11
*🌹💙सखियों के श्याम💙🌹*
*(11)*
*🌹राधे करुणामयी कहातीं हैं🌹*
गिरिराज जू!
तुम तो व्रजके जाग्रत-देवता हो, श्यामसुंदरके अतिशय प्यारे हो। उस दिन इन्द्रके कोपसे तुमने ही तो व्रजकी रक्षाकी थी।
अहा! कन्हाईके नखमणिपर विराजित तुम्हारी शोभा अवर्णनीय थी। अमरावतीका अधिपति अपना-सा मुँह लेकर रह गया, तुम्हारे आगे एक न चली उसकी! जिस दिन तुम्हारी पूजा हुई श्यामसुंदर कह रहे थे-
'ये हमारा मनोरथ पूर्ण करनेवाले साक्षात जाग्रत देवता हैं, इनसे जो भी माँगोगे मिलेगा!'
गिरिराज तुमने डूबते व्रजकी रक्षा की गायोंको चारा-पानी और हमको निवास दिया है। आज मैं तुम्हारी शरण आयी हूँ; मेरे मनकी अभिलाषा भी पूरी करो प्रभु ! 🌹👏🏻
घर बाहर सभी कहने लगे हैं-
'माधवी अब बड़ी हो गयी, इसका विवाह आवश्यक है।'
सुन-सुनकर कलेजेमें शूल सी चुभ जाती है। अपना दुःख किससे कहूँ ? बाबा जब आसपासके खेड़े और व्रजके छोरोंकी चर्चा मैयासे करते हैं तो मेरी आँखोंके आगे अंधेरा-सा छा जाता है, हाथका काम बिगड़ जाता है और मैयाकी डाँट खानी पड़ती है। कुछ समझमें नहीं आता।
गिरिराज महाराज! तुम अंतर्यामी हो, सबके मनकी जानते हो,
वे व्रज युवराज हैं और मैं साधारण गोप कन्या !
हमारे महाराज श्रीवृषभानुरायकी ललीसे सगाई हुई है उनकी;
सो वे कहाँ और मेँ कहाँ?
किंतु क्या करूँ महराज! मैंने तो ऐसी बात कभी स्वप्नमें भी नहीं सोची, मैं अपना रूप स्वरूप भी जानती हूँ। किसी भी तरह उनके योग्य उनकी चरणरजके योग्य भी अपनेको नहीं पाती; पर यह मन हत्यारा मानता नहीं! अपनी ही बात तो नहीं, इस व्रजमें न जाने कितने प्राणी तरस रहे हैं।
कल इसी समय मनकी विकलतासे घबराकर यहाँ चली आयी, तो देखा एक भील किशोरी, अहा! उसके प्रेमका क्या वर्णन करूँ महाराज! दुर्वापर हाथ फेर-फेर कर हृदयसे लगा रही थी। मेरी समझमें नहीं आया तो धीरे-धीरे चलकर उसके समीप पहुँची पूछा-
'क्यों सखी! क्या कर रही हो ?"
वह चौंक कर खड़ी हो गयी उसे भागनेकी तैयारी करते देख हाथ पकड़कर पुनः पूछा, तो उसके नेत्रोंसे दो धारायें बहकर वक्षस्थल भिगोने लगीं। बहुत धीरज दिलानेपर अटक-अटककर बोली-
'आपके.... वा.... सांवरे... कुंवर.... वा... की चरन रज !' 💙🌹
हिलकियोंके मध्य ये टूटे शब्द उसकी सारी मनोव्यथा स्पष्ट कर गये। एक ही रोगके दो रोगी मिले, तो जात-पाँत और ऊँच-नीच अपने प्राण लेकर भाग छूटे।🌹
'तू धन्य है सखी!' कहकर मैं उससे लिपट गयी। दोनों खूब रो धोकर अपने-अपने घर गयीं।
गिरिराज जू! ऐसी कृपा करो कि मैं छोरी ही बनी रहूँ, मैया बाबाके मनमें मेरे बड़े होनेका ज्ञान कभी न आये। श्यामसुंदरकी बात तो बहुत दूर है, पर श्रीकिशोरीजी तो हमारी राजकुमारी हैं; उनकी चरण सेवा मुझे प्राप्त हो जाय! ब्याह-व्याह मुझे नहीं करना। किशोरीजीकी सेवाके बीच मुझे श्यामसुंदरके भी दर्शन मिलेंगे, मेरा जीवन-जन्म सफल हो जायेगा; अन्यथा सिसक-सिसककर मरना पड़ेगा। सखियोंसे सुना है वे केवल मनका उजलापन देखते हैं, तनका नहीं; किंतु मेरे तो विधाता ही दक्षिण हो गया है। तन तो काला दिया ही, मन पोतनेको भी उसे तनिक-सी खड़िया नहीं मिली🤦🏻♀️।
हृदयमें थोड़ा भी प्रेम होता! मैं धन्य धन्य हो गयी होती क्या करूँ महराज! तुम्हीं दयाकर थोड़ा सा प्रेमदान दे दो और इस समय तो जैसे भी हो इन तृषित दृगोंको तरसते तपते हृदयको उनके दर्शन करा दो श्यामसुंदर कहाँ है, किस ओर गये हैं बताओ गिरिराज जू! कहाँ है कान्ह जू? हियकी पीर सही नहीं जाती।💙
हैं! कहाँ बजी यह बंसी ?🌹
आह रे अभागे ! दौड़ा मारा तू ने मुझको
अब कहाँ जाऊँ किससे पूछूं कि श्यामसुंदर कहाँ हैं!
अब चला नहीं जाता, हाय रे मन!
तुझे क्या करूँ? यदि मेरे हाथमें होता तो तुझे जलाकर राख कर देती और उस राखको भी इतने गहरे गाड़ देती कि धरापर आनेमें शताब्दियाँ लग जातीं; तबतक मैं अपनी गैल लगती। किंतु जल तो यह अब भी रहा है, हाँ जल रहा है और मुझे भी जला रहा है।
यह शिला सुचिक्कन है, बैठ लूँ थोड़ी देर; नहीं लेट ही जाऊँ। अहा, तुम इतनी ठंडी कैसे हो शैलसुते! क्या श्यामसुंदरने यहाँ बैठकर विश्राम किया था? कि उनके उत्ताप हर-स्पर्शने तुम्हारा दाह हर लिया ?
हे प्रभु! इस विचारने तो अग्निमें जैसे ईंधन डाल दिया—'मैं क्या करूँ! कहाँसे सुलभ हों मुझे श्याम ? मैं.... क्या.... करूँ....!'
'माधवी!. ऐ माधवी! आँखें खोल।'
'यह... यह... कौन... पुकार.... रहा.... है... मुझे ? यह मीठा स्वर किसका है? होगा कोई मुझे क्या!'
'नेत्र उघाड़ माधवी।'🌹
ओह! दो क्षण भी एकान्त नहीं जुटता, यहाँ वनमें व्याघात बनकर उपस्थित हो गया कोई!
पर इतना सुहावना कण्ठ स्वर- क्या काम है मुझसे ?
थक गयी हूँ, पड़ी रहने दो!'
'मेरा एक काम कर देगी ?"
'सबके कार्य करनेको एक माधवी ही तो रह गयी है; किंतु माधवीसे कोई नहीं पूछता ?'
'क्या काम है तेरा; कह, मैं कर दूँगा।'
'अपना कार्य तो होता नहीं, सो यहाँ वनमें माधवीको ढूंढ़ने चले आये और मेरा काम कर देंगे ! किंतु रहने दो, मेरा काम किसीसे होने जैसा नहीं है, तुम अपनी कहो! मुझसे उठा नहीं जाता.... तुम कार्य बताओ?"
'ले मैं उठा देता हूँ।'🥰
यह स्पर्श.... ! देहमें सिंहरन-सी दौड़ गयी, नेत्र अपने आप उघड़ गये। मैं लाज भूल गयी; दोनों पदोंमें भुजाओंके वेष्ठन दे, चरणोंपर सिर रख दिया! अश्रु प्रवाह उनका प्रक्षालन करने लगे।
'माधवी!💙
'- स्नेह भरे स्वरमें धीरेसे पुकारा उन्होंने मेरे भूलुण्ठित केश-पाश बाँध दिये अपने करकमलोंसे, और पुनः स्निग्ध स्वर कानों में पड़ा -
'क्या हुआ माधवी ? '🌹
मैं क्या कहूँ? वैसे ही पड़ी रोती रही।
'मेरा काम नहीं करेगी ?'
उन्होंने मेरा मुख अंजलीमें भरकर ऊपर उठाया-
'बड़ी आस लेकर आया था तेरे पास!'
मैं बैठ गयी, प्रश्नयुक्त दृष्टि उठायी।
'तू मो ढिग रहनो चाहे ?'
मेरे नेत्र पुनः झरने लगे, सिर झुक गया। जो पिपासा दावानलका रूप ले बैठी है, उसे नेत्र अभिव्यक्ति देने लगे।
तू नंदभवनमें रहना चाहेगी कि वृषभानुपरके अन्तःपुरमें ?"- वे हँस पड़े ☺️
'श्याम जू!'
मैंने कठिनाईसे कहा-'परिक्षा मत लो, मैं इस योग्य नहीं!'
'निर्णय मुझपर ही छोड़ा तो सुन-तू वहाँ श्रीकिशोरीजीकी सेवामें मेरी संदेश वाहिका बनकर रह ।'☺️
'कौन रहने देगा वहाँ मुझे ?'
'यह मुद्रिका ले।'💍
उन्होंने अपनी अनामिकाकी मुद्रिका मुझे पहनाते हुए
कहा— 'संदेश लेती जा ! इसे देखकर वे सब समझ जायेगी।'💙
'बाबा ब्याहकी बात कर रहे हैं।'– मैं पुनः फूट पड़ी।
'उनके समीप जाकर सब संकट कट जाते हैं।'🌹
'श्यामसुंदर!"
घनश्याम बड़ो कि श्यामघन सखी री☺️
'तेरा और मेरा दोनोंका कार्य बन गया सखी।'
'संदेश ?"
'गिरिराज निकुञ्जमें मोर नाचते हैं।'
'मैं कृत-कृत्य हुई मोहन।'💙
'नहीं माधवी! कृत-कृत्य तो तू वहाँ जाकर होगी। वहाँ जाकर मुझे भूल जायेगी और उनसे कहेगी- श्री जू! मुझे तो अपने ही चरणोंकी सेवामें नियुक्त कर लें?"🌹🥰
वे हँस कर उठ खड़े हुए।🌹☺️
*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*
Comments
Post a Comment