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*🌹💙सखियों के श्याम💙🌹* 

 *(10)* 

 *🌹सुनकर कौन पतियावै🌹* 

'क्यों री हेमा! तू ऐसी मरीमरी-सी क्यों हो रही है ? " उत्तरमें हेमाकी आंखें मुक्ता-वर्षण करने लगीं। हम सबने चकित हो उसे घेर लिया।

'यह क्या बहिन! हमें न कहोगी मनकी बात ?"

'क्या कहूँ बहिनों! मैं महाअधम हूँ; किसी प्रकार इस तनसे मुक्ति पाऊँ तो शांति मिले!'– हेमाने रोते हुए कहा।

"ऐसी क्या बात हो गयी ?"

'कहते लज्जा लगती है बहिनों! एक दिन गायें दुही जा चुकी तो मैं बछड़े बाँधने खिरकमें गयी नीलाका बछड़ा गौराङ्ग बैठा था, सबसे पहले मेरी दृष्टि उसी पर पड़ी। मनमें था, रज्जूका एक संकेत दूँगी तो वह उठ खड़ा होगा। किंतु सम्मुख होते ही स्मरण न रहा कि मैं क्यों आयी हूँ-मुझे क्या करना है,,,☺️
मैं तो उसके समीप उसे गोदमें लेकर बैठ गयी। 
वह भी अपना मुख – सिर मेरे अंकसे टिकाकर अधखुली आंखोंसे मुझे देखने लगा।"

'सखी! कहते लज्जा लगती है, पर बिना कहे तुम मेरी अधमताका परिचय कैसे पाओगी? 
कैसे ज्ञात होगा तुम्हें कि हेमाकी इस स्वर्णलता-सी देहमें कज्जलसे भी अधिक काला मन है। 
क्या कहूँ; गौराङ्गके स्पर्श मात्रसं मुझे रोमोत्थान हो आया, हृदय आनंदसे उद्वेलित होने लगा और उसके उन अधखुले नेत्रों की दृष्टिने तो मेरी सारी चेतना हर ली। कितना समय व्यतीत हुआ मुझे मालूम नहीं! न जाने कब वह उठकर अन्यत्र चला गया पर मैं वैस ही संज्ञाशून्य सी बैठी रही।'💙

'मैयाने आकर डाँटा तो बाहरी ज्ञान हुआ। सम्पूर्ण रात्रि वह स्पर्श मुझे रह-रहकर रोमांचित करता रहा। 
प्रातः मंगल भैया आये, तुम जानती हो मेरे भाई नहीं हैं। मंगल ही हमारे बछड़े चराने ले जाता है। 
मैयाने छींका सजाकर दिया कि उसे थमा आऊँ।
 मैं खिड़कमें जाकर जैसे ही उसे छींका देने लगी, तो उसने हँसकर मेरी ओर देखा और बोला- इसमें क्या-क्या पकवान रखे हैं सखी ?"☺️

'उसकी दृष्टि, उसकी हँसी और स्वरने मेरी वही स्थिति कर दी जो गौराङ्गके स्पर्शसे हुई थी। मुझे स्मरण ही नहीं रहा कि सदा 'हेमा' अथवा बहिन कहने वाला मंगल आज मुझे 'सखी' क्यों और कैसे कह रहा है? 💙🌹
बहिनों! मैं महा अधम हूँ तुम सब मुझसे घृणा करो, मुझे धिक्कारो।'- कहती हुई हेमा रोती हुई हमारे चरणों में गिर पड़ी।


'सुन हेमा! तू धैर्य धारण कर हमारी बात सुन! यह कोई तेरी अकेलीकी ही व्यथा नहीं; यह सब थोड़े-बहुत अंतरके साथ हम सबपर गुजरी है। 

महिनेभर-से जड़, चेतन और मनुष्य, सबकी मति गति पलट गयी है। 

तु क्या नहीं देखती ? पहले सब के सब बछड़े और बालक श्यामसुंदरके साथ वनसे लौटकर नंदभवन ही जाते, वहाँसे गोप जाकर अपने-अपने बछड़े लेकर आते; गोपियाँ रात होनेपर बालकोंको बहला-फुसला कर ही ला पातीं। कोई श्यामसुंदरका साथ छोड़ना नहीं चाहता था। अब तो सब बालक अपने अपने बछड़े लेकर सीधे घर चले जाते हैं। कोई भी तो श्यामके साथ नंदभवन नहीं जाता। पहले प्रातः होते ही बालक नंदभवनमें इकट्ठे हो जाते थे और उनके साथ ही बाहर निकलते। और अब अपने घरके सामने आनेपर बछड़े लेकर पथपर ही समूहमें मिल जाते हैं। पथमें भी हम प्रातः सायं देखती हैं सब अपने आपमें मगन नाचते-गाते चलते हैं, कोई कृष्ण-बलदाऊसे विशेष प्रीति नहीं दिखाते।

 पहले तो बिछुड़ते तो जेसे प्राणोंको कोई शरीरसे अलग कर रहा हो, ऐसे व्याकुल होते!'

'सच कहती है वसुधा!' विद्या बोली- 

'पहले तो बछड़े भी फिर-फिर कर कान्ह जू को निहारते, दौड़ दौड़कर सूंधते; अब तो वैसा कुछ भी नहीं है।'

'हाँ बहिन! अब तो कोई श्यामसुंदरकी बात भी नहीं करता! सब बड़े बूढ़े गोप-गोपी अपने-अपने छोरे बछड़ोंकी बात करते हैं और पहले तो व्रजमें श्यामको छोड़ और कोई चर्चा थी ही नहीं!'

'यह क्या बात हुई, कुछ समझमें नहीं आता !'

'कुछ रहस्य तो है।'

'अरी बहनो! ये ऋषि-मुनी श्यामसुंदरको नारायणके समान बताते हैं, इसीसे सबके मन-प्राण उनमें लगे रहते थे। किंतु महिने भरसे ये क्या हुआ है। समझ में नहीं आता!'

"किससे पूछे ?"

'श्रीकीर्तिकिशोरीके पास अवश्य इसका कुछ उत्तर होगा।' 

" अरे देखो विशाखा जीजी आ रही है।'

हम सब उठकर यथायोग्य उनसे मिलीं। 

उनके बैठ जानेपर प्रज्ञाने
कहा- 'यह सब क्या हो रहा है जीजी!' 

हँसकर जीजी बोली- 'क्या हो रहा है री?' 
और उनकी दृष्टिमें एक रहस्य-सा काँध गया।🌹

'ये ग्वाल बाल, गोप-गोपियाँ और बछड़ोंने सारे व्रजकी गति मति उलट दी है। बरसानेका क्या हाल है ?" 

'हाल क्या होगा! जो यहाँ है, वही वहाँ भी होगा।'- जीजी हँसकर बोली।💙

'यह क्या, कैसे हो गया ?'- एक साथ कई बोल पड़ीं।

'क्या हुआ यह तो मुझे ज्ञात नहीं! किंतु श्रीकिशोरीजीने कहलवाया है कि कोई सखी अपनी इच्छासे किसी गोप बालक और बछड़ोंके साथ, जो
वनमें जाते हैं—न बोले, न स्पर्श करे ! यहाँ तक कि समीप भी न जाय, चाहे वह अपना सगा भाई ही हो! और तो और, दृष्टि विनिमय तक न करें।"🌹☺️

सखियाँ चकित होकर विशाखा जू का मुख देखने लगीं।

 ‘अरी बहिनों! तुम जानती नहीं, इन दिनों तुम्हारे भाई, भाई नहीं; बछड़े,
बछड़े नहीं; और क्या कहूँ ! प्रथम दिन तो छिंका-लकुट-आभूषण और श्रृंग भी वही नहीं थे, जो पहले रहे थे। ये सब उपकरण तुम्हारी माताओं को नवीन जुटाने पड़े होंगे।

'आप ठीक कहती हैं।' कई एक साथ बोलीं- 

'महिनाभर पहले मेरे भैयाका लकुट छींका और आभूषण नये बनवाये थे। किंतु यह सब कैसे क्या हुआ?'

'सब ठीक है, तुम अधिक सोच विचार मत करो। जैसा किशोरीजीने कहलाया है, उसीके अनुरूप चलो।'

'ऐसा कब तक चलेगा ?"

'कौन जाने !"☺️

'यह तो उचित नहीं, सभीकी प्रीतिके केन्द्र श्यामसुंदर हैं। उनको छोड़कर सब के सब बलात दूसरी ओर खिंचे चले जा रहे हैं।'

'सखी! क्या उचित है और क्या अनुचित, इसकी चिंता छोड़कर अपनेको इस उपाय द्वारा बचाओ।'–कहकर विशाखा जू उठ खड़ी हुईं, हम सबसे मिलकर उन्होंने प्रस्थान किया।🌹

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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