24

🌹💙 *सखियों के श्याम* 💙🌹

 *(24* )

 🌹 *प्रीत किये दुख होत* 🌹

यह मैं कहाँ आ गयी? आह! पद स्वतः इस ओर चल पड़ते हैं। अभागे मन! तू समझता क्यों नहीं है कि अब यहाँ कुछ नहीं है, कुछ भी

नहीं सम्भवतः वह स्वप्न था, एक मधुर स्वप्न! प्रातः हुई और टूट गया वहीं, अब उसके लिये विक्षिप्त होनेसे क्या होगा? स्वप्नके सहारे जीनेमें कौन-सी बुद्धिमानी है ? किंतु .... किंतु.... क्या वह सचमुच स्वप्न था? स्वप्न यदि असत्य ही हो, तो फिर मथुरामें कंसका वध और सबकी वहाँ उपस्थिति सत्य क्यों है ? नहीं वह सब सत्य ही था, स्वप्न नहीं! श्यामसुन्दर भली करी तुमने !

इसी दिनके लिये तुमने कालीय, दावानल, अरीष्ट और केशीसे बचाया था? इसीलिये हमारे साथ हेल-मेल बढ़ाया, प्रीतकी फाँसी डाल इस व्रजको तड़पनेका दंड किसलिये श्याम ?

वह साँकरी खोर, वह यमुनातट, यह रासस्थली रुदनकर रही है। रो रही है शत- सहस्त्रश: गोपकुमारिकायें, और जलविहीन मत्स्यकी भाँति तड़प रही हैं। श्रीकिर्तिकिशोरी, नन्दराय और यशोदारानीकी व्यथा कही जाने योग्य नहीं है !

तुम जो एक गोवत्सका रंभाना सुन उठ भागते थे; आज ऐसे निष्ठुर कैसे हो उठे कि एकबारगी ही उसे भुला बैठे तुम ?

हम स्मरण न आयें, और कुछ भी व्रजमें कदाचित तुम्हारे स्मरण योग्य न हो! किंतु बाबा मैया और भानुनन्दिनीको कैसे भुला सके मोहन !

आह! हम सब भी तुम्हें भुला सकते तो जी जाते! किंतु भुलाया ही तो नहीं जाता, क्यों ? यही तो ज्ञात नहीं! कहाँ सीखें, किससे सीखें ? प्रेम तो तुमने सिखाया केशव! स्मरण तुम्हारी लीलाओंने सिखाया, किंतु भूलना कैसे सीखें ? हम क्या तुम्हें स्मरण करती हैं माधव ? नहीं लगता है तुम स्वयं ही स्मरण हो। तुम्हारा स्मरण करना नहीं पड़ता, अनायास होता है। सब भूलकर तुम्हें पाया हमने और अब तुम्ही त्याग गये ? तुम इतने अच्छे न होते, सुन्दर न होते तो सम्भवतः व्रजकी यह दशा न होती; किन्तु अब इस प्रलापसे क्या ?

तुम यहाँ कहाँ हो कि इन बातोंका उत्तर दोगे ।

आह! कभी सोचा न था कि यह सुन्दरताको भी रूप देनेवाला रूप, चारु चितवन, मीठी वाणी, निर्मल-हास्य, भिन्न-भिन्न कौतुक, वंशी ध्वनि और नृत्य-गान भूतकालकी बातें हो जायेंगी। व्रजके कण-कणमें हमारे रोम रोममें हृदयकी गहराईयोंमें बस कर, तुम जा कैसे सके मोहन ?

तुम्हारी एक-एक बात एक-एक क्रिया हमें घंटों स्मरणमें डूबाये रखती है। तुम यहाँ थे तो हम फिर भी थोड़ा बहुत घरका कार्य और परिजनोंकी सुश्रुषा कर लेती थी अब तो उससे भी गयी।

'बहिन विशाखा! क्या कर रही हो यहाँ ? तुम्हारा सारा तन धूलि धुसरित हो गया है।'

'तुम कैसे चली आई ललिता ?'

'जैसे तुम आयीं बहिन ! वहाँ उधर यमुना तटपर उनके सखा बिखरे पड़े हैं। हाय! मैं किस किसको प्रबोध दूँ। जहाँ-जहाँ उनके चरण पड़े हैं; वह भूमि, वह रज ही हमारे लिये तीर्थ, सम्बल और औषधि है। उनका स्मरण ही जीवन है बहिन! तुम्हें स्मरण है वह शरद रात्रि ! जब यमुना पुलिनपर बंसी बज उठी थी और हम सब मन्त्रकीलित सी उस ओर बह चली थी !'

'अहा! शिलातलपर उत्फुल्ल मल्लिकाके सुमनास्तरणपर विराजित उनकी वह अपार अनन्त शोभा.... ।' गद्गद कंठसे विशाखा बोली यद्यपि उनका रूप सभी उपमा उदाहरणोंसे परे है; फिर भी लगता था शरद पूर्णचन्द्रकी धवल ज्योत्सनासे स्नात हो उनका भव्य रूप और अधिक अपरूप हो उठा हो। जैसे सार (असली लोहा- फौलाद) के खड्गकी धार पुनः सानपर चढ़ा दी गयी हो। नहीं बहिन !... नहीं ! कोई उपमा उनका स्पर्श भी नहीं कर पाती, समताकी तो बात ही कहाँ है। हाँ, तो कह बहिन! उसी रात्रिकी चर्चाकर। तनिक प्राण उस सुधाका पानकर शीतल हो लें।'

'हमारे पहुँचनेके कुछ क्षणों पश्चात ही वंशीके छिद्रोंपर थिरकती उँगलियाँ थम गयीं और वेणुमें प्राण फूँकनेवाले अधर संकुचन त्यागकर मुस्करा उठे थे, अर्धनीमिलित कमलपत्र सी पलकोंने उठकर अपनी मञ्जुषाके अमूल्य रत्नोंको उद्भासितकर दिया था। विशाखा! लोग मद्य पीकर मद-विह्वल होते हैं, किंतु हम व्रजवासी उनके दर्शनसे ही छक जाते हैं। दर्शनकी क्या कहें सखी! हमें तो उनका स्मरण भी उसी अवस्थामें पहुँचा देता है। ' उस समय कैसे निष्ठुर होकर बोले थे वे-'वन शोभा देख चुकीं अब लौट जाओ। कुल-कामिनियों को निशीथमें घरसे बाहर घूमना शोभा नहीं देता। यदि तुम वंशीनाद सुनने आयी हो अथवा मुझे देखने को, तब भी अब अतिकाल हो चुका, तुम अपने गृहोंको लौट जाओ। वहाँ तुम्हारी प्रतिक्षा हो रही होगी। धर्मकी रक्षा ही जीवनका सत्य है और मैं भी धर्म पालनसे ही प्रसन्न होता हूँ।'

'विशाखा! वे शब्द बाण खाकर हम वहीं उसी समय क्यों न मृत्यु को प्राप्त हुई। यदि ऐसा हो जाता तो आजका यह दारुण शोक; कैसे हमारे प्राणोंको संतप्त करनेका अवसर पाता!'

'आगे कह बहिन।'

उनके उन कठिन शब्दोंने कर्णोंमें प्रवेश करते ही हमें मूलोत्पादित लतिकाओं-सी अर्धमृता बना दिया; मुख सूख गये, सिर झुक गये और नयन पनारे बन गये। किसीको कुछ समझ नहीं पड़ रहा था कि क्या कहें, क्या करें? किसी प्रकार साहसकर मैं बोली- 'ऐसी अनीति मत करो मोहन! गृह परिजनसे नाता तोड़ हमारे प्राण तुम्हारे चरणोंसे बँध गये हैं। अब एक पद भी हम उधर चलनेमें समर्थ नहीं है।'

किंतु उनपर तनिक भी प्रभाव न पड़ा, वे पूर्ववत धर्मोपदेश करते रहे। ऐसेमें चन्द्रावली जीजी ही सदा सहायिका हुई हैं बहिन! इस समय भी वहीं बोली—'ठहरो श्यामसुन्दर! बहुत सुन लिया धर्मतत्व। मुझे संदेह है कि धर्मके विषयमें तुम स्वयं भी कुछ जानते हो ? जो तुम्हें न पहचानता हो, उसे सुनाना यह सब! सब धर्मोंके अधिष्ठाता क्या तुम्हीं नहीं हो ? जगतके आधार और प्राणियोंके प्राणोंद्गम क्या तुमसे भिन्न कहीं है! प्राणीमात्रका सबसे श्रेष्ठ धर्म अपने आपसे, अपने उद्गमसे जुड़ना, उसे जानना, प्राप्त करना है और वह तुम हो श्यामसुन्दर ! वह तुम हो! तुमसे प्रेम करना- तुम्हें प्राप्तकर लेना। ही धर्मका परमप्राय है; फिर तुम हमें कौनसे धर्मका उपदेश सुना रहे हो ? और यह भी बता दो कि तुम्हारे बताये इस थोथे धर्मके पालनका फल क्या होगा? हम यहाँ धर्मोपदेश सुनने नहीं आयीं! जैसे आदि पुरुष अपने भक्तों का पोषण करते हैं वैसे ही तुम भी हमारा सत्कार करो। निष्ठुर ! लोक-परलोकका त्याग करके शरणमें आयी हम अबलाओंको ऐसी (विपरीत) बातें कहना कहाँतक उचित है ?'

किंतु फिर भी इतना कुछ सुनकर भी श्यामसुंदर वैसे ही शिलापर बैठे

मुस्कराते रहे । मल्लिकाके सुमन झरकर उनकी अलकों में उलझ रहे थे । हमारी धूमिल आशा अब श्रीकिशोरीजीके चरणोंसे जा लगी। सबके झुके मुखोंकी अश्रुरुध्द धुंधलाई दृष्टिके सम्मुख अंधकार अधिपत्य जमाने लगा था। अन्तरको मानो गर्म लोहेसे दागा जा रहा हो; तभी श्रीकिशोरीजीका स्वर सुनाई पड़ा - 'हम तुम्हारी दासी है श्यामसुंदर! हमारा.... उपहास.... तुम्हारे.... योग्य.... कार्य.... नहीं .... ।'

भरे कंठसे वे रुक-रुककर बड़ी कठिनाईसे बोल रही थी 'हमारा धर्म... ज्ञान रीति-लोक परलोक; .... सब....

कुछ... तुम्ही हो। तुम्ही बताओ! तुम्हारे.... ये.... अरुण... अमल... पदाम्बुज छोडकर हम कहाँ जायं? तुम्ही.... बताओ! तुमसे बड़ा धर्म... कौन.... सा..... है ?.... तुम्हारी.... लीलाओं से... तुम्हारे रूपसे... तुम्हारी..... हँसी.... और.... मीठी वाणीसे तुम्हारे.... बल... और.... गौरवसे.... तुम्हारे.... स्नेहिल स्वभावसे वशमें हुई. हम.... अबलायें.... अब.... कहाँ जायें ? क्या... तुम... मात्र.... व्रजराजकुमार ही हो ?'

'और बहिन वह चितचोर शिलातलसे उठ खड़ा हुआ, हँसता हुआ हमारे सम्मुख आया- अच्छा सखियों! तुम्हारी ही बात रहे। उसने कहा- चलो। इस सुन्दर रात्रिका नाच, गा और खेलकर सदुपयोगकर लिया जाये।'

'अपने पीताम्बरसे उसने हम सबके मुख पोंछे। जैसे हमारे मृत-तनमें जीवन जाग उठा हो, उस प्रसन्नताका वर्णन कैसे करूँ! कानोंके पथसे, जैसे जलते हुए हृदयपर सुधा धारा उडेली गयी हो। गजराजके साथ करिनियोंके झुंड-सी हम यमुनातटपर आयी और श्यामसुन्दरने 'मैं तुम्हारा क्या प्रिय करूँ सखियों ?' कहकर किसीके पुष्पवलय, किसीकी वेणी, किसीके नुपुर, हार, भुजबंद, करधनी और सीमन्तादि आभूषण बनाकर वह पहनाने लगे। साथ-ही-साथ हास-परिहास भी चला हमारे आनन्द कलरवसे वह पुलिन मुखरित हो उठा; तुम्हें वह सब स्मरण है न बहिन!' 'ललिता! यह सब तो हमारे एकान्त हृदयका अमूल्यवित्त है। इसका

विस्मरण ही हमारा अन्त है बहिन! अहा, उस समय हृदय आवेगसे कैसा अवश हो गया था कि छोटे-से-छोटा कार्य करनेमें भी हम असमर्थ हो गयी थीं। सिरसे ओढ़नी भी सरकती, तो ओढ़ानेके लिये उन्हें पुकारती और वे शीलधाम सबके मनोरथ पूर्ण करते हमारे बीच घूमते फिर रहे थे। हाय! एकबार भी हमें स्मरण नहीं हुआ कि वे सुमन सुकुमार श्रान्त हो रहे हैं! हम अपने मान सम्मानमें डूबी सौभाग्यपर इठला रही थीं कि अकस्मात वे न जाने कहाँ खो गये.... ।' – विशाखा अचेत हो भूमिपर लुढ़क गयी।

'आह! यह पाषाण हृदया ललिता ही रह गयी है सब सहने को बहिन विशाखा! कैसे समझाऊँ तुम्हें वे दिन दूरि गये। उस दिन कुछ क्षणोंमें ही उन्हें न देख पानेसे हम अर्ध- विक्षिप्त हो गयी थी, आज अनिश्चितकालके लिये उन्हें खोकर भी हम जी रही हैं। धिक्कार है प्राणोंकी इस परुषता को !' 'बहिन! चैतन्य लाभ करो तनिक देखो तो! तुम उस छोटी-सी हानिको

लेकर ही क्षुब्ध मथित हो रही हो, जब वर्तमानमें आओगी तो धैर्यका कहीं कूल किनारा ही न पा सकोगी। बहिन विशाखा! सुनो मेरी बात न सुनोगी ? महारासका वह आनन्द महासिन्धु; उसमें अवगाहन न करोगी? आँखें खोलो तो बहिन।' आह श्यामसुन्दर ! भली करी तुमने।' कहकर विशाखाने उठनेका प्रयत्न किया तो ललिताने बाँहें बढ़ाकर सहायता दी।

'आगे कह बहिन।'

'क्या करोगी सुनकर ? "

'सो नहीं जानती ललिता! किंतु इस चर्चाके अतिरिक्त हमारे लिये अन्य

उपाय ही क्या है ?"

श्रीकिशोरी जू के समीप कौन है ?' 'सुदेवी और चन्द्रावली बहिन हैं। वे अचेत हैं, उनकी अवस्था देखी

नहीं जाती। श्यामसुन्दर ! जिन आँखोंकी तनिक-सी उदासी तुम सह नहीं पाते थे, आज वे ही नेत्र तुम्हारे ही कारण निर्झर बन गये हैं। तुम तो इतने कठोर कभी ना था। यदि कोई अपराध बन पड़ा हो तो अनन्त काल तक दर्शन ना दीजिए। हम विरहाग्निमें जलती रहकर भी सुखी रहेंगी, किंतु तुम राधा बहिनको कष्ट न दो, हमसे सहा नहीं जाता। नया स्थान देखनेके लोभने तुम्हें इतना निष्ठुर बना दिया कि उन्हें, जो तुम्हारे ही अवलम्बपर जी रही हैं, नितान्त भुला बैठे ? ‘उस दिन, हाँ उस दिन जो किशोरीजी हम सखियोंके सामने भी तुमसे कुछ कहते सकुचा जाती थीं, वह संकोच और शीलकी प्रतिमूर्ति श्रीराधा गुरुजनोंके सम्मुख ही कातर हो ऊँचे स्वरसे 'गोविन्द ! दामोदर! माधव!' कहकर पुकार उठी थीं। वस्त्रों का ध्यान भूल अजस्त्र अनुवर्षण करते नेत्र तुम्हारे मुखपर टिकाये लज्जा त्यागकर उन्होंने तुम्हारे पीतपटका छोर थाम लिया था। यह देख बड़े-बूढ़ोंके नेत्र भी बरस पड़े थे और महाबली रामने व्यथासे मुख फेर लिया। क्या तुम तनिक भी न समझ सके कि किशोरीजीसे यह नितान्त असम्भव कार्य किस प्रकार सम्भव हो सका ?"

'आह निर्मम ! कोमलता पूर्वक धीरेसे अपना वस्त्र छुड़ाते हुए तुमने एक वाक्य- केवल एक छोटा सा वाक्य कहा था 'अहम् आयास्मे।' और तुम रथपर जा चढ़े थे। जब रथ चल पड़ा तो मैंने दौड़कर घोड़ोंकी वल्गा थाम ली थी, कई बहिनें घोड़ोंके आगे पथमें सो गयी थी। मैंने वल्गा थामे ही कातर याचनाकी थी— श्याम जू! वे स्वर्णवल्लरी छिन्न यूथिका सी भूमिपर पड़ी हैं, उन श्रीराधाको मैं कैसे धैर्य बंधाऊँगी? तब तुमने अपने आँसू भरे विवश नेत्रोंसे मेरी ओर देखकर कंठसे गुंजामाल उतारकर दी थी। वहीं गुंजामाल, जब उनके तड़फते हुए प्राण देहपिंजरसे मुक्त होना चाहते हैं, तो हम उनके गलेमें पहना देती है और तुम्हारे 'अहम् आयास्मे ।' का मधुर मंत्र उनके कानोंमें सुनाती हैं, जिससे उनका प्राणपंछी कुछ समयके लिये पुनः अर्गलाबद्ध हो शाँति पा जाता है।'

‘तुम्हारे उन भरे-भरे नेत्रोंको देखकर समझा था-राजा कंसकी आज्ञासे विवश होकर जा रहे हैं। जैसे ही अवकाश मिला, तुरन्त लौट आयेंगे। मथुरा ही कितनी दूर ? श्यामसुन्दर! सब लौट आये, पर तुम न आये। कंस मर गया है किंतु तुम्हें अवकाश न मिला निर्दयी! आज तुम्हारे उसी एक वाक्यपर भानुललीके प्राण अटके हैं। ओ निष्ठुर! जिनके एक दिन दर्शन न पाकर तुम व्याकुल हो उठते थे; आकर देख लो विरहमें उनकी कैसी अवस्था हो गयी। है। गुरुजनोंसे भी वे अपने दुःखकी लज्जास्पद स्थिति छिपा नहीं पातीं। श्यामसुंदर, मैं तुम्हारे पाय परूँ ! एक बार चलकर उन्हें देख लो, उनके नेत्रोंकी प्यास बुझा दो।'

'हाय, कितने दिन हम उन्हें भुलावे में रख सकेंगी, चलो.... चलो मोहन ! उनकी जीवन हानिसे बढ़कर व्रजकी तुम्हारी और क्या हानि होगी ? चलो माधव!'

'ललिता ! उठ बहिन, किशोरीजीके समीप चलें। जो प्रेमके अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार वशमें नहीं होता; वह आयेगा भी तो श्रीकिशोरीजीके ही कारण ! उस प्रेमसिन्धुके मिस हम भी दर्शन पा लेंगी; इस अरण्य रोदनसे क्या होगा!'

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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