23

🌹💙 सखियों के श्याम 💙🌹

 *(23)*

 *अकथ कथा* 

'इला कहाँ है काकी! दो दिनसे नहीं देखा उसे, रुग्ण है क्या ?' 'ऊपर अटारी में सोयी है बेटी! जाने कहाँ भयो है, न पहले सी खावे खेले, न बतरावै। तू ही जाकर पूछ लाली। मुझे तो कुछ बताती ही नहीं।' मैंने लेटे-लेटे ही मैया और श्रियाकी बात सुनी। श्रिया मेरी एक मात्र बाल सखी है। यों तो मैया-बाबाकी एकलौती संतान होनेके कारण अकेली ही खेलने-खानेकी आदी रही हूँ, किंतु श्रियाको मेरा और मुझे उसका साथ
प्रिय लगता है। यदि एक-दो दिन भी हम आपसमें न मिले, तो उसे जाने
कितनी असुविधा होने लगती है कि साँझ-सबेरा कुछ नहीं देखती, भाग आती है घरसे मेरे पास। सीढ़ियाँ चढ़कर वह मेरे पास आयी और पलंगपर ही बैठ गयी। मेरी पीठपर हाथ धरकर बोली- 'क्या हुआ तुझे ? ज्वर है क्या ?'

हाथ और ललाट छूकर बोली- 'नहीं ज्वर तो नहीं है, फिर क्या बात है? लेटी क्यों है भला तू? यमुनातट, टेढ़ा-तमाल, वंशीवट सभी स्थान देख लियो! कितने दिनसे नहीं मिली तू? अरे जानती है; कल जल भरनेको कलशी लेकर माधवी जलमें उतरी तो पता नहीं कहाँसे आकर श्यामसुन्दरने भीतर ही भीतर उसका पाँव खींच लिया। वह 'अरी मैया' कहती डूबकी खा गयी। हम सब घबरायीं, यों कैसे डूब गयी माधवी ? तभी श्यामसुन्दर उसे उठाये हुए बाहर निकले, उसकी कलशी लहरोंपर नृत्य करती दूर-दूर होती चली गयी ए. इला! तू बोलती क्यों नहीं ?'

उसकी बकर बकरसे ऊबकर मैंने पीठ फेर ली, पर माधवीके सौभाग्यने हृदयसे गहरी कराह उठा दी, लाख दबानेपर भी हलका-सा स्वर मुख बाहर निकल ही पड़ा।

'क्या है कहीं पीड़ा है ?' – श्रियाने पूछा। मैंने 'नहीं' में सिर हिला दिया।

'तब क्यों सोई है ? उठ चल, टेढ़ा तमाल चले।'

मैं चुप रही।

'ए इला! बोलती क्यों नहीं? मुझे नहीं बतायेगी मनकी बात?' मैं चुप थी, कैसे क्या कहूँ। कैसे किन शब्दोंमें समझाऊँ कि- 'मेरा बचपन मुझसे बरबस छीन लिया गया है। उसकी ठौर जिस दस्युने बलात् अधिकृत कर ली है, उससे मैं भयभीत हूँ कौन मानेगा कि सदाकी निर्द्वन्द निर्भय निरपेक्ष इला इस आंधी तूफान जैसे दस्युसे भयभीत हो । गयी है। आह मेरा सोने जड़ा वह बचपन जाने किस दिशामें ठेल दिया गया। उसीके साथ मेरा सर्वस्व चला गया.... सब कुछ लूट गया मेरा। पुनः गहरी निश्वास छूट गयी।

'ए इला! कुछ तो बोल देख न कैसी हो गयी है त ? सोने जैसा तेरा रंग कैसा काला काला हो गया री ?"

एकाएक उसके मनमें मान जागा बोली-' पर क्यों कुछ कहेगी मुझसे मैं लगती क्या हूँ तेरी ? यह तो मैं ही बावरी हूँ कि भीतरकी एक-एक पर्त खोलकर दिखा देती हूँ तुझे। यदि परायी न समझती तो क्या स्वयं नहीं दौड़ी आती मेरे पास अपना हृदय-रहस्य सुनाने ? चलो आज ज्ञात हो गया है कि मैं तेरी कितनी अपनी हूँ।' वह व्यथित हो जाने को उठने लगी।

मैंने हाथ बढ़ाकर उसका हाथ थाम लिया, किंतु कहनेको कुछ नहीं सुझा, केवल आँखें झरने लगी। यह देख श्रिया मुझसे लिपट गयी- 'जाने भी नहीं देगी और कुछ कहेगी भी नहीं? मैं पाहन हूँ क्या कि यों तुझे रोती देखती बैठी रहूँ? उसने भरे कंठसे कहा और अपनी ओढ़नीके आँचलसे मेरे आँसु पोंछते हुए बोली–‘पहले कुछ खा ले, अन्यथा निश्चित जान ले कि मैं भी अन्न-जल त्याग दूंगी।'

वह मेरा हाथ छुड़ाकर नीचे गयी और भोजन सामग्री लाकर मेरे सम्मुख रख दी- 'चल उठ थोड़ा खा ले नहीं तो....!' वाक्य अधूरा छोड़ उसने कौर मेरे मुखमें दिया— 'तेरे संग खानेकी साध लिये आयी थी, अभीतक मैंने भी कुछ नहीं खाया है। जो तू न खाये तो क्या मेरे गले उतरेगा कुछ ?'

आँसुओंकी बरसातके मध्य जैसे-तैसे उसका मन रखने को मैंने कौर निगल लिया और उसे खानेका संकेत किया।

'कैसे खाऊँ ? तेरे आँसू तो मेरी भूखको भगाये देत है। अरी तू तनिक धैर्य धरे तो मेरा भी खानेका मन बने न !'

ज्यों-त्यों थोड़ा बहुत दोनोंने खाया, हाथ-मुँह धो बर्तन यथास्थान रखकर उसने कहा- 'चल मेरे साथ।' मैंने केवल दृष्टि उठाकर उसकी ओर देखा और चुपचाप साथ चल दी।

यमुना तटपर इस समय कोई नहीं था, घाटकी कुछ सीढ़ियाँ उतरकर उसने मुझे बैठा दिया और एक सीढ़ी नीचे उतरकर वह स्वयं भी अपने दोनों हाथ मेरी गोदमें धरकर बैठ गयी। मेरे हाथ पकड़ उसने मेरी ओर देखा, उस दृष्टिका सामना न कर पाकर मैंने पलकें झुका लीं।

भगवान् आदित्य देवी प्रतीचीकी ओर देख मुस्करा दिये और वे महाभागा अपना लज्जारुण मुख झुकाकर भवन द्वारमें नीराजन थाल उठाये ठिठकी रही। 

गयी थी। चारों ओरकी वृक्षावलियोंपर पक्षी चहचहा रहे थे। कालिन्दी धीमी मन्थर गतिसे बह रही थी शीतल समीर प्रवहमान था, सौन्दर्य सुषमाका अपार वैभव चारों ओर पसरा हुआ था; किंतु यह सब मेरे लिये तनिक भी सुखप्रद नहीं थे। जी करता था उठ जाऊँ यहाँसे यमुना जल और गगन- दोनों ही की ओर दृष्टि जाते ही प्राण हाहाकार कर उठते थे। भीतर ऐसी टीस उठती कि

कहते नहीं बनता। पलकें झुकाये मैं बैठी रही। 'न बोलनकी सौगन्ध खा रखी है?'– उसने पूछा।

मैंने आँसू भरी आँखोंसे उसकी ओर देखते हुए 'नहीं' में सिर हिला दिया। 'तब मैं सुनने योग्य नहीं ?'– उसने भरे कंठसे कहा। उसकी पलकोंपर ओसकण-सी बूंदे तैर उठीं।

मैंने असंयत हो उसे बाँहों में भर लिया, किसी प्रकार मुखसे निकला-'क्या कहूँ ?'

'मेरी इलाको हुआ क्या है ?'

'तुझे मैं 'इला' दिखायी देती हूँ!'- मेरे नेत्र टपकने लगे।

'ऐसा क्यों कहती है सखी ? 'इला' नहीं तो फिर तू कौन है भला?"

'तेरी 'इला' की हत्यारी हूँ मैं? मैंने ही 'इला' को मारा है।' 'क्या कहती है ? भला ऐसी बातमें क्या तुक है। तू कौन है कह तो ?' 'कौन हूँ यह तो नहीं जानती। पर 'इला' मर गयी बहिन! तू मुझसे घृणा

कर - धिक्कार मुझे!' 'अहा, सचमुच तुझे मारनेको जी करता है। क्या हुआ, कैसे हुआ; कुछ कहेगी भी कि यों ही बिना सिर-पैरकी बातें करती जायेगी ?" 'तेरी 'इला' क्या मेरे ही

जैसी थी ?' 'चेहरा मोहरा तो वही लगता है, पर यह चुप्पी गम्भीरता उसकी नहीं लगती। वह तो महा-चुलबुली और हँसने-हँसानेवाली थी। तू तो दुबली पतली हो गयी है, पहले कैसी मोटी, सदा वस्त्राभूषणोंसे लदी-सजी रहती थी। एक तू ही तो श्यामसुन्दरसे धींगा-मस्ती कर सकती थी। ऐसी कैसे हो गयी री तू ? बस यही बता दे मुझे।

'ठीक कहती है तू ! इला खूब गहना-कपड़ोंसे सज-धजकर रहती थी। जब वह चलती तो आभूषणोंकी झँकार दूरसे ही बता देती कि इला आ रही है। एक क्षण भी शाँत बैठना उसके स्वभावमें नहीं था। कभी श्यामसुन्दर अकेले खड़े दिख जाते तो वह चुपके चुपके पीछेसे जाकर अचानक उनकी पीठ-से-पीठ सटा दोनों बाहोंके नीचेसे हाथ डाल उनके कंधे पकड़ लेती।'

वे पूछते–'कौन है ? छोड़!' पर वह किसी प्रकार नहीं मानतीं, तब वे कमर झुकाकर उसे अपने सामने उलट देते।

'तो तू है इल्ली !.... बंदरिया!'– वे कहते। और वह – 'क्या कहा ? मैं बंदरिया हूँ!.... इल्ली हूँ? मुझे मारा क्यों गिराया क्यों ? मेरी कन्नी उँगलीको चोट आ गयी है। ऐसे झूठे दोष लगती हुई वह जोर-जोरसे रोने लगती और कभी दोनों हाथोंकी मुट्ठियाँ बाँध दनादन

उनकी छातीमें मारने लगती।

थकनेपर उसके हाथ थाम वे हँसकर कहते- 'चुक गया सारा वैर कि अभी कुछ बाकी है ?' वह खिसियाकर उन्हींकी छातीमें मुँह छिपा लेती।

कभी आम, जामुन, अमरूदके किसी वृक्षके पास उन्हें ले जाकर कहती- 'मुझे फल तोड़ दो अथवा मुझे कंधेपर चढ़ाओ, वह फल तोडूंगी।'

कभी वे उछल-उछलकर फल तोड़ रहे होते तो उनकी शोभा देख • ताली बजाती हुई कहती – 'श्याम जू! तुम्हारी मालायें भी उछल रही है। ये क्या तोड़ रही है ? "

तोड़े हुए फलोंकी उपेक्षा करके वह जिद्द करती- 'तुम्हारे ये हार कंकण उछल-उछलकर क्या तोड़ रहे थे, बताओ! नहीं तो मैं खूब जोरसे

रोऊँगी। मैं मैयासे जाकर कहूँगी कि तुमने मुझे मारा है।' 'क्या तोड़ रहा था ! तेरा सिर; झगड़ालू कहीं की।'

'मेरा सिर कहाँसे तोड़ रहे थे बताओ? तुमने मुझे झगड़ालू कहा!'—वह रोनेका उपक्रम करती हुई कहती।

तंग आकर श्यामसुन्दर उसका सिर एक हाथसे अपने वक्षसे सटाकर दूसरेसे अपनी मालाओंका दूसरा सिरा उसके गलेमें पहना देते–‘ऐसे और कैसे, निखट्ट कहीं की।' वे हँस देते—'बहुत खोटी है तू!'

अपनी बाँहोंमें उन्हें बाँध उन्हींकी छातीसे नाक मुख घिसते हुए कहती-' और तुम ? तुम कौन अच्छे हो चोर कहीं के!' उसकी बातपर दोनों ही खिलखिलाकर हँस पड़ते।

कभी उनके कंधेपर चढ़कर वह जैसे ही डाली पकड़कर फल तोड़नेकी होती, वे नीचेसे हट जाते वह पेड़पर लटकती हुई चिल्लाती-'मैं गिर जाऊँगी, मैं गिर रही हूँ; अरी मेरी मैया दौड़ो! श्याम जू मुझे गिरा रहे हैं।'

ऐसेमें श्यामसुन्दर खिलखिलाकर हँसते- 'चिल्ला क्यों रही है री? फल तोड़ न, देख वह रहा बाँयी ओर; थोड़ा हाथ बढ़ा- अहा कैसा पका पका मीठा-मीठा आम है।'

वे चटखारे लेकर कहते- 'अकेली ही मत खा जाना ऊपर लटके

लटके! नीचे लाकर थोड़ा मुझे भी चखाना। अरे रे, छोड़ मत! गिरेगी तो हाथ पाँव टूट जायेंगे, लंगड़ी होनेपर कौन ब्याह करेगा तुझसे ?" किंतु जैसे ही उसके हाथसे डाली छूटती; नीचे गिरनेसे पूर्व ही वे उसे

बाँहोंमें झेल लेते—' लगी तो नहीं? डर गयी चुहिया कहीं की !'

वह गिरनेके डरसे दोनों हाथ गलेमें डाल उनसे चिपट जाती। जब वे

उसे 'चुहिया' कहते, वह अपने दाँत उनके कंधेमें गड़ानेकी चेष्ट करती। 'देख! कंधेपर काटा, तो दंश देखकर मेरी मैया तो कुछ कहे कि न कहे, पर तेरी मैया तेरे कान ऐंठें बिना न रहेगी; यह समझ लेना। वे कहते ।

तो वह बड़े भोलेपनसे पूछती-'फिर कहाँ काँटू ?' 'क्यों दाँतोंमें खुजाल चल रही है कि काटना आवश्यक है ?"

'और नहीं तो क्या ! फल तो तुमने खाने ही नहीं दिया; बताओ कहाँ काँटू कि कोई देख न पाये ?'

कुछ देर सोचकर श्यामसुन्दर कहते–' और तो जहाँ भी तू काटेगी कोई न कोई देख ही लेगा। फिर तो तेरी खैर नहीं, कहीं कोई तेरे दाँत ही नहीं तोड़ दे ! एक स्थान है जहाँ कोई देख नहीं पायेगा! जानती है वह कौन-सा अंग है ?'

'ऊँ.... हूँ । ' – इलाने 'नहीं' मैं सिर हिलाया। 'इधर देख यह । – कहते हुए उन्होंने अपनी नवपल्लव-सी अत्यन्त

सुकुमार लाल-लाल जिह्वा तनिक मुखसे बाहर दिखायी। इलाने दाहिने हाथकी तर्जनी और अंगुष्ठसे उसे छुआ जाने क्यों रोमाँच हो

आया। 'नहीं' उसने भारी कंठसे कहा- 'भोजन कैसे करोगे तुम; और पीड़ा होगी न!' 'पीड़ा तो तू जहाँ कहीं काटेगी, होगी ही। तब तू वचन दे कि कभी झगड़ेगी नहीं मुझसे।'

''नहीं ऐसा वचन मैं नहीं दूँगी। तुम जब-जब खिजाओगे अवश्य लहूँगी।' 'तब मुझे भी कुछ उधार नहीं रखना।' वे आम्र-तरु मूलमें बैठ गये। 'अब ले।'– उन्होंने पुनः जीभ दिखायी।

'ऊँ, हूँ।' – इलाने सकुचाते हुए कहा।

'फिर लड़ेगी तो नहीं ? "

'लहूँगी! लहूँगी! लहूँगी! और सौ बार लडूंगी तुम चिढ़ाओ तो मैं चुप

बैठी रहूँगी क्या'

'तो फिर इस लड़ाईको भी उधार मत रख ! '

इलाने धीरेसे अपना मुख बढ़ाया और नवकिसलय सी जिह्वाका अग्रभाग दाँतोंके बीच बिना दबाये ले लिया। उसकी देहमें जाने कैसी झनझनाहट-सी हुई और वह मूर्च्छित हो उन्हींकी गोदमें गिर गयी। इसी प्रकार खेलते-खाते

झगड़ते उसे कभी तनिक-सा भी संकोच नहीं होता। तेरे अतिरिक्त अन्य किसीसे उसकी घनिष्ठता भी नहीं थी। यों सभी

सखियोंसे उसकी बनती थी। कभी तुम सबके साथ बरसाने जाती-वहाँकी सखियाँ अथवा श्रीकिशोरीजी कोई सेवा बतातीं तो उसे बड़ी प्रसन्नता होती । पूर्ण मनोयोगसे वह उस सेवाको करती।

एकबार वह ऐसे ही बरसाने गयी थी, बसन्तके दिन थे, फागुनका महिना। गिरिराज कुञ्जोंकी शोभा देखती हुई वह राधा-निकुञ्जमें चली गयी, वहाँ रूपा बैठी मंजुषासे वस्त्र निकाल रही थी। उसे देखकर एकदम बोल उठी—'इला, भली आयी बहिन! तनिक इन वस्त्रोंको समेट दे तो। समेटकर इन्हें उस मोटे वस्त्रमें लपेट देना। रजककन्या आती होगी, उसे धोनेके लिये देना है?' एक हाथमें मंजूषासे निकाले वस्त्र लिये, दूसरेसे उन वस्त्रोंको पलटते हुए एक पीताम्बर रखकर उसकी ओर बढ़ाते हुए रूपाने कहा- ''यह देख! श्यामसुन्दरका उत्तरीय और यह........।'

में आते ही उसे कुछ अद्भुत अनुभव हुआ-मन प्राणोंको विभोरकर देनेवाली गंध; जाने कैसी आतुरता, आह्लाद और मीठी पीड़ाका मिश्रण-सा भाव हृदयको मथने लगा था। वह पीताम्बर हाथमें लेते ही उसकी विचित्र दशा हो । गयी। आँसू आँखोंमें समाते ही न हों जैसे, देह रोमांचित अवश हो गयी। उस उत्तरीयको कसकर हृदयसे लगाये कराह उठी वह वस्त्र समेटे या नहीं कब घर आयी- कैसे आयी उसे कुछ भी स्मरण नहीं रहा।

इस घटनाके पश्चात एक विचित्र बात और हुई। जब-जब वह अकेली होती और इधर यमुना पुलिन, कुंज, वन अथवा सूने घाटोंकी और जाती, उसे एक लम्बी सी तन्वी किशोरी नेत्रों में गहरी पीड़ा उदासी लिये, आभरण रहित अंग, केवल एक सादी-सी मुक्तामाल, हाथों में एक-एक वलय, घूंघर रहित नुपूर, सादा-सा धानी रंगका परिधान धारण किये गहन गम्भीर भावमें डूबी कभी घाटकी सीढ़ियाँ चढ़ती हुई, कभी किसी सीढ़ीपर बैठी और कभी धीमें पदोंसे विचरण करती दिखायी देती।

इलाको आश्चर्य होता- 'यह कौन है ? अकेली क्यों रहती है ? इसे क्या दुःख है?' उसका परिचय पानेकी उत्सुकतासे वह उसकी ओर बढ़ती किंतु समीप जाते ही वह पलटकर उसकी ओर देखती और इला धीरे-धीरे छोटी होते-होते उसमें समा जाती।

एक दिन अपराह्नमें इला इसी घाटपर चली आयी उसे इन दिनों एकान्त सुहाने लगा था। वह किशोरी लाल रंगकी बहुमूल्य पोशाक पहने वहाँ उस स्थानपर बैठी अपलक यमुनाके गहरे जलकी ओर देख रही थी। पाँव दबाकर चलते हुए, इला उसके पाँवोंके पास निचली सीढ़ीपर बैठ गयी और धीरेसे अपना दहिना हाथ उसके सुकोमल पाँवपर रखा। किशोरी चौंकी नहीं, उसने केवल दृष्टि घूमाकर उसकी ओर देखा।

'तुम कौन हो बहिन! इतनी एकाकी क्यों रहती हो ? कौन-सा कठिन दुःख तुम्हें सता रहा है ? यदि मुझे कुपात्र न समझा हो तो बतानेकी कृपा करो।'

वह किशोरी पुनः एक बार उसकी ओर शाँत दृष्टिसे देखकर मुस्करायी। मैं इला हूँ।'– उसने कहा । इला चकित हो उसकी ओर देखने लगी और कुछ समझ पाये इससे पूर्वकी धीरे-धीरे उसमें समा गयी।

'श्यामसुन्दरसे भी नहीं मिलती अब ?'- सब कुछ सुनकर श्रियाने पूछा। मैंने 'नहीं' मैं सिर हिला दिया। 'यह क्या किया तूने, हम सबमें एक तू ही तो सबसे मोटी, गदबदी, नटखट और तीखी-लड़ाकू थी। इतनेपर भी श्यामसुन्दरसे तेरी जाने कैसे पटती थी। तेरा अधिकार और हिम्मत देख हम सब चकित थी। लड़की होनेपर भी तू हमारे साथ कम ही रहती या तो अकेली खेलती या फिर श्यामसुन्दरके साथ।'

'जब कभी मैं तेरे साथ होती, संकोचके मारे सिर झुकाये खड़ी ही रह जाती। तुझसे छीन वे फल या मिठाई मुझे देते और तू दौड़कर मुझसे छीन लेती। वे तुझसे रूठकर चल देते, तब तू अपने हाथकी वस्तु मुँहमें डाल उन्हें मनाने के बदले दौड़कर उनकी पीठपर लटक जाती और कानसे मुख लगाकर जाने क्या कहती कि वे खिलखिला पड़ते।'

उन्हें जाते देख मैं व्याकुल हो जाती तेरी हिम्मत देख आश्चर्यमें डूब जाती और उन्हें प्रसन्न देख प्राण सरस जाते इनकी दी हुई वस्तु तू खा गयी,

यह पीड़ा भूलकर मैं प्रसन्न हो जाती कि तू उन्हें लौटा लाई है। तू उनकी पीठपर लदी हुई पाँव उछालती हुई कभी गले और कभी

कानमें मुख लगा फुर्र करती-वे रोमाँचित हो हँसते हुए अपने गलेमें पड़े तेरे दोनों हाथ अपने हाथोंसे पकड़े गिरने से बचाते हुए कहते

'उतर नीचे, नहीं तो अभी गिरा दूँगा।' 'उँ हूँ! श्रियाके पास ले चलो।'

'अब श्रियाको चढ़ाओ।' मेरे पास उतरकर तू कहती।

तेरी बात सुन मैं संकोचमें गड़ जाती, मेरी दृष्टि उनके लाल-लाल चरणोंपर जाती और संकेतसे तुझे दिखाकर कहती- 'देख चरण थककर लाल हो गयी है।'

..तू धप्पसे नीचे बैठकर कहती-'आओ कान्ह जू! अब मैं तुमको उठाकर ले चलती हूँ।' 'नहीं मुझे कहीं नहीं जाना, मैं यहीं खेलूँगा।' वे वहीं बैठ जाते।

'देखो न तुम्हारे चरणतल कैसे अरुण हो गये हैं।' तू उनका हाथ खींचती- 'आओ मेरी पीठपर चढ़ो।'

'नहीं इला! मुझे कुछ नहीं हुआ, तू कहे तो अभी तुम दोनोंको उठाकर घरतक पहुँचा सकता हूँ।'

'श्रिया! तू समझा न इस हठीली को।' 'तुम्हारे चरण ही अरुण नहीं हुए, भालपर भी श्रमबिंदु झलक आये हैं। मैं कहती।

'आ इला! अपने दोनों इनके पद संवाहन करें।"

तू एकदमसे झपटकर उनका एक पद अपनी गोदमें धर लेती। 'अहा, केवल अरुण ही नहीं, उष्ण भी हो गये हैं। कहती हुई कभी उनके चरणोंको कपोलोंसे, होठों, आँखों और हृदयसे लगा लेती। मैं मुग्ध-सी तेरे इस मुक्त व्यवहारको देखती रहती।

श्रियाकी बातें सुनते हुए इलाके नेत्र मानो निर्झर बन गये, उसने श्रियाकी हथेलियाँ अपने हृदयसे लगा लीं।

"अहा तेरे हाथ कितने शीतल है बहिन! उन चरणोंकी शीतलता, स्पर्शकी राह तेरे हाथों में उत्तर आयी है ?"

'चल बहिन उसी स्थानपर चलें।' श्रियाने इलाका हाथ पकड़ उठाना चाहा।

'क्या करूँगी बहिन! वहाँ जाकर अब न मेरा वह हीरक जटित बचपन रहा- न हृदयमें वह उल्लास भीतर शीतल-कठिन दाह सुलग उठा है जाने यह कैसा रोग है बहिन! उनके दर्शन-स्पर्शको प्राण तरसते है, पर पद उस और उठते नहीं। मेरी सारी हिम्मत जाने कहाँ चुक गयी है। एक बार जैसे-तैसे साहस किया भी, तो देखा-तमालसे पीठ टिकाये हाथमें वंशी लिये कान्ह जू खड़े किसीकी प्रतिक्षा कर रहे हैं। सम्भवतः वे तेरी प्रतिक्षा कर रहे थे अन्यथा मैं तो सदा उनसे झगड़ती रही। मारती काटती सदा अपनी ही बातपर अड़नेवाली हठीली और वे....!!'– इलाकी वाणी रुद्ध हो गयी।

वह स्थिर दृष्टि से यमुनाकी ओर देखते हुए गद्गद कंठसे कहने लगी ‘वे सदा मेरी ही रुचि रखते। वनसे गुंजा, गेरू, पंख, पुष्प और रंग-बिरंगे पाहन लाते - इला देख ! तेरे लिये क्या लाया हूँ।'

'व्रजमें ऐसा कौन है बहिन! जो उनके हाथसे एक रज कणिका पाकर भी अपनेको धन्य न समझे। किंतु मैं अधम; अपनी इच्छित वस्तु न पाकर मुँह फुलाकर चल देती। वे दौड़कर सम्मुख आकर कहते—'यो रूठ मत इला ! कह न, तुझे क्या चाहिये, मैं कल अवश्य ले आऊँगा। यह सब मुझे अच्छा लगा इसलिये ले आया।'

'मैंने तो शुक-पिच्छ माँगा था, तुम हंस-पिच्छ क्यों ले आये?'-मैं रो पड़ती'रो मत, तू मत रो! कलकी कौन बात, मैं अभी ला देता हूँ शुक-पिच्छ ।' वे मुझे गोदमें भर लेते। व्याकुल होकर कहते- 'मैं भूल गया री! मैया कहती है मैं बड़ा भोला हूँ, इसीसे याद नहीं रहता। तू यही ठहर जाना नहीं तुझे मेरी सौगन्ध ! मै अभी शुक पिच्छ लेकर आता हूँ।'

वे शुक- पिच्छ ढूंढ़ने चले गये और मैं उनकी लायी वस्तुओंसे खेलने लगी। बार-बार लगता — इतनी देर हो गयी, कहाँ गये श्याम जू ?' 'ए इला! देख मिल गया शुक-पिच्छ ।'– उन्होंने दूरसे ही पुकारा |

मैं दौड़कर उनसे लिपट गयी, आँखोंमें आँसू भर आये। उन्होंने पूछा

'क्या हुआ तुझे ? देख वह शुक- पिच्छ.... ।' 'इतनी दूर क्यों गये इसे ढूंढ़ने! क्यों गये तुम ?'

'दूर कहाँ गया! उस पलाशके नीचे तो मिला मुझे। ले, अच्छा है न?" 'मुझे यहीं नहीं; तुम्हीं चाहिये !'

'अब यह 'तुम्हीं' क्या है? कलतक ढूंढ़ लाऊँ तो चलेगा? किसीसे पूछना पड़ेगा कि 'तुम्ही' क्या चीज है।' चिढ़कर दोनों हाथों की मुट्ठी बाँध उनके वक्षपर रखते हुए बोली- 'तुम,

तुम, तुम कान्ह जू चाहिये!' 'अरे बावरी! मैं तो तेरो ही हूँ।' वे हँस पड़े।

'नहीं! मैं तुम्हारी हूँ।'

'नहीं! मैं तेरो हूँ।'

बहुधा इस विवादका निर्णय मेरी मैया अनन्दा या बाबा सुवीर करते। दोनों एक ही निर्णय देते–'तुम दोनों एक-दूसरेके हो।'

मैं बाबा मैयासे भी झगड़ती। कहा—'यदि ऐसा होता, तो हम साथ रहते न! जैसे तुम रहते हो।'

'वह तो ब्याह होनेपर रहोगे बेटी!'– बाबा समझाते। ‘तो आज-अभी कर दो हमारा ब्याह ।'–मैं बाबाका हाथ खींचकर

आग्रह करती।

'अभी कैसे हो सकता है भला! ब्याहके लिये बहुत बड़ा आयोजन करना पड़ता है। कान्ह जू व्रजराज कुँवर है, व्रजराजकी इच्छा होनेपर ही ब्याह हो पायेगा। शाण्डिल्य ऋषि मुहूर्त बतायेंगे-बहुत बड़ी देर लगती है इन सब कार्यों में यह सब होगा, तबतक तुम दोनों भी बड़े हो जाओगे।'

'आह! यह बड़ा होना भी कैसा दुःखदायी है। कभी मैं बड़ी होनेके लिये उतावली हो उठी थी। नित्य बाबा मैयासे, श्याम जू से पूछती-आज मैं

बड़ी हो गयी न ?'

'तुझे बड़ा होना अच्छा लगता है ?'- वे पूछते । 'हाँ, फिर हमारा ब्याह होगा न, इसीसे।'

'तू तो झगड़ती है, मैं तुझसे ब्याह नहीं करूँगा।' 'मैं तो करूँगी! और तुमसे ही ब्याह करूंगी।'

'मैं नहीं करूंगा।'

'तुम चिढ़ाते हो, इसीसे तो झगड़ती हूँ। नहीं खिजाओगे तो नहीं लहूँगी। और बड़े होनेपर थोड़े ही कोई लड़ता है भला!'

'अहा, कहाँ गये वे दिन वे रातें, क्या सोचते होंगे वे ?" 'चल उठ न इला!'- श्रियाने हाथ थामकर उठा दिया।

'वहाँ कोई है श्रिया !"

श्यामसुंदर है ! तेरी प्रतिक्षा कर रहे हैं। चल पगली! खड़ी क्यों रह गयी? वे तेरी बाट देखते हैं बहिन!'

'मैं तो महा अपदार्थ हूँ, कैसे अपना मुँह दिखाऊँ उन्हें! तू जा, मैं यहाँ बैठती हूँ।'

श्रियाने मुझे बैठने नहीं दिया, हाथ पकड़कर खींच ले चली। हृदयकी अवस्था क्या कहूँ! दर्शन स्पर्शको प्राण व्याकुल थे; पर लज्जा संकोच, बचपनका दुस्साहस पाँव आगे बढ़ने नहीं देते थे। मैंने दूरसे ही देखा सन्ध्याके अरुण प्रकाशमें उनकी कैसी शोभा है- शीतल सान्ध्य समीरसे पीतपट फहरा रहा है, अलकें बार-बार मुख कमलपर घिर आती हैं। गौ-रज मण्डित अलकें-पलकें, फेंटमें बंसी, हाथमें लकुट, सर्वाङ्ग धातुचित्रित, पुष्पाभरण-सज्जित, कुण्डलोंकी आभासे दमकते कपोल, अन्वेषण तत्पर दीर्घदृग! वह सिंह ठवन, विशाल वक्ष, बाहु..... बैरिन चेतना साथ छोड़ गयी।

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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