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*🌹💙सखियों के श्याम💙🌹*
*(19)*
🌹 *दिन दुलहा दिन दुलहिन राधा नंदकिशोर* 🌹
'सखियों! सबके विवाह हो गये, किंतु जिनका विवाह देखनेको नयन तृषित हैं, उनका न जाने क्यों विधाताको स्मरण ही नहीं होता।'🌹
गोपकुमारियाँ सिरपर घड़े और हाथमें वस्त्र लिये जमुनाकी ओर जा रही थी। चलते-चलते चित्राने यह बात कही तो उत्तरमें इला बोली-
'अरी बहिन! बड़े भाई के कुमारे रहते, छोटे भाईका विवाह कैसे हो! इसी संकोचके मारे नंदबाबा अपने लालाका विवाह नहीं कर रहे,,,
'अहो, इला जीजी तो बहुत शास्त्र जानती है। किंतु दोनों सगे भाई तो नहीं कि नंदकुमारको परिवेत्ता होनेका दोष लगे!'- नंदाने हँसकर कहा।☺️
'सगे न सही। किंतु बाबा महा संकोची हैं। वे तबतक श्यामसुंदरका विवाह नहीं करेंगे जबतक दाऊ दादाका विवाह न हो जाय अथवा उन्हें उनके पिता वसुदेवजी मथुरा न बुला लें। पहले कंसने उनके ढेर सारे बालक मार दिये हैं, अब दाऊजी यहाँसे बड़े बलवान बनके जायेंगे और कंसको मारकर, माता पिताको सुख देंगे। अभी तो वे कंससे छिपकर यहाँ रह रहे हैं।' इलाने गम्भीरता से कहा।
'तबतक क्या श्रीकिशोरी जू कुमारी ही रहेंगी!'– नंदाने आश्चर्य व्यक्त किया।
'और नहीं तो क्या ?' विद्या हँस पड़ी-
'सगाई तो हो चुकी अब विलम्बके भयसे सगाई तोड़े वृषभानुराय; यह सम्भव नहीं लगता! अतः जबतक श्याम कुमारे तबतक श्री जू कुमारी!"
यह तो महा-अनरथ - अनहोनी होगी अहिरोंकी बेटी तो घुटनोंके बल चलनेके साथ ही सुसरालका मुँह देख लेती है। सच है बहिन! पर अब क्या हो, कठिनाई ही ऐसी आन पड़ी है।
अच्छा जीजी! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बड़े जब उनका अवकाश हो, तब उनका विवाह करें। हम अपने ढंगसे उनका विवाह रचकर नेत्रोंकी प्यास बुझा लें। क्षमाने इन्दुलेखाजीसे कहा; तो अनेक कंठोंने समर्थन किया हर्षपूर्वक 'विवाहका खेल कैसे खेला जा सकता है मेरी बहिन!' – इन्दुलेखा जीजीने स्नेहसे क्षमाकी ठोड़ी छूकर कहा।🌹☺️
'क्यों नहीं जीजी! जब कभी-न-कभी उनका विवाह निश्चित है, तो फिर खेलमें विवाह निषेध कैसे क्यों ? ' क्षमाने युक्ति प्रस्तुत की। 'अच्छा बहिन! मैं तेरी बात बरसानेकी बहिनों को बताऊँगी।
जीजी हँसकर बोलीं।
'बरसानेकी बहिनों से भी समर्थन प्राप्त हुआ और वह धन्य क्षण आया। दुःख यही है कि तुम ननिहाल थी कला! यह उत्सव देख न सकीं।' उत्तरमें कलाके नयन झर झर बरस उठे—'मेरा दुर्भाग्य ही मुझे यहाँसे दूर ले
गया था बहिन! नयन अभागे ही रहे, वह सौभाग्य तुम्हारी कृपासे कर्ण प्राप्त करें।"
'सुन सखी! जब सब बहिनें और श्यामसुंदरके सखा भी सहमत हो
गये, तो हमने अक्षय तृतीयाकी गोधूलि बेला विवाह के लिये निश्चित की। 🌹💙
श्रीराधा-कृष्णका शृंगार हुआ
गिरिराजकी तलहटीमें मालती-कुंजमें लग्न मंडप बना। गणपति पूजनके पश्चात दोनों मंडपमें बिराजित हुए। उस छविका वर्णन कैसे करूँ सखी! दोनों ही एक-दूसरे की शोभा देखना चाहते थे, अतः ललचाकर दोनों हीके नयन तिरछे हो जाते; किंतु लज्जा और संकोचके मारे दृष्टि ठहर नहीं पाती थी। दोनोंके माथे पे मोर और मोतीकी लड़ियाँ शोभित थीं। किशोरीजीका मुख घड़ीमें आरक्त हो उठता, सदाके मुखर कान्ह जू भी उस दिन सकुचायेसे बैठे थे।'☺️💙
'मधुमंगलने दोनों ओर का पौरोहित्य निभाया सदाके मसखरे मधुमंगलको धीर गम्भीर स्वरमें पाठ और शाखोच्चार करते देख विश्वास नहीं हो पा रहा था कि यह यही चिढ़ने-चिढ़ानेवाला मधुमंगल है।'☺️
'कन्यादानके समय एक आश्चर्य भयो! न जाने कहाँ ते एक बूढ़ा ब्राह्मण यह सौभाग्य मुझे आ पहुँचो, अपनी काँपती वाणीमें हाथ जोड़कर बोला- प्रदान हो! उसे देखते ही राधा-कृष्णने खड़े होकर प्रणाम किया और सिर हिलाकर उसकी प्रार्थना स्वीकार की।🌹
'उस बेचारे की दशा देखतीं तुम! रोमोत्थानसे काँपती देह सिथिल वाणीसे निकलता मन्त्र पाठ और नयनों से झरता प्रवाह जब पान सुपारी, श्रीफल, पुष्प और दक्षिणाके साथ उसने किशोरीजीका कर श्यामसुंदरके हाथमें दिया तो तीनों ही की देह हल्की सिहरन से थरथरा उठी। सखियाँ मंगलगान और सखा विनोद करना भूल गये।🌹
मधुमंगलकी वाणी वाष्परुद्ध हो कंठमें ही गोते खाने लगी। मानो सबके सब चित्रलिखे से रह गये।'🌹
'अब भांवरकी शोभा कैसे कहूँ.... !'-कहते-कहते क्षमाको रोमांच हुआ और वाणी तथा देह एक साथ कंटकित हो विराम पा गयी।💙
क्षमाके चुप होते ही कलाकी आकुल-व्याकुल दृष्टि ऊपर उठी गद्गद स्वर फूटा-
'भांवर.... भांवर कैसे हुई बहिन ?'
वह उतावलीसे बोली
'मेरे तृषित कर्णौको तृति प्रदान करो बहिन!'💙🌹
कुछ क्षण पश्चात संयत होकर क्षमा बोली- 'बहिन! उस शोभाका वर्णन करनेको मेरे पास तो क्या; वागीश्वरीके समीप भी शब्दोंका अभाव ही होगा! भांवरके पश्चात हम उन्हें निकुंज भवनमें ले गयी।'🌹
'उस बूढ़े ब्राह्मणका क्या हुआ- कौन था वह ?'– कलाने पूछा।
'विवाहके पश्चात प्रणामकरके दम्पतिने उसे दक्षिणाकी पृच्छा की। न
जाने कैसा ब्राह्मण था वह, बहुत देर तक आँसू बहाते हुए हाथ जोड़कर न जाने क्या-क्या कहता रहा, एक भी शब्द हमारी समझमें नहीं आया। सम्भवतः वह कोई अनुपम वरदान चाहता था। क्योंकि अंतमें जब वह प्रणामके लिये भूमिष्ठ हुआ तो श्यामसुंदरने उसे उठाकर 'तथास्तु' कहा।'☺️🌹
'निकुञ्ज भवनमें दोनों को सिंहासनपर विराजमान करके दो सखियाँ चँवर डुलाने लगी। ललिता जीजीने चरण धोकर हाथों का प्रक्षालन करा आचमन कराया। वर वधु किसी कारण इधर-उधर देखते तो लगता मानो नयन श्रवणोंसे कोई गुप्त बात करने त्वरापूर्वक उनके समीप जा लौट आये हैं। आचमनके अनन्तर षट्स भोजनका थाल सम्मुख धरा। विशाखा जू श्यामसुन्दरको और ललिता जू श्री किशोरी जू को मनुहार देना सिखा रही थीं। '🌹
'प्रथम, श्यामसुन्दरने मिठाईका छोटा-सा ग्रास श्रीकिशोरीजीके मुख में दिया; मानो कोई नाग अपनी विष ज्वाला न्यून करने हेतु चन्द्रमासे अमृत याचना करते हुए अर्घ्य अर्पित कर रहा हो। इसी प्रकार श्रीकिशोरी जू ने भी मिठाईका छोटा-सा ग्रास श्यामसुंदरके मुखमें दिया ऐसा लगा मानो नाल सहित कमलने ऊपर उठकर उषाकालीन सूर्यकी अभ्यर्थना की हो।'🌹
कलाके अधखुले नयन मुक्ता-वर्षणकर रहे थे। खुले काँपते अधरपुटोंसे धवल दन्तपंक्तिकी हल्की-सी झलक मिल जाती प्रत्येक रोम उत्थित हो, मानो अपनी स्वामिनीकी अंतरकथा कहनेको आतुर हो उठा। क्षमा समझ गयी कला राधा-कृष्णकी ब्याह लीला देखने में निमग्न है।🌹
'सुन कला! ध्यान फिर कर लेना अभी श्रवण सार्थक कर ले बहिन।'—
क्षमाने उसके कंधे हिलाये। उसके नयन उघड़े, तो भीतर भरा जल ऐसे झर पड़ा जैसे दो सुक्तियोंने मुक्ता वर्षण किया हो ।🌹
'आगे?'–
उस दृष्टिने प्रश्न किया और क्षमा कहने लगी-
'भोजनके पश्चात् इलाने हस्त-प्रक्षालन कराया ताम्बूल अर्पण किया। यह लो आ गयी इला भी, अब तुम्ही आगे की बात सुनाओ बहिन!'🌹
क्या कहुँ बहिन! सबकी सेवा निश्चित हो गयी थी, पर सखियोंने कृपाकरके मुझे अवसर दिया। अपनी दशा क्या कहुँ ! हाथोंका कम्प, नेत्रों के अश्रु और कंठके स्वर; सब मिलकर मुझे स्थिर अस्थिर करनेको मानो कटिबद्ध थे। किंतु सेवाका सौभाग्य भी तो कोई छोटा न था! श्यामसुंदरने अपने हाथसे ताम्बूल श्रीजूके मुखमें दिया और उन्होंने श्यामसुन्दरके मुखमें क्या कहुँ सखी! लाजके भारसे श्रीजूकी पलकें उठ नहीं पा रही थी, पर मन निरन्तर दर्शनको आतुर था! वे कोमल अनियारे झुके-झुके नयनकंज बार-बार तिरछे होकर मुड़ जाते। श्याम जू की जिह्वा भी आज सकुचायी-सी थी ।💙
चन्द्रावली जू और ललिता जू ने दोनोंसे कहा- 'नेक समीप है के बिराजो स्याम जू! नहीं तो सदा आँतरो रहेगो बीच में।' सुनकर सब सखियां हँस पड़ी थी। श्यामसुन्दर कुछ कहनेको हुए, पर कसमसा कर चुप हो गये।🌹☺️
'क्या बात है, आज बोल नहीं फूट रहा मुखसे; जसुदा जू ने बोलना नहीं सिखाया🌹☺️
बोलना तो आता है सखी! पर तुम मुझे गँवार कहोगी, इसी भयसे चुप हो रहा।'🌹☺️💙
'अच्छा स्याम जू! क्या कहना चाहते थे भला?"☺️
'जाने दो सखी; कुछ नहीं! तुम्हारी बकर-बकर सुनकर मौन हो जाना ही शुभ है।' – 💙☺️🌹
श्यामसुन्दरकी बात सुनकर सब हँस पड़ी। इसके पश्चात् आरती हुई ढ़ोल-मृदंग-वीणा-पखावजके साथ सखियोंके स्वर गूँज उठे–
'आरति मुरलीधर मोहन की प्राणप्रिया संग सोहन की।'
उस समयकी शोभा कैसे कहूँ🌹.... देखते ही बनती थी। शंख जलके छोटे पड़े तो चेत हुआ तथा इसके पश्चात गाना बजाना और नृत्य हुए।☺️
इन्दुलेखा जीजीके नृत्यके पश्चात चन्द्रावलीजूने कहा-
'मोहन!अब तुम दोनोंके गाने नाचनेकी बारी है।'🌹
युगल जोड़ीने तिरछे नयनोंसे एक दूसरे की ओर देखा। किशोरीजीने लजाकर पलके झुका लीं पर श्यामसुंदर हँसकर बोले-
'मैं क्या छोरी हूँ सखी ? यह सब काम तो तुम्हीं को शोभा देते हैं; मुझे तो गाना-नाचना आता नहीं।'☺️
"अहा.... हा, भली कही!'-
चन्द्रावलीज़ बोली
'हमने तो कभी देखा सुना ही नहीं न! अरे तुम तो हमसे भी सुन्दर नृत्य-गायन करते हो। तुम्हारी ये बातें यहाँ नहीं चलेंगी।'- कहकर उन्होंने उनके हाथ पकड़कर सिंहासन से उतार दिया,💙🌹☺️
इसी प्रकार ललिताजीने श्री जू को सहारा दिया। बीचमें राधा श्यामको अवस्थित करके हम सब चन्द्राकर स्थित हुई।☺️
'वैकुण्ठ हूँ ते प्यारो मेरो यह वृंदावनधाम।'–
श्यामसुंदरके आलाप लेते ही, वाद्य मुखर हो उठे; अन्य सब हाथोंसे ताल देने लगीं। दोनोंकी सम्मलित स्वर - माधुरी और नृत्य देखकर हमारे नेत्र धन्य हुए; हम कृतकृत्य हुईं ।💙
'सखी! अनेकों बार हमने अलग-अलग इनका नृत्य गान सुना है, किंतु यह माधुर्य, नेत्र चालन, हस्त मुद्रायें, निर्दोष पद-चालन और अंग विलास, स्वर ताल और भाव-वेष्ठित यह युगल.... ।'🌹💙
*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*
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