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*🌹💙सखियों के श्याम💙🌹* 

 *(8)* 

🌹 *राज रोग लग्यो हिय माँही* 🌹

'अरी बहिनों! इतने दिनोंतक तो हम यही समझती रहीं कि यह श्याम रोग हमें ही लगा है, पर कल ज्ञात हुआ कि यह तो किसी-किसी ब्रजवधुको भी लग गया है।'— पद्मा बोली ।

'क्या हुआ सखी ?' – सब सुननेको उत्सुक हो उठी।

'होगा क्या! क्या तुमने कल नहीं सुना कि विमल दादाकी बहु बौराय गयी है ? '

हाँ सुना था; पर इसमें इस राजरोगकी कल्पना-गंध कहाँ है ?

 'अरी बहिन! हम तो फिर भी अच्छी है कि कहीं आमने-सामने होने पर एकाध बात तो कर लेती हैं। एक-दूसरीसे कहकर मनकी तपन बाँट लेती हैं। किंतु इन बहुओंकी दशा तो हमसे भी गयी बीती है! किससे कहें, कौन सुनें और श्यामसुंदरसे बात करना तो असम्भव-सा ही है। कोई हिम्मत करे भी तो कलंकित हो।'

"कलंककी भली कही बहिन! इसमें किसीका बस चलता है भला! हम कुल बोरिन सही, पर पशु-पक्षियोंको देखो, इन यमुनाको देखो, इन पत्थर-तरुओंको देखो, और-तो-और; इन कलंकी कहनेवाले बूढ़े बुढ़ियाओंको देखो! इन सबमें कोई है, जो श्यामसुंदरके बिना जीवन-धारणकी कल्पनाकर सके ? सृष्टिमें कोई नहीं जो श्रीकृष्णसे नेह लगाये बिना उनसे मन लगाये बिना रह सके!'

'फिर केवल बहुएँ ही सृष्टिसे बाहर है क्या ?' 

'ऐसा कहते हैं सखी! कि स्त्रीको पतिके अतिरिक्त अन्य पुरुषसे प्रेम नहीं करना चाहिये। यह महापाप है, सतीत्वके लिये कलंक है, नारी जातिमें वह अस्पृश्या-सी मानी जाती है।'

'बहिन! श्यामसुंदर क्या अन्य पुरुष हैं? बड़े-बड़े महात्मा, जो शाण्डिल्य ऋषि और भगवती पौर्णमासीके आश्रममें आते हैं; कृष्णकी चर्चा श्रीनारायणके समान करते हैं, उन्हें अंतर्यामी और सबकी आत्मा कहते-सुनते हैं। फिर यह क्या अपने वशकी बात है! उनका रूप ही नयन-मनको बरबस खींच लेता है, तो इसमें किसीका क्या दोष ?'

विमल दादाकी बहुकी क्या बात है ?

विमल दादाकी बहु परसों अपने देवर सूरजसे कह रही थी-लाला! अपने सखाकी कोई बात कहो न; तुमको लड्डू दूँगी। ☺️
सुनकर मैं समझ गयी। कि व्याधि यहाँ भी लगी है। 
सखी! तनका ताप सहना सरल है, मनका ताप महादुर्धर्ष होता है। 
कल सूरजकी भाभी क्षमा विकल होकर जमुनामें जा पड़ी।

तू यह सब कैसे जानती है?— माधवीने पूछा।

 'मेरा घर उसके समीप ही तो है, आज मैं उससे मिलकर आ रही हूँ।

आँखोंसे आँसुओंके प्रवाह बहाते, सहमती, सकुचाती और हिचकियोंके मध्य उसने मुझे बताया- बहिन ! प्रथम बार पनघटपर देखा था मैंने श्यामसुंदरको, उस दिनसे जाने क्या हुआ कि बार-बार उनको देखनेको जी चाहता; किसी काममें मन न लगे! प्रातः सांय देखनेसे मन न भरता था, अदर्शनकी ज्वाला भभक भभक उठती थी। सारे गृहकार्य उल्टे-सीधे होते, सासजी उलाहने देतीं। 
मैंने तुम्हारे दादासे पूछा- यह मुझे क्या रोग लग गया ?'

सुनकर वे हँस दिये—'कन्नू है ही ऐसा!🥰 
उसे देखनेके पश्चात् और कोई दृष्टि-पथमें आता ही नहीं; यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं। मैं स्वयं भी घर आना नहीं चाहता, काम-काज करते हुए भी मनमें-आँखोंमें श्याम ही समाया रहता है। इसमें दुखी होने जैसा कुछ नहीं है।'

'मैं क्या कहती बहिन? मेरी अकुलाहट बढ़ गयी। कल ज घाटपर गयी तो आँसुओंने बाँध तोड़ दिये। 

आह! कैसे लेख लिखे विधाताने मेरे भाग्यमें कि 'पर पुरुष सों प्रीती भई' और वह भी अलभ्य; फिर समान उम्रका भी नहीं! कितने छोटे हैं मुझसे कान्ह कुँवर; सुना है अभी आठवाँ वर्ष भी पूरा नहीं हुआ। कैसी अनहोनी बात है-छी....छी ! घाट पर बैठे-बैठे जमुना जल पर दृष्टि गयी, तो अंतर्ज्याला और अधिक भभक उठी; न जाने क्या हुआ कि मैं जलमें कूद पड़ी। जब चेत आया तो तटपर एक चट्टानकी ओटमें पड़ी थी और समीप कन्हाई बैठे थे। मुझे नेत्रोंपर विश्वास नहीं हुआ, हाथ उनके चरणोंपर रखा, तो स्पर्शने सारे भ्रम तोड़ दिये।💙

'अब जी कैसा है ?
' वह सुधा स्यन्दी स्वर कानोमें पड़ा। 
'क्या हुआ! यमुनामें कैसे जा गिरी ?'– उन्होंने पुनः पूछा।

मैं क्या उत्तर देती ? एक हाथ माथेके नीचे लगाकर उन्होंने मुझे चट्टानके आधार बिठा दिया।

'क्या हुआ! कैसे हुआ यह ?'– उन्होंने फिर पूछा, तो मेरे नयन झर उठे । अपने करोंसे आँसू पोंछ कर व्याकुल स्वरमें बोलें- 'तुझे क्या दुःख है ?

मुझसे कह न !'

'यमराजके अतिरिक्त मेरा दुख और कोई नहीं मिटा सकता।' – मैंने भरे कण्ठसे कहा। उन्होंने अपनी हथेली मेरे होठोंसे लगा दी। नयन भर आये उनके;

ऐसा भी कोई कहता है! तू कह तो ?"

'कान्ह जू! मुझे बचाकर तुमने अच्छा नहीं किया। मेरा दुख महा लज्जाका विषय है, तुम सुनकर धिक्-धिक् कर उठोगे, फिर मुझसे भी कहते कैसे बनेगा ?'

 "तू कह तो!"

'कान्ह जू! मे. रो... म. न. तु म्हा रे च... र.,,, न... न.....में.... ल... गो... र.... हे.... ।'– 🌹💙
बड़ी कठिनाईसे मैं इतना ही कह सकी और रुलाई फूट पड़ी। 

उन्होंने मुझे भुजाओं में भर हृदयसे लगा लिया- 
'मुझसे प्रेम करना पाप नहीं! मैं सबका प्रिय हूँ, सबका अपना हूँ। मैं सबका हूँ, ओर सब मेरे हैं; मुझसे किया गया प्रेम ही सार्थक होता है। यह पाप और पुण्यका विषय नहीं,

तू ग्लानि छोड़ सखी! विमलसे पूछ लेना; वह भी तो मुझसे प्रेम करता है। मैं सबका हूँ; अबसे तू मुझे सदा अपने निकट पायेगी।'

 'बहिन! उसी घड़ीसे मुझे लगा, हृदयका खाली स्थान भर गया है। मुझे श्यामसुंदर अपने सन्निकट ही लगने लगे, उन्हें पानेकी व्याकुलता जाती रही। न मालूम यह सब कैसे हुआ ?'

'वह तो सखी! मैं जानती हूँ।' मैंने हँसकर कहा- 

'काकी चिंता कर रही थी कि बहुको जाने क्या हो गया है! कभी हँसती है, कभी रोती है; और कभी बड़बड़ाने लगती है।'

संध्याको सूरज आया तो देखते ही भागा और हाथ पकड़कर श्यामसुंदरको ले आया। उसे कहते सुना - ‘कन्नू! देख मेरी भाभीको क्या हो गया है ?'

‘क्या हुआ, देखूँ भला!'—उस समय मैं भी सबके साथ लगी तुम्हारे घर चली आयी थी।

श्यामसुंदरने कुछ क्षण हाथ-पाँव और मुख देखा, फिर कहा- 'काकी इसकी औषधि बरसानेमें है। कोई है लावन हारों, कि मैं ला दूँ ?' 
'अरे लाल! साँझ हो गयी है, पर औषधि आ जाती, तो रात शांतिसे कटती।'

'अच्छा काकी! मैं जाता हूँ!' उन्होंने कहा-'अरी पद्मा! तू मेरे संग चल।'

 ' मैया डाँटेगी, - मेने कहा,,

तो डाँट खा लेना चल मेरे साथ, मैया केवल तेरे ही है? मेरे बाबा मैया नहीं है क्या?— श्यामने खीज कर कहा।

 'चली जा लाली! तेरी मैयाको मैं मना लूंगी।'– काकीने कहा।

बरसाने जाकर श्यामसुंदरने मुझसे कहा- 'विशाखाको बुला ला विशाखा जीजी आई, तो उनसे कहा-'सखी ! श्रीकिशोरीजीका चरणामृत ला दो।'

'क्यों, क्या करना है ?'

'तू ला दे सखी! उपचार करना है।' उन्होंने कहा।

"किसका ? अपना या और किसी का ?"

'तू पद्मासे पूछ ले!'– उन्होंने कहा।

मुझसे सब बात सुनकर विशाखा जीजी चरणामृत ले आर्यों मुझसे बोली 'पात्र तू ले जा पद्मा! ये धैर्य न रख पायेंगे और उपचार धरा रह जायेगा।'☺️

'अच्छा।'–कहकर हम चल पड़े। पथमें उन्होंने मुझसे कहा- 'मुझे बड़ी प्यास लगी है पद्मा! थोड़ा पात्रमेंसे दे दे।' 

'यमुनामें जल है, पी लो।"

'इसमें तेरा क्या जाता है भला? थोड़ा सा दे दे।'

'यह औषध है श्यामसुंदर! तुम स्वस्थ होनेपर भी क्यों लोभ करते हो ?'

 'तेरी तो नहीं !' 

'मेरी नहीं, तो तुम्हारी भी नहीं! बरसानेतक क्यों दौड़ लगवायी ? अपना ही चरणामृत दे देते।'

वे हँस पड़े–'करेलेकी बेलको नीमपर चढ़ा देता, क्यों ?'

मैं भी हँस दी- 'सो तो बिना चढ़ाये घर घरमें नीमपर चढ़ी बैठी है।' 

'तू तो नहीं न ?" श्याम ने पूछा

'ना बाबा ना, ऐसा रोग कौन पाले! औरोंकी दशा देखकर ही मुझे हँसी आती है।'

'मैया री! पाँव थक गये मेरे तो, चला नहीं जाता। थोड़ा विश्राम कर लें।' 

"अंधेरा घिरने लगा है। बाबा मैया चिंता करते होंगे ?" 

'तुम क्या छोरी हो कि प्रातः सांय देखना पड़े!'

'मेरी मैया खीज रही होगी, छोरीका जन्म ही बुरा ! संसार भरके रोग लगें, कलंक लगे और घर-बाहर सभी स्थानपर बंदिनी ?'

'तू क्यों मर रही है! तुझे तो कोई रोग नहीं लगा ?'- श्यामसुंदरने पत्थरपर बैठते हुए कहा।

 'अपना तो दूरसे ही प्रणाम है इन रोगोंको।'

'बड़ी भाग्यशालिनी है तू! अरे हाँ, तेरा वाग्दान हो गया और मुझे मुँह भी मीठा नहीं कराया। कैसी मूंजड़ी है री तू?"

'क्या ?'– मैं चींख पड़ी। 

'तू नहीं जानती ? झूठी कहीं की!'

'नहीं, मुझे तो कुछ भी ज्ञात नहीं किसी और की बात होगी।' 

'नहीं पद्मा! मैंने बाबा ओर सखाओंके मुखसे भी सुना है कि तेरा वाग्दान अभिनंदन बाबाके बेटे अर्जुनसे हो गया है।

' कहा कहूँ! ऐसा लगा, जैसे किसीने कलेजा ऐंठ दिया हो। मुखसे एक कराह निकली, फिर कुछ चेत न रहा।

जब चेत आया तो मेरा मस्तक श्यामसुंदरके अंकमें था, दुःख और आनन्द की जैसे बाढ़ आ-आकर मुझे लपेटती रही ।💙

'यह क्या हुआ पद्मा! तू तो कहती थी मुझे कोई रोग नहीं! यह बैठे-बैठ अचेत होनेका रोग कबसे लगा तुझे ?'– उन्होंने पीठपर हाथ फेरते हुए पूछा ।

'श्यामसुंदर!' 
केवल इतना ही निकला मुँहसे।

 'क्या हुआ, रोती क्यों है ? कहीं दुःखता है ?'– उन्होंने आँसू पोंछते हुए
पूछा 

क्या कहती मैं! पीड़ासे हाथ-पाँव ठंडे होकर ऐंठने लगे। 

'मुँहसे बोल पद्मा! क्या हुआ तुझे, कहाँ दुःखता है ? ऐसेमें तुझे लेकर घर कैसे जाऊँगा ?'

'मैं तुमसे झूठ बोली मनमोहन ! व्रजमें कोई किशोरी बालिका ऐसी नहीं, जो तुम्हारे प्रेमरोगसे ग्रसित न हो; भले वह बेटी हो कि बहू! अभी तो क्षमाकी ही बात तुम्हारे सम्मुख आयी है, पर शत-शत हृदय आकुल व्याकुल तड़फ रहे हैं। तन तजैं कि मर्यादा; और तीसरा पथ नहीं उनके सम्मुख ! नित्य ही कोई व्याकुल हृदय यमुनाकी शरण लेगी। प्रातः होनेसे पूर्व ही तुम सुनोगे कि पद्मा यमुनामें डूब मरी। 
बड़ी कठिनाईसे अपनेको सम्हाल कर सब कुछ कह दिया। सोचा जब मरना ही है तो फिर मनकी बात कह ही दूँ !

जो दुरन्त लज्जा सदा हमारे होठोंपर अर्गला बन चढ़ी रहती थी, मृत्युको सम्मुख पा कुछ समयके लिये भाग खड़ी हुई। 
मैंने उठ कर उनके दोनों चरण हृदयसे दबा लिये। कितनी शीतलता है उन चरणोंमें; अंतरकी सारी ज्वाला शांत हो गयी। जैसे वह आनन्द शब्दोंमें नहीं समाता सखी! मेरे आँसुओंसे उन चरणोंका अभिषेक होता रहा, वे चुप बैठे रहे।

थोड़ी देर बाद बोले—'चल पद्मा! चलें; कोई ढूंढते आता होगा।

' मैंने धीरे से पाँव नीचे रख दिये, 

भरे गलेसे बोली- 'बस इतनी ही साध थी श्याम जू ! सो पूरी हो गयी। अब मुझे सिरपर हाथ रखकर विदा दो और आशिर्वाद भी कि अगले जन्ममें तुम्हारी दासी बननेका भाग्य पाऊँ !'💙

'बिदा कैसी सखी! तू झूठ बोली, तो मैं भी झूठ बोला !'☺️

मैने चौंक कर आश्चर्यसे उनकी ओर देखा 'क्या हुआ, पकड़ी गई ना ?"

'तुमने भी किसीसे प्रेम किया है कान्ह जू ?'

'तुझे क्या लगता है ?'

'तुम्हें क्या पड़ी है ? सब ही तो तुम्हारे पीछे लगे डोलें!🌹

' वे हँस पड़े और बोले- 'मैं तो प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकता। जगतके लोग तो उन्हींसे प्रेम करते हैं, जो उनसे प्रेम करते हैं। पर मैं तो सबसे प्रेम करता हूँ; भले वे करें या न करें!"💙🌹☺️

'सबसे प्रेम करते हो !"

' 'हाँ, पद्मा।

'मुझे तो लगता है तुम एक किशोरीजीसे ही प्रेम करते हो !!

'सखी! किशोरी जू और मैं दो नहीं हैं।' 🌹

'मुझसे करते हो ?' – कहते-कहते मैं लज्जासे लाल हो गयी।🙈

'अरी बावरी !' उन्होंने मुझे हृदयसे लगा लिया – 'अभी तक तुझे विश्वास न हुआ ?"🥰

'सुनो श्यामसुंदर ! जहाँ प्रेम किया जाता है, वह कृत्रिम होता है। प्रेम तो हो जाता है। हम बहुत चेष्टा करती हैं इस फंदेसे छूटने की; किंतु यह तो कसता ही जाता है। हमें ज्ञात ही नहीं कि हम इस जालमें कब जा पड़ी!'

'अरी चुहिया! तू तो मेरी भी गुरु निकली। अब तो फंदा कस गया है, जो होनी होय सो होय, यही न! तू यह औषधि क्षमाके तनपर छींट देना और बाकी पिला देना। कहना- बरसानेकी कुलदेवीका चरणामृत है, पुजारीजीने दिया है। मैं जा रहा ।'

'जैसे श्यामसुंदरने कहा, मैंने वैसे ही किया। इसीसे तुम्हें चेत आया है। 

क्षमा!'– मैंने उससे कहा।

'सखियों! कैसी हूँ मैं ! तुम सबको क्षमाकी व्यथा कहते-कहते अपनी भी कह गयी।'☺️

मेरी बात सुन सब बहिनें हँस पड़ी- 'तुम कोई अकेली तो नहीं पद्मा ! अवश्य ही तुम हम सबसे अधिक सौभाग्यशालिनी हो कि इतना समय श्यामसुंदरके सामीप्यका मिला तुम्हें; उनसे वार्तालाप कर सकीं। अपनी ही नहीं, हम सबकी व्यथा भी उन्हें सुना सकीं।'

'उनका उत्तर सुनकर मनको बड़ी शांति मिली बहिन!'🌹

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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