21

🌹💙 *सखियों के श्याम* 💙🌹

 *(21)* 

🌹 *महधन ब्रजरस पावन* 🌹

'तुझसे यह सब किसने कहा बहिन ?'

'क्यों? कई बहिनोंके मुखसे अनेक बार सुना कि ऋचा भूत भविष्य बता सकती है।'

'तो तुम्हारा ही विगत जानने की उत्सुकता हो आई।'– मैंने हँसकर कहा☺️

'क्या कुछ अनुचित कहा ?'

'नहीं इला! परन्तु विगत जानकर क्या करोगी? इतना सुन्दर सुरभित - सुघड़ वर्तमान हमारे सामने है, उसे छोड़ भूत-भविष्य की चिंता में क्यों पड़ें!'🌹

 'वर्तमान को छोड़ने अथवा उपेक्षित करने के आशय से नहीं, यह उत्सुकतावश पूछा था मैंने, यदि उचित न समझो तो रहने दो।' '

नहीं बहिन! इसमें अनुचित कुछ नहीं है। किन्तु कहाँसे आरम्भ करूँ, यही सोच रही हूँ !'- 

कहकर ऋचा कुछ क्षणके लिये चुप हो गयी। 'जिसे तुम हम विद्याके नामसे जानती हैं बहिन! वे भगवती ब्रह्मविद्या है।' ऋचाने मेरी ओर देखा। उसका नाम पहले ब्रह्मविद्या था ? "
मैंने सरलतासे पूछा- 'मैं तो तेरा विगत पूछ रही हूँ बहिन!'

'अपना विगत ही कह रही हूँ इला! ये विद्या ही वेदोक्त ब्रह्मविद्या हैं । जिन्हें प्राप्त करनेको पता नहीं कितने लोग-कितने जन्म जप-तप-सतसंगमें व्यतीत कर देते हैं, किंतु उनमें से किसी विरलेको ही ब्रह्मविद्याका ज्ञान होता है। वही भगवती ब्रह्मविद्या व्रजमें गोपकुमारी विद्या बनकर आई हैं।'🌹

'क्यों ? कैसे ?' – मैंने आश्चर्य पूर्वक कहा।

'एक दिन! नहीं; दिन कहना उचित न होगा बहिन! एक बार जब हम सब ब्रह्मलोकमें थीं.........।'🌹

'बाधा देनेके लिये क्षमा करना बहिन! हम सब तुम्हारा अभिप्राय अपने अतिरिक्त और किन-किनसे हैं?'– मैंने ऋचाकी बात काटकर पूछा। 
हम सब; प्रज्ञा, मेधा, क्रिया, सन्ध्या, उषा और मैं! हमारे यूथकी सभी बहिनें वेद की ऋचायें हैं बहिन। देवी ब्रह्मविद्या हमारी स्वामिनी है और हम सब उनकी अनुचरियाँ उन्होंने तपस्या करनेकी अभिलाषा व्यक्त की। यह अनहोनी-सी बात थी कि उन्हें कोई कामना हो, अभिलाषा हो! उससे भी बढ़कर यह कि उस अभिलाषाकी पूर्ति के लिये उन्हें किसी प्रकारका कोई कष्ट उठानेकी आवश्यकता हो! फिर ऐसा है ही क्या ब्रह्माण्डमें, जो उनका काम्य बननेका सौभाग्य प्राप्त करे ?"

किन्तु हममें से किसीने कोई प्रश्न नहीं किया, चुपचाप उनके अनुगमन में चल पड़ी। जब तपस्वियों का तप पराकाष्ठापर पहुँच परिपक्व होता है वहींसे—उस स्तरसे देवीकी तपस्या आरम्भ हुई। 🌹

कितने वर्ष ? यह न पूछना बहिन ! वह गिनती सम्भव नहीं है। अवश्य ही मुझे कलकी-सी बात लगती थी, जिसकी आयुका परिमाण अंतहीन-सा हो, उसे तो जैसे समय शीघ्रगामी लगता है, घटनायें पल-घटिकाओं पहलेकी लगती है। जैसे पर्वतपर खड़े व्यक्तिको पेड़-पौधे और प्राणों उनके और अपने स्वयंके परिमाणसे भी छोटे लगते हैं, वैसे ही समय तीव्र गति से भागता सा लगता!'

'बहिनों, तुम सब क्यों श्रमित होती हो! तुम सब ब्रह्मलोक चली जाओ। मैं अनन्तकालतक यहाँ इसी प्रकार कालक्षेप करती रहूँगी।' 'आजीवन ? '🌹

'हाँ; कभी भी, कहीं भी जीवनकी इति हो, मैं उस समयतक लक्ष्य प्राप्तिका यत्न करती रहूँगी।'

सहस्रों वर्ष पश्चात उस दिन देवीके मुखसे यह बात सुनकर लगा हृदयमें तप्त शलाका प्रवेशकर गयी हो तुम्हीं कहो बहिन! हम उनसे अभिन उनकी अंश स्वरूपायें उन्हें छोड़ कहाँ जाये ?💙
 हमारी गति ही कहाँ है उनके अतिरिक्त ? 💙

हमारे मौन अश्रुपातने सारी कथा कह दी। रहो: जैसी तुम्हारी इच्छा बहिनों' कहकर वे मौन हो गयीं।🌹

पुनः सहस्रों वर्ष बीत गये साक्षात् ब्रह्मविद्याको वर देने का साहस करे ऐसा देवता हो कौन है ?

उनका तप अविराम चलता रहा है और हम अनुचरियाँ मौन सेवामें लगी रहीं। सेवा भी क्या बहिन! वे नेत्र मूँदे ध्यानमें आसनबद्ध अवस्थामें बैठी रहतीं। भोजन-पानीको आवश्यकता किसीको न थी। स्वामिनीकी प्रसन्नता, उनके संकल्प-से ही हमारा पोषण होता। आर्द्र वस्त्रसे उनकी देह पोंछ देतीं, उन्हें वर्षा आतपसे बचानेका यत्न करतीं। आसपास मार्जनी फेर देतीं सिद्धियाँ विनम्र सेवामें उपस्थित होतीं, किंतु उनका प्रयोग वर्जित था! देवीका प्रथम संकल्प ही यह था कि सिद्धियाँ ब्रह्मलोकमें ही रहें। तपस्याकालमें उनकी सेवा स्वीकार करना विघ्न स्वरूप था।🌹

युगों पश्चात् जब देवीने हमें ब्रह्मलोक जानेकी बात कही, तो लगा लम्बी आयुसे बढ़कर दूसरा दुर्भाग्य नहीं है। कहाँ तो हम इस आशामें थी कि ध्यानसे जागकर देवी हमें अपने सफल मनोरथ होनेकी सूचना देंगी और कहाँ यह कठिन बात सुनी। स्वामिनीके स्वरकी निराशाने हमें व्यथित कर दिया।

उसी दिन हाँ, उसी दिन अपराह्नमें देवर्षि नारद पधारे।☺️ 
दीर्घकाल पश्चात महत्तम अतिथिको पाकर हम सब सम्भ्रम उठ खड़ी हुई हृदयमें आशाका सागर हिलोरे लेने लगा- अब अवश्य ही लक्ष्य प्राप्तिका कोई सूत्र प्राप्त होगा। हमारे कर उनके सत्कारमें लग गये। 🌹☺️

देवीने उठकर प्रणिपात किया। 🌹
अर्घ्य पाद्य स्वीकार करनेके अनन्तर आसनासीन होकर देवर्षिने परिचयकी जिज्ञासा व्यक्त की। 'ये भगवती ब्रह्मविद्या हैं भगवन्! और हम सब इनकी विनम्र किंकरियाँ।' 'भगवती ब्रह्मविद्या !!– देवर्षि जेसे चौंककर बोल पड़ें।

देवीके श्रीअंगोंसे छिटकते स्निग्ध-दिव्य प्रकाशको निरख अभिभूतसे बोले—'मेरा शिरसा वन्दन स्वीकार करें देवी।' उन्होंने करबद्ध हो जर सिर रख दिया उनके पदोंके समीप ।👏🏻

'अतिथि भगवत्स्वरूप होते हैं भगवन् ।'–देवीने हाथ जोड़ विनम्र निवेदन किया।👏🏻

'यदि अपात्र न समझा गया होऊँ, तो देवीका महत् काम्य जान सकता हूँ ? '

 'आप तो विश्वेशके मनकी संज्ञा पाते हैं भगवन्! आपसे अलक्ष्य क्या है ? यदि मेरे ही मुखसे जानना चाहते हैं तो - अखिल ब्रह्माण्डनायकने धरापर अवतीर्ण होनेका संकल्प लिया है।'🌹

 उन्होंने सिर नीचा किये हाथ जोड़े हुए संकुचित धीमें स्वरमें कहा-'उनका सानिध्य सेवा बिना प्रेमके मिले भी तो वह.... वह....💙 
' उनका स्वर डूबने लगा, सम्हलकर बोलीं- 'और प्रेम भक्ति-तप साध्य नहीं प्रभु ! उनकी अनुकम्पा ही साध्य है- आशा है। प्रयत्न प्रतिक्षा ही तो बसमें है। वे करुणावरुणालय आनंदघन कृपा करें.... आगेके शब्द वाष्परुद्ध कंठ और आँसुओंमें विलीन हो गये हैं।💙

देवर्षिने पुनः भूमिपर सिर धरकर उस स्निग्ध, कोमल, ज्योतिर्मय और ज्ञानघनवपुको नमनकर कुछ क्षण भूले रहे अपनेको और फिर मंत्र कीलितसे उठकर चल दिये।🌹

इसके पश्चात् कितना समय व्यतीत हुआ ज्ञात नहीं। देवीका तप और लगन बढ़ते रहे। उनके ध्यानावस्थित अर्धनिमिलित नेत्रोंसे बूंदें झरती रहतीं, देह रोमांच-कंटकित रहता। कभी वे अत्यधिक शीतधिक्यसे प्रकंपित होती और कभी आतपतप्त-सी स्वेद धाराओंसे स्नात हो उठतीं । विभिन्न ऋतुयें मानो उनकी देहमें प्रतिफलित दिखायी देंती कि एक दिन प्रातः ही देवीके मुखसे भावविगलित स्वर निसृत हुआ—🌹💙

 'श्रीकृष्ण.... गोविन्द..... दा. मो. द. र. मा. ध व श्याम सु. न्द र.... ।' उन दीर्घ दृगों में जैसे आँसुओंकी बाढ़ आ गयी।🌹

हम सब दौड़कर समीप आ गयीं। क्रियाने अश्रु मार्जनके लिये जैसे ही उनका स्पर्श किया, एक हलकासा धक्का लगा उसे और उसकी अवस्था भी देवी सदृश हो गयी। उसे और देवीको सम्हालने के प्रयत्न स्वरूप स्पर्श से सबकी दशा एक-सी हो गयी। सभी प्रकम्पित कंटकित देह – वाष्परुद्ध कंठ-अश्रुमाल पिरोते नेत्र- उठते-गिरते गद्गद स्वरमें गाने लगीं– 'गोविंद.... दामोदर.... माधव... केशव कृष्ण कृष्ण... कृष्ण... कृष्ण कृष्ण...।'💙👏🏻

किसीको भी बाह्य चेतना न थी। ऋचाके नेत्र झरने लगे, देह प्रबल प्रभंजनसे कंपित वृक्ष-सी डोलने लगी और उत्थित रोमकूपोंसे स्वेदधारा बहकर वस्त्र आर्द्र करने लगीं। जिह्वा लटपटे स्वरमें 'गोविन्द.... दामोदर माधव....' की आवृत्ति करने लगीं। कुछ देर बाद सम्हलकर उसने अपनी पलकें झुका लिये। कितना समय इस आनन्द सागरमें डूबते-उतराते बीता, जाननेका उपाय नहीं था।

'देवीने ही प्रकृतिस्थ हो हमें बताया कि वे सफल मनोरथ हुई हैं। और क्या कहूँ बहिन!'—ऋचा ने थके स्वरमें पूछा।

'अखिल ब्रह्माण्डनायक! श्यामसुन्दर ! देवी वृषभानुजा और हम सब कृतकाम्य होंगी? उनका प्रेम, यह कात्यायनी व्रत और.... '🌹

'इला!' ऋचा गम्भीर होकर दूर क्षितिजकी ओर देखने लगी- 'देवी वृषभानुजा उनकी अभिन्न स्वरूपा हैं। श्यामसुन्दरकी दया कृपा करुणा प्रेमकी घनीभूत स्वरूप ही श्रीकिशोरी जू है। हम सब कृतकाम्य है इनका सानिध्य, सेवा और दर्शन पाकर इससे बढ़कर ब्रह्माण्डमें कुछ भी स्पृहा योग्य नहीं है किन्तु.

'किन्तु क्या बहिन ?"

प्रेमका चरम विकास परिपाक 'विरह' में ही होता है। 'यह सम्भव नहीं बहिन! अन्यथा व्रज महा श्मशानमें परिवर्तित हो जायेगा। कृपाकर ऐसी भविष्यवाणी न करना।'

'नहीं करूँगी बहिन! बसना उजड़ना भविष्यवाणीपर नही, किसीकी इच्छापर निर्भर है। पहले कौन क्या था, आगे क्या होगा इसका विचार छोड़ सम्मुखके रस-सागरमें अवगाहन ही महत्वपूर्ण है। अतः यही करो बहिन! यही करो। आजकी इस रसहीन चर्चाको भूल जाओ।'🌹

आह! कितना समय व्यर्थ गया.... श्रीराधे करुणामयी! ऐसा अवसर न आये.... न... आये.... ।🌹

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला