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।।श्रीहरिः।।

सखाओं का कन्हैया

(ठाकुर श्रीसुदर्शनसिंहजी 'चक्र')
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             (5). भोला

          'कनूँ ! खूब मधुर, बहुत स्वादिष्ट पायस है।' भद्र अपने सम्मुख केशर पड़ा सुरभित पायस से परिपूर्ण पात्र लिये बैठा है। 'तू खायेगा ?'
          'खाऊँगा !' कोई स्नेह से बुलावे तो ब्रजराजकुमार भोग लगाने न आ बैठे ऐसा नहीं हो सकता। अब श्यामसुन्दर भद्र के समीप आकर बैठ गया है।
          श्याम और भद्र दोनों बालक हैं। दोनों लगभग समान वय के हैं। इन्दीवर सुन्दर कन्हाई और गोधूम गौर भद्रसेन। दोनों की कटि में पीली कछनी है; किन्तु कृष्ण के कन्धे पर पीताम्बर पटुका है, भद्र का पटुका नीला है। दोनों के पैरों में नूपुर हैं, कटि में स्वर्ण मेखला है, करों में कंकण, भुजाओं में अंगद हैं। कौस्तुभ तो केबल कृष्णचन्द्र का कण्ठाभरण है, जैसे श्रीवत्स इसी के वक्ष का चिन्ह है; किन्तु मुक्तामाल, गुञ्जामाल दोनों ने पहन रखी हैं। दोनों के बड़े-बड़े नेत्र अञ्जन-रञ्जित हैं। दोनों के भाल पर गोरोचन-तिलक है। दोनों की अलकें तैल-सिक्त हैं और यदि श्याम की अलकों में मैया यशोदा ने मयूर-पिच्छ लगाया है तो माता रोहिणी ने भद्र की अलको में हंसपिच्छ लगा दिया है।
          भद्र के वाम घुटने से दाहिना घुटना सटाकर कन्हाई ऐसे जमकर बैठ गया है कि दोनों के शरीर से त्रिकोण बन गया है। इस त्रिकोण में सामने स्वर्णपात्र केशरिया पायस से भरा धरा है। लेकिन चमस (चम्मच) एक ही है स्वर्ण का और वह भद्र के दक्षिण कर में है।
          'ले ! भद्र ने चमस भरकर उठाया और श्याम को खिलाने के लिए हाथ उठाया।
          उँह, खट्टा होगा तो ?' कन्हाई ने सिर एक ओर हटा लिया–'तू पहिले खा।'
          'कहीं पायस भी खट्टा होता है।' भद्र ने समझाना चाहा–'इसमें देख तो रहा है कि द्राक्षा पड़ी है, मिश्री मिली है, मुख खोल ?'
          'तू पहिले खा।' मोहन क्यों मुख खोलकर अपना स्वाद बिगड़ने का अवसर दे सखा को। वह कहता है–मिश्री और द्राक्षा पड़ने पर भी क्या खट्टा दही खट्टा नहीं रहता ?
          यह दही तो नही है। भद्र फिर आग्रह करता है–'पायस खट्टा नहीं होता। तू खाकर तो देख।'
          'क्या पता होता हो तो ?' कन्हाई का कहना भी तो ठीक ही है–'खट्टा नहीं है तो तू पहले क्यों नहीं खाता ?'
          'अच्छा !' भद्र ने पायस-भरा चम्मच अपने मुख में ले लिया और सिर हिलाकर प्रसन्न मुख करके बोला–'बहुत स्वादिष्ट है। खूब मधुर है। सुगन्धित है।'
          श्याम भद्र के मुख की ओर देख रहा है। उसकी भंगी कहती है–भद्र तो उसे कभी परिहास में भी धोखा देता नहीं। यह कहता है तो पायस मधुर होना याहिये।
          माता रोहिणी ने पायस बनाया है। वे भद्र को या किसी बालक को खट्टा दही भी नहीं दे सकती; किन्तु यह सब नन्हा कन्हाई कहाँ सोच पाता है। दूध गाढ़ा होकर दही हो जाता है और दही खट्टा भी होता है। अब यह पायस गाढ़ा-गाढ़ा दीखता है। क्या हुआ कि इसमें द्राक्षा और केशर पड़ी है। यह पायस है या दही ? श्याम को यह निर्णय करना भी कहाँ आता है ? लेकिन भद्र खा रहा है तो वह भी खायेगा।
          'अब ले !' भद्र ने दूसरा चमस भरा और कृष्णचन्द्र के मुख की ओर बढ़ाया।
          'उहुँ !' श्याम ने फिर हटा लिया–'तू इसमें से मीठा-मीठा खा लेगा और खट्टा-खट्टा मुझे खिलावेगा।'
          एक ही पात्र में कुछ खट्टा और कुछ मीठा पायस नही हो सकता क्या ? पायस और दही दोनों केशर मिलाकर एक ही पात्र में भरे हों तो यह चार वर्ष का कन्हाई उनका अन्तर कैसे पहिचाने ? भद्र तो चतुर है। मैया, बाबा, माँ रोहिणी–सब तो कहते हैं कि भद्रसेन बहुत चतुर' है।
          'ले तू अपने हाथ से खा।' भद्र ने दूसरा चमस भी अपने मुख में दे लिया और उसका पायस खाकर चमस श्याम को देने लगा।
          'मुझे कहाँ पता कि यह किधर कितना खट्टा है ?' कन्हाई ने चमस को हाथ में लेना स्वीकार नहीं किया।
          यह तो कहीं भी खट्टा नहीं है। बहुत मधुर है !' भद्रने फिर समझाया–लेकिन तू खायेगा किस प्रकार ?'
          'मैं बतलाऊँ ?' नन्दलाल प्रसन्न होकर ऐसे बोला जैसे उसने कोई बहुत बड़ी समस्या सुलझा ली हो–'तू यह चमस भर और आधा चमस स्वयं खाकर आधा मुझे खिला।
          क्यों, यह उपाय अचूक है या नहीं ? पात्र में कहीं खट्टा दही भी हो तो उसे चमस में भरा जा सकता कि भद्र स्वयं आधा चम्मच मधुर खाकर खट्टा भाग कृष्ण को खिला सके।
          'अच्छा !' भद्र को भला इसमें क्या आपत्ति होनी है। वह अब चमस पायस से भरकर उठाता है। आधा स्वयं खाकर तब आधा चमस अपने कनूँ के मुख में देता है। दोनों के वक्ष पर, कछनी पर कुछ पायस तो गिरेगा ही।
          कन्हाई प्रसन्न है। पायस इसे सचमुच मधुर लगा है। बार-बार सखा के मुख की ओर देखता है मानों नेत्र कहते हैं–'देख, तू चाहे तो भी मुझे छका नहीं सकता।' यह भोला श्रीब्रजराजकुमार !

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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