होठों में प्रसन्नता समा नहीं पा रही थी।🌹

'चल मैं भी चलूँ, देखूँ कहाँसे लायी तू? यहाँ तो आस-पास कहीं जल नहीं है।'- हम दोनों साथ उस स्थानपर गये। जल देख प्रसन्नता से उन्होंने मुझे बाहों में भर लिया।💙

'तू पहले जानती थी इस स्थान को ?' उन्होंने पूछा । 'नहीं।' मैंने सिर हिला दिया।
निथरे हुए जलका दोना भर उन्होंने मुझे पिलाया और फिर अंजलीसे मुझपर जल उछाला। हम दोनोंने मिलकर गड्ढे को चौड़ा और थोड़ा गहरा किया और चारों ओर पत्थर जमा मिट्टीका बाँध बनाया और एक बार फिर प्रसन्नतासे भरकर एक दूसरेपर जल उछाला।☺️💙

'अरी मैया री! बहुत विलम्ब हुआ, आज अवश्य मैयासे मार लगवायेंगे , सखा!'–कहकर वे एक ओर भाग छूटे। मैं वहीं खड़ी मुग्ध देखती रही। जिससे उन्होंने जल पिया था उस द्रोणको वहीं पेड़पर पतोंमें छिपाकर रख दिया। उसके पश्चात जब भी हम इकट्ठे होते उस गड्ढेको गहरा-चौड़ा करते। होते-होते वह इतना हो गया कि दो मनुष्य उतरकर नहा सकें। छातीतक उसको गहरा दो किया, बाँध बनाया-सीढ़ियाँ बनायी। कितने पशु-पक्षी उसमें नहाते-पानी पीते। हमारी प्रसन्नताकी सीमा नहीं थी। जहाँतक हो सकता मैं ही परिश्रम करती, उन्हें सिर्फ निर्देश देनेको कहती कितना सुकोमल गात है उनका
एकबार श्यामसुंदर मेरे हाथ देखकर चौंक पड़े-'अरी तेरे हाथ कैसे हो गये?'🌹
 उन्होंने मेरी हथेलीपर अपनी हथेली रख दी।💙 आनन्दसे मेरी आँखें हुँद गयीं। परिश्रम कष्ट जैसा तो पहले भी अनुभव नहीं होता था। वे सम्मुख हों तो इन बेचारोंको अवकाश ही कहाँ रहता है? कभी हाथोंकी ओर ध्यान जाता भी था तो धन्यताकी ही अनुभूति होती थी। उनका स्पर्श लग रहा था मानो हाथपर कोई शीतल लेप लगा है, जिसमेंसे आनंदकी लहरें प्रसूत होकर सम्पूर्ण शरीरमें फैल रही है। कब देह रोमाञ्चित हुई-कब आँखोंसे आँसू निकल पड़े ज्ञात ही न हुआ।🌹💙

'विद्या!' उन्होंने पुकारा। मैंने आँखें खोल उनकी ओर निहारा। 'देख तेर आँसू इस पानीमें मिल गये। इसका नाम तेरे नामपर "ब्रह्म-कुंड' रहेगा।'
'नहीं, 'श्याम कुंड' रहने दो।'– मैंने कहा।🌹

अच्छा ऐसा करें; न तेरा, न मेरा नाम! इसका नाम तेरे आँसुओंके नामपर 'प्रेम-कुंड' रहे। इसमें स्नान करनेवालों को....।' 'तुम्हारे प्रेमकी प्राप्ति हो।'– मैंने बीचमें ही कहा💙

'ऐसा ही सही।'— वे हँसे ।☺️

'तो सबसे पहले मैं ही न स्नान कर लूँ?" 'मैं भी चलूँ तेरे सँग ?'🌹

अहा, मैं तो कृतार्थ हो गयी। शब्द नहीं मिल पाये। सिर हिलाकर स्वीकृति एवं नेत्रों से प्रसन्नता व्यक्त की। उन्होंने पीताम्बरकी कछनी बाँध ली और मैंने ओढ़नीसे तन ढाँपा फिर दोनों हाथ पकड़कर जलमें उत्तर पड़े। एक दूसरेपर जल उछालने और नहाने नहलाने में कितना समय लगा ज्ञात ही न हुआ। दोनोंने हाथ पकड़कर कितनी डूबकिया लगायी, कैसे कहूँ! आनंद सागर जैसे उमड़ा पड़ रहा था, सम्हाले सम्हलता न था। बड़ी देर बाद बाहर निकलकर हमने अपने वस्त्र पहने। उन्होंने अपना पीताम्बर और मैंने ओढ़नी ढाककी डालियोंपर सूखने फैला दिये। 💙🌹

इतने सोभाग्यकी तो मैंने आशा भी ना की थी। केवल तुम्हारी प्रसन्नता तुम्हारा सुख चाहिए,  मुझे और कुछ चाहिये यह ज्ञात ही न हो।'🌹

इसके लिये तो किशोरीजीकी सेवा करनी होगी।' 'यहाँ नंदगाँवों रहकर वह कैसे उपलब्ध होगी ?"🌹

कैसे ? कैसी व्यवस्था मुझे ब्याह नहीं करना में शक्ति होकर एकदम बोल पड़ी। 'कैसी अहाविद्या है री तू ?' ने हँस पड़े 'व्याहकी बात में नहीं कर रहा।

हाय, वह अनुमोदन ही आज शूल हो गया। साँझको भर गयी हुआ मथुरासे अक्रूर आये हैं कान्ह जू को लिखाने और वे प्रातःकाल होते ही विदा हो गये यह व्यवस्था की उन्होंने कि सब अव्यवस्थित हो उठे। कौन सखी नंदगाँवकी है और कौन बरसाने की, यह भेद ही जैसे मिट गया।🌹

लीलास्थलॉपर कहीं भी सखियाँ बैठी पड़ी मिल जाती। श्रीकिशोरीजू भी कभी-कभी मिल जाती, फिर सबकी आश्रय वहीं तो थी। नंदगाँवकी सखियाँ बरसाने गये बिना रह से मात एकबार दिनमें उनके दर्शन न हो जाय तो प्राणोंको देहरों रोकना कठिन हो जाता जैसे यह तो इस हतभागी ब्रह्मविद्याको अब ही ज्ञात हुआ कि विरहमें ही प्रेमकी पूर्णता है। "अपना देह, गृह, गैया सब इसलिये सम्हालना है कि इन्हें अस्त-व्यस्त हीन-दशामें देख वे दुःखी न हों। यह भाव तो श्रीकिशोरी जू की चरणरज सिर चढ़ाकर ही प्राप्त हुआ। कृपामय! तुम्हारी कृपाकी सीमा नहीं है। 🌹🌹

पर यह कौन है ?' – मेरे प्रश्न करते ही वह उठकर खड़ी हो गयी और भागनेको उद्यत हुई तो मैंने बाँह थाम ली। 'कौन जाने उनकी उन कजरारी अंखियोंने कहाँ-कहाँ किस-किसको घायल किया हैं। ' मैंने मनमें कहा।

'कौन हो, यहाँ ऐसे कैसे पड़ी थी? क्या नाम है ?' मैंने पूछा । उसने सिर हिलाकर बताया, किंतु आँखोंमें भरे आँसू न 'कुछ नहीं।'– चाहते भी छलक पड़े।🌹

'मुझसे न कहेगी सखी!'

'कहा कहूँ ?' उसका कंठ इतना ही कहते रुद्ध हो गया और दो

धारायें कपोलोंसे उतर वक्षावरण भिगोने लगीं।

'यहाँ तो कू व्रजराज कुँअर मिले हते ?"

उसने 'हाँ' में सिर हिलाया।

'आ, यहाँ आकर बैठ सखी! हम दोनों एक ही रोगकी रोगिणी है, एक दूजेसे बात कर मन को ठंडो करें। उनकी चर्चा तें सुख मिले सखी! तेरो नाम कहा है? - कहते हुए मैं उसी पाहनपर बैठ गयी और अपने समीप ही उसे बिठाने लगी।🌹

'ऐसी अनीति न करें स्वामिनी!'– वह मेरे पैरोंपर गिर पड़ी। मैंने उसे उठाकर अपनेसे लगा लिया। पीठपर हाथ फेरते हुए पूछा- 'अपनो नाम नहीं बतायेगी ?'☺️

'कंका है मेरो नाम।'

'कब, कैसे मिले श्यामसुन्दर, कहा कही ?'

उसने एक बार अपने जलपूर्ण नेत्र उठाकर भोली और शंका भरी दृष्टिसे मेरी ओर देखा। मैंने मुस्कराकर स्नेहपूर्ण दृष्टिसे देखा तो वह पलकें झुकाकर कुछ कहने को उद्यत हुई, किंतु होठ थोड़े हिलकर रह गये। 'कंका, बोलेगी नहीं ? कह देनेसे मनका ताप हलका हो जाता है सखी!🌹

हम सब यही तो करती है। इसी मिस उनकी चर्चा होती है।  ‘ताप हलका हो, यही तो मैं नहीं चाहती। इस तपनमें बहुत सुख है स्वामिनी। पर आप कहती है कि चर्चा होगी; उसका लोभ भी कम नहीं है।" उसने कहा।
एक क्षणके लिये मैं उसकी बात सुन चकित रह गयी। वह ताप सुखदायी है यह सब जानती है, पर वह मिटे यही तो हमारी कामना रही है। यह तो मिटानेकी कौन कहे! घटानेकी बात भी नहीं सोचना चाहती।🌹

'पुनः उनके दर्शन हों और यह अदर्शनका ताप मिटे, नहीं चाहती तुम ?'

मैंने पूछा।

'ऐसा कौन न चाहेगा ? किंतु जबतक वह सम्भव नहीं है, यह ताप उनका स्मरण ही तो मेरा धन है। फिर मेरा ऐसा भाग्य कहाँ .........l' उसका गला पुनः रूँध गया।💙

'वे कहाँ कैसे मिले तुझे? क्या बात की ?' मैं एक दिन इन जटाओंको बाँधकर झूला झूल रही थी कि उन्होंने

पीछेसे आकर झूलेके साथ ही मेरा हाथ पकड़ लिया जिससे एकदम भाग न सकूँ। मैं चौंककर खड़ी हो गयी। उन्होंने कहा- 'मुझे भी अपने साथ झुलावेगी ?'🌹

इतनी देरमें तो मैं अपने आपको ही भूल गयी थी! वह रूप, स्पर्श और फिर वह मधुर स्वर व मुस्कान और... और.... वह चित....वनि.... ! कंका पुनः मौन हो गयी।

'ए कंका! फिर क्या हुआ? क्या कहा तुने ?"

हाँ, उसने चौंककर मेरी ओर देखा। मेरे मुखसे बोल नहीं फूटा तो वे स्वयं ही झूलेपर बैठ गये और हाथ थामकर मुझे भी अपने समीप बिठा लिया। हम दोनों झूलने लगे। उनकी अंग सु. वा..स... – कंकाने साँस खींची।

‘फिर ?'– मैंने शीघ्रतासे पूछा कि वह कहीं फिर स्मृतिके समुद्रमें

डूबकि न लगा जाय।

"तेरो नाम कहा है री ?"

'कंका!'

'कंस तो नाय ?'– वे खुलकर हँस पड़े।
'ले खायेगी ?'– उन्होंने फेंटसे आम्रफल निकालकर मुझे मुझे स्मरण आया- कुछ मधुर फल फूल और अंकुर मैंने संग्रह किये हैं। मैं वह लानेके लिये उठी तो उन्होंने बाँह थाम ली- 'कहाँ जाती है?'🌹

मैंने वृक्षकी खोडरकी ओर संकेत किया। दोना लाकर उनके हाथ में धमाया तो बोले- 'यह क्या है? क्या करूँ इसका?' मैंने एक फल उठाकर उनके मुखमें दिया तो खाते हुए बोले- 'अहा यह तो बहुत स्वादिष्ट है।' सब खाकर बोले-'ले मैं तो सब खा गया, अब तू क्या खायेगी ?☺️

'मैं और ले आऊँगी। तुम्हें रुचे ये? मैं नित्य ही ला दिया करूँगी।' 'सच! बहुत अच्छे हैं। और ला देगी तो मैं दादाके-सखाओंके लिये भी ले जाऊँगा। कल ला देगी ?"🌹

'कल क्यों, अभी ला दूंगी।'– मैं चलने लगी तो उन्होंने फिर रोक दिया। 'आज नहीं! अभी तो बहुत आतप है, कल लाना चल अभी तो अपने खेलें।'

मेरा हाथ पकड़कर वे उस ओर ले गये। वहाँ भूमिपर लकीरें खींचकर हमने चौकोर घर बनाये। पत्थरके टुकड़ेको फेंक एक पैरपर चलते उस टुकड़ेको ठोकरसे खिसकाते हुए खेलने लगे। पहले तो मुझे कुछ संकोच लगा किंतु जब अच्छी तरह खेलने लगी तो वे हार गये।💙

कंकाने मेरी ओर देखकर लज्जासे सिर झुका लिया। मैं थोड़ा-सा हँस दी। 'जिसने त्रिविक्रम बनकर दो पदमें ही त्रिलोककी नाप लिया था, वह अपनी ठोकरसे नन्हे पाषाण खंडको नहीं खिसका पाया।' मनमें कहा।

'फिर?" उपरसे पूछा।

'फिर नित्य ही मैं मूल-फल- अंकूर लाती और यहाँ प्रतिक्षा करती। वे आते अपने साथ कोई फल, कभी कोई मोदक अथवा मिष्ठान लिये आते मुझे देते। मेरी लायी हुई वस्तुओंमें से कुछ खाते-सराहते और फिर हम खेलते। वे अधिकाँश हारते ही थे। धीरे-धीरे मेरे मनमें यह बात समा गयी कि कुअंर जू को खेलना आता ही नहीं और वे मेरे बिना रह नहीं सकते। मैं छिप जाती तो वे ढूंढते ढूढ़ते आकुल हो उठते।'🌹💙

एक दिन मैं छिपी ही रही और उनकी आकूलताका आनंद लेती रही। वे उदास होकर चले गये और उसके दूसरे दिन वे आये ही नहीं। मैं फल मूल संग्रहकर रही थी कि मुख्य पथकी ओर पशु-पक्षियोंका सम्मलित आर्तनाद सुना, साथ ही रथकी थरथराहट भी दौड़कर उस ओर गयी देखा सारे पशु पक्षी वनके छोरपर एकत्रित हो क्रन्दनकर रहे हैं। एक रथ पथपर बढ़ रहा है। उसमें कुअंर जू अपने दादाके संग बिराजे हैं, रथ मथुराकी ओर जा रहा है।🌹

'मेरे हाथसे दोना छूटकर गिर पड़ा....। तबसे नित्य यहाँ आकर पथ जोहती हूँ। क्या वे अबतक नहीं आये! मुझ पापिनीने उन्हें सताया था.... इसीसे.... वे सबको छोड़कर चले गये। मेरे कारण.... सबको ..... दुःख.... पहुँचा.... स्वामिनी ! आप मुझे धिक्कारो-ताड़ना दो सबके दुःखका कारण मैं हूँ... मैं... हूँ।'-कंका बिलखकर रोने लगी। मैंने उसे गले लगा लिया-‘रो मत बहिन! हम सब ऐसा ही सोचती है कि हमारे अपराधके कारण वे चले गये, किंतु अपनों का अपराध देखना उन्हें कभी

आया ही नहीं। वे आयेंगे, निज जनों से दूर कैसे रह पायेंगे ? तू धीरज धर ।' उसने फल-मूल अंकुरका दोना लाकर मुझे थमा दिया- 'यह ले जायँ आप, मैं नित्य पहुँचा दूँगी। वे आयें तो उन्हें देकर कहें-कंका अपराधिनी है, उसे अपने ही हाथसे दंड देवें, किंतु यह स्वीकार करें।'🌹

'अच्छा बहिन! कह दूँगी, उन्हें साथ लेकर यहाँ आऊँगी। वे तो भूल ही चुके होंगे, आवें तो वे ही स्वयं तुझसे माँग-माँगकर खायेंगे। तू चिन्ता न कर, उनके आने भरकी देर है, सम्पूर्ण व्रजमें जीवन दौड़ जावेगा।'- कहते हुए मैं वह दोना लेकर चल पड़ी।🌹

मैं तो नित्य ही यहाँ आती थी, अपराह्न ढलनेपर ही जाती, वे मेरे साथ बने रहते। कभी इसे देखा नहीं यहाँ और इसका कहना है— नित्य आती थी। उनकी लीला कौन जाने! देश और काल दोनों सापेक्ष है और उनके इंगितपर संचालित होते हैं।

'कैसी ब्रह्मविद्या है री तू ?' एक दिन उन्होंने कहा था—'कुछ भी समझमें नहीं आता तुझे, छोटा-सा विनोद भी नहीं समझती, रोने बैठ जाती है।' 'हाँ प्रभु ! आप निखिल ब्रह्माण्ड नायकको जब ऊखलमें बंधे रोते देखा, माखन चुरा-चुराकर खाते देखा, गोबरकी बिन्दियोंसे मुख भरे देखा, गोष्ठमें चुल्लू भर छाछके लिये नाचते देखा तो लगा, श्रुतियाँ नेति-नेति कह क्या🌹☺️

इनका ही बखान करती है? यही वेदके प्रतिपाद्य विषय है ? महाकाल और मायाको भयभीत और भ्रू संकेतसे नियमित करनेवाले क्या यही है ? ' 'बस, बस।' उन्होंने मेरे मुखपर हाथ रख दिया- 'यह ब्रज है सखी! और मैं नंदकुमार अखिल ब्रह्माण्ड नायक बेचारा कहीं जाकर दुबक गया होगा।
इसी प्रकार यह दासी भी केवल पूर्ण गोपकी कन्या विद्या है। ब्रह्मविद्या ब्रजमें क्या करेगी श्यामसुन्दर ! बारम्बार उसका नाम लेकर क्यों उकसाते हो ?'🌹

'मैं केवल स्मरण करवा रहा हूँ जिसके लिये तूने तप किया था, वह उद्देश्य पूरा हुआ कि नहीं ?"

'मैं धन्य हुई। मैं ही क्या श्यामसुन्दर ! यह मुक्ति, श्रुतियाँ और न जाने कितने ऋषि, कितने प्रेमैक प्राण तुम्हें पाकर कृतार्थ हुए हैं। तुम्हारी अनुकम्पाकी इति नहीं है। कभी किसीने सोचा था कि ब्रह्म यों गोप कुमार बना गायोंके संग डोलेगा ?'💙

'जाने दे विद्या! यह चर्चा इस रसधाममें अप्रिय लगती है। यह स्तुति किसी अन्य समय लिये उठा रख।'

'ठीक है, किंतु मुझे फिर कभी ब्रह्मविद्याकी याद न दिलाना अन्यथा.... ।'- मैं हँस पड़ी।☺️

'तो तू मुझसे बदला ले रही थी, ठहर तो बंदरिया कहीं की!' श्याम जू मुझे पकड़ने दौड़े तो मैं हँसती हुई घरकी ओर दौड़ गयी थी।🌹☺️

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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