29

🌹💙 *सखियों के श्यामा* 💙🌹

🌹 *वे दिन अब दुःख देत* 🌹

 *(29)* 

'तुम्हीं धीरज त्याग दोगे तो कैसे चलेगा भैया ! सुना है कि तुम स्वेच्छा से बालक-रूप बने रहते हो, अथाह ज्ञानी हो। तुम धैर्य धारण करो और इन सबको सम्हालो ।'- 
कदम्ब तले आँसू ढरकाते तड़फड़ा रहे मधुमंगल का सिर गोद में लेकर केशों को सहलाते हुए मैंने कहा । आयी थी अपनी पीर भुलाने; किंतु यहाँ सबको अर्धमृत पड़े देख, पीड़ा का सागर ही मानो हृदय में उमड़ आया।
 'रूपा ! बहिन, मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? 
आह, श्यामसुन्द रने यह क्या
 किया।'– मधुमंगल ने सिर धुनते हुए कहा । 
सुनकर हृदय में एक हूक उठी- 'आह, सब कुछ बदल गया है। सखा भी मुझे रूप से रूपा कहने लगे हैं।' महा प्रयत्न से तनिक हँसकर कहा- 'रूप नहीं कहेगा अब !'

'एक दिन तूने पूछा था न, कि रूपा से रूप कैसे हो गयी? उस दिन तो मैंने हँसकर तुझे अँगूठा बता दिया था। ले आज बताती हूँ, किन्तु मैं बलिहारी
जाऊँ! तनिक जल पी ले मेरे वीर ।'

'नहीं बहिन! अब तो श्यामसुन्दर पिलायेगा तभी पीऊँगा। आह, कन्हैया भैया ! '

'भैया.....!' – कहकर मैंने उसका सिर धीरे से भूमि पर रखा और पत्र पुटक में कालिन्दी का जल लेने चली।

'नेत्र खोलो भैया ! यह जल पी लो तनिक विचारो तो ! श्यामसुन्दर आये और उन्होंने तुम्हारी यह दशा देखी, तो कितने दुखी होंगे? हम सबको स्वस्थ रहना है भैया! अपने श्यामसुन्दर के लिये हमें स्वयं को, व्रज को, गैयाओं को वैसा ही बनाये रखना है, जैसा वे छोड़कर गये थे। तुम तो उनके अंतरंग सखा हो, उनके सभी रहस्यों के जानकार हो! लो उठो।'– मैंने उसे उठाकर पत्र पुटक अधरों से लगाया।

नेत्र जल के साथ यमुना-जल की एक घूँट गले से नीचे उतरी ही थी, कि जाने क्या हुआ ! वह बिलबिलाकर पुकार उठा— 'कन्नू रे ! भैया कन्हैया रे ! हमहिं छाँडि तू कितकूं गयो रे ?' वह ढाढ़ मारकर भूमिपर जा गिरा।

हाय मैं क्या करूँ ! दृष्टि उठाकर चारों ओर देखा-सूनी सूखी धरणी, सूना गगन, झूल से वृक्ष, बिसूरते पशु-पक्षी। यह.... यह.... व्रज को क्या हो गया ? यह वैकुण्ठ से भी सुहावनी व्रज - वसुन्धरा दावानल दग्ध अग्निमुख से गिरे ग्रास-सी श्रीहीन कैसे हो गयी ? ऐसा दारुण शाप किसने दिया इसे ? किसने छीन लिया इसका सुख सौभाग्य ? हाँ, दैव तेरी निष्ठुरता को धिक्कार है ! 'भैया मनसुखा! तू तो महाज्ञानी है, उनके स्वरूप को भली प्रकार जानता है। वही स्मरण कर धैर्य धारण करो।" '
क्या कहती हो बहिन! एकबार श्यामसुन्दर का मुख देख ले, तो योगीश्वर शिव भी ज्ञान भूल जाय ! मेरी क्या गिनती है, तू और कोई बात कर।'

'हाँ भैया! तूने पूछा था एक बार कि तू रूपा से रूप कैसे हो गयी? वही बताती हूँ सुन ! मेरी मैया कहती हैं- मैं श्यामसुन्दर से छः दिन उम्र में बड़ी हूँ। वह सब तो मुझे स्मरण नहीं किन्तु कान्ह बछड़े चराने लगे अपने सखाओं के संग ।'

मेरी मैया उसाँस भर नयनोंमे जल भर लाती भरे गले से कभी-कभी कहती–‘रूपा लाली भई; जो छोरा होय के आती तो आज कान्ह कुँवर के संग बछरा लै के जावतो।'

सांझ को पुनः उन्हें लौटते देख बाबा-मैया वही चर्चा ले बैठते । एक दिन मैंने कहा-बाबा! मैं भी कन्हाई के साथ बछड़े चराने जाऊँगी।' सुनकर बाबा ने मुझे अंक में भर लिया उनके नयन झरने लगे 'तू छोरा बनकर आती तो हमारी सारी आशायें पूरी हो जाती।' 'नहीं बाबा! मैं तुम्हारी लाली नहीं, लाला हूँ। सब के सब छोरा मेरे जैसे ही तो हैं। बाबा तुमको मेरी सौगन्ध, मै कल बछड़े चराने जाऊँगा मेरा नाम रूप है, रूपा नहीं। मैंया! मैं भी कछनी पटुका पहनूँगी' कहकर मैंने घाघरी उतारकर फेंक दी। मैया ने मनाने समझाने की बहुत प्रयत्न किया पर मैंने रो-रोकर घर भर दिया। तब बाबा ने मुझे कछनी बांधकर पटुका कंधे पर धर दिया। मेरी प्रसन्नता की सीमा न रही, मुझे लगा मुझे देखकर बाबा मैया भी प्रसन्न हुए हैं। न जाने क्या बात थी मैया देख देखकर हँसती भी और रोती भी जाती थी। मेरी सखियाँ और पास-पड़ोस के सब मुझे देखने आये सब हँस रहे थे।

मेरा मन अकुला रहा था - 'कब सांझ हो, कब कन्हाई आये और उसे बताऊँ– मैं रूप हूँ रूप ! तेरा सखा; मैं रूपा नहीं हूँ। कब सबेरा हो और मैं बछड़े लेकर उसके साथ वन में जाऊँ। उस समय यही सब मन में था किसी की हँसी-ठिठौली मेरा स्पर्श नहीं कर सकी।

मैया मुझे लेकर नंदभवन गयी, सब बात सुनकर यशोदा मैया हँसकर बोली- 'ठीक तो कहती है लाली! जब तुझे लाला होगा तो यह पुनः रूपा हो जायेगी।'

मेरी मैया बोली- 'तुम ही कहो व्रजरानी! कल सयानी होने पर छोरौँ के संग रहने वाली से कौन विवाह करेगा ?' यशोदा मैयाने उत्तर दिया- 'चार दिन की बात है बावरी ! यह स्वयं ही अपनी सखियोंके लिये अकुला उठेगी।'

दूसरे दिन जैसे ही प्रभात हुआ मानो मेरा दूसरा जन्म हुआ। मेरा नाम, रूप, कार्य और संग-साथ, सब परिवर्तित हो गये। मैया ने मुझे जगाकर कहा – 'सुन कन्हाई का शृंगनाद गूँज रहा है।'

शीघ्रता से हाथ-पैर मुँह धुलवाया, पटुका और छींका कंधे पर रखा, हाथ में लकुट और भृंग लेकर बछड़ों को आगे करके मैं खिरक से निकला। मैया बाबा नेत्रों में जल लिये मेरे पीछे द्वार पर खड़े थे। ज्यों-ज्यों कन्हाई बछड़े लेकर बढ़ रहा था त्यों-त्यों अन्य गोपबालक अपने बछड़े लेकर उस झुंड में मिलते जाते। बालक जैसे वर्षों से बिछुड़े हो ऐसे दौड़कर उसे अंकमाल देते और आगे चल पड़ते। जब मेरे द्वार से वे कुछ ही पद दूर रह गये, तो मैंने द्वार से हटकर लकुट उठाया। संकेत पाते ही 'हंबा' रव करते बछड़े पथपर भागे। मैं भी श्याम के सम्मुख जाकर खड़ा हो गया अंकमाल देने को; हाथ उठे नहीं !

'अरे रूपा! तू ?' — वंशी में सुर फूंकते होंठ मुस्कराकर पूछ उठे।

'रूपा नहीं, मैं आज से रूप हूँ कन्हाई! तू अपने साथ मुझे भी बछड़े चराने ले चल।'– मैंने अनुरोध किया। मैया ने कहा जब मेरे भैया हो जायेगा तब मैं पुनः रूपा हो जाऊँगी।'

'अच्छा चल!'- कन्हाईने स्वीकृति दे दी। यह पीछे ज्ञात हुआ कि वह 'ना' कहना जानता ही नहीं अपने जनों को सुख देना ही जानता है वह, उसने इधर-उधर खड़े सखाओं की ओर देखकर कहा-'भैयाओं! देखो, यह अपना नवीन सखा रूप है।'

बस, उस दिन से मैं रूप हो गयी। कितने खेल हमने साथ-साथ खेले, कितने असुर श्याम ने मारे इसके हम सब साक्षी हैं भैया। नित्य ही दिन को वन में मंगल महोत्सव होता और प्रातः सांय व्रज में। सखियाँ मुझे बावरी कहती हँसती किंतु साथ-साथ मेरा सौभाग्य भी मानती। मुझे घेर सबकी सब श्यामसुन्दर की बातें पूछतीं। कोई-कोई ठिठौली भी करती — 'क्यों रूप! तुझे लज्जा नहीं लगती ?"

'लज्जा! क्यों भला ? जिस सुख के लिये तुम तरसती हो वह मुझे नित्य सहज सुलभ है। लज्जा निगोड़ी का भला क्या मूल्य है इसके सामने ? यदि
जन्म जन्म में बार-बार यही करना पड़ा तो मैं सहर्ष लज्जा त्यागकर
श्यामसुन्दर का हाथ थाम लूँगा।' एक दिन पद्मा ने एकान्त में कहा- 'सुन रूपा!'

मैं चिढ़ गयी–‘देख मैं रूपा नहीं, रूप हूँ। यदि तुझे रूपा से ही कोई काम हो तो वह जहाँ हो, वहाँ चली जा और उसे ढूंढ-ढांढ़ ले।'

'सुन! हम सब व्रत कर रही है। तू भी करेगी ?'– उसने कहा।

'कौन-सा व्रत ?"

'भगवती कात्यायनी का।'

'क्या होगा इससे ?'

'मनोकामना पूरी होती है।' 

'कौन-कौन करेंगी ?"

'यहाँ की सब सखियाँ और वृषभानपुर की सखियों के साथ श्रीकिशोरीजी भी करेंगी। ' 'क्या माँगोगी कात्यायनी से ?"

'वह सब वहीं ज्ञात होगा।'

'क्या कहती है, तेरे मनकी कामना तुझे ही ज्ञात नहीं ? ' 'सो तो है! सबकी एक ही तो अभिलाषा है।' कहते-कहते पद्मा की वाणी भावपूर्ण हो उठी।

'क्या है भला सुनूँ तो।'

पद्मा के नयन नीचे झुक गये, लाज से हँसकर औढ़नी से उसने नाक मुख ढक लिये फिर एकदम बोली- 'बोल करेगी ? करना हो तो प्रातः आऊँ बुलाने! यदि न करना हो तो बात मन में रखना; किसी छोरे से कुछ कह मत देना।'

'क्या करना होगा इसमें ?" 'सूर्योदय से प्रथम ही यमुना में स्नान करके कात्यायनी की पूजा करनी है

एक मास तक।'

'बस ? किंतु मैं कैसे कर सकूँगा, मैं तो उस समय गायें लेकर सबके साथ वन में जाता हूँ।' 

'कल विवाह होगा तो पति के साथ जाना पड़ेगा और घर गृहस्थी सम्भालनी होगी। सखाओं के साथ हुडदंगे नहीं मार पायेगी तब।' – पद्मा चिढ़कर बोली । 

'क्यों जाना पड़ेगा पति के संग कहीं लड़के भी ससुराल जाते हैं, बावरी कहीं की। मैं तो छोरा हूँ छोरा तू जा मुझे नहीं करना कोई व्रत ब्रत।' मैंने पद्मा को अंगूठा दिखा दिया।

बहुत दिन हो गये उस बात को! एक दिन अपने सब भांडिर वट की छाया में बैठे थे कि आनन्द ने कहा- 'आजकल ये सब छोरियाँ प्रभात से पहले गीत गाती हुई कहाँ जाती है ? लौटती भी गीत गाती हुई हैं। मैंने मैयासे पूछा तो उसने बताया- कोई व्रत करती हैं। कैसा व्रत है, क्यों करती हैं, यह कुछ भी ज्ञात नहीं!'

'मुझे ज्ञात है।' मैंने कहा- 'अपनी मनोकामना सफल करनेके लिये

माता कात्यायनी की पूजा करती है यमुना स्नान करके। एक महिने का व्रत है। 

पद्मा मुझे भी कह रही थी करने को, किंतु मैंने स्वीकार नहीं किया। इत्ती इत्ती-सी छोरियों की भला क्या अभिलाषा होगी, जो प्रभात की ठंड झेलें। फिर कोई बड़ी बूढ़ी भी साथ नहीं जातीं, कोई डूब गयी यमुनामें तो हो जायेगा व्रत ! — भद्रने कहा।

"'सीख देने से कुछ भी लाभ न होगा, उलटे हमें चिढ़ायेंगी। क्यों श्रीदाम तेरी बहिन भी करती है यह व्रत ?'- अर्जुनने पूछा।

'हाँ भैया! यह अच्छा तो मुझे भी नहीं लगता। इतनी ठंड में क्यों जल में उतरें क्यों नहीं अपने मनकी चाह बाबा मैया से कहतीं, वे उनकी इच्छा पूरी नहीं करेंगे क्या ?'— श्रीदाम ने कहा ।

'भैया कन्हाई! ऐसा करें कि हम सब प्रातः उनसे पहले यमुना तट पर
चलें और देखें - सुनें ये क्या माँगती है कात्यायनी से। वही वस्तु उन्हें देकर इस कठिन व्रतसे मुक्ति दे दे।'

जब सभी सखाओं को यही बात रुचि, तब श्यामसुंदर ने कहा 'अच्छा भैयाओं तुम्हारी ही बात रहे।'

प्रातः यमुनातट पर ज्ञात हुआ कि उनका व्रत आज ही पूर्ण होता, किंतु नग्न स्नान से व्रत खंडित हो गया। श्यामसुंदर को दया उपजी, वह उनके तट पर रखे वस्त्र लेकर कदम्बपर चढ़ गया। वरुणदेव को प्रणाम कर क्षमा याचना करवायी और वस्त्र लौटा दिये। बात भी ठीक थी अन्यथा एक मास का परिश्रम व्यर्थ हो जाता।

हमारे दिन बड़े आनन्द से बीत रहे थे भैया! किंतु मेरी मैया चिंतित थी । एक दिन सांझ को वह मेरा हाथ पकड़कर यशोदा मैया के समीप ले गयी 'तुम्ही समझाओ इस बावरी को ब्रजरानी! देखो, इसकी देह कैसी सुदृढ़ हो गयी है, कोमलता नाममात्र भी नहीं बची। छोरों के और ढ़ोरों के संग दौड़-दौड़कर मल्लयुद्ध, लाठी, दण्ड बैठक, तैरना, वृक्ष पर चढ़ना और जाने क्या-क्या सीख गयी है।'

मैया की आँखों से जल झरने लगा-'रानी जू! बेटी के एक भी लक्षण नहीं सीखी यह चूल्हा, चाकी, दधी मंथन और सीना-पिरौना कुछ भी नहीं। जानती। कौन इसका हाथ थामेगा? और थामेगा तो क्या इसकी पूजा करेगा। अथवा स्वयं घर काम करेगा और इसे गैया चराने भेजेगा? सगे-सम्बन्धि मुझे क्या कहेंगे ? इसके बाबा तो कहते हैं- रूपा ससुराल नहीं जायेगी। यदि नहीं जायेगी तो फिर क्या करेगी। जिससे विवाह होगा वह क्या चौका बासन करेगा और इसे बन-बन गायोंके पीछे दौड़ने भेजेगा ? मैं क्या करूँ, कुछ सूझता नहीं। इसकी देह तो देखो अब क्या खुले शरीर रहने के दिन हैं इसके ?"

यशोदा मैया ने मुझे अच्छी तरह देखकर एक बार दांतों तले उंगली दबाई फिर बोली- 'लाली! अब तू बड़ी हो गयी। गाय चराना छोड़कर घर का काम-काज सीख बेटी ! देख तेरी उम्र की सखियाँ कितना कुछ सीख गयी हैं।' 'मैं रूपा नहीं हूँ।' मैं चीखकर बोली- 'मुझे नहीं करना ब्याह-व्याह....।'

हाथ झड़काकर मैं भागने को हुई तो यशोदा मैया ने हाथ थाम लिया। फिर से वे मुझे समझाने लगीं- 'सुन लाली! यहाँ मेरे पास बैठ पुरुष और नारी के शरीर की बनावट एक जैसी नहीं होती।' किंतु मुझे तो कुछ सुनना ही नहीं था। उनकी बात सुनने मानने का अर्थ था, कन्हाई से दूर रहना यह मुझे किसी प्रकार स्वीकार न था। अंतमें मैयाने एक उपाय किया, मेरे उत्तरीय को वक्ष पर फैलाकर कटि में बाँध दिया और बोली- 'देख लाली! यदि तुझे गायें चराने जाना है, तो पटुका ऐसे बाँधना पड़ेगा; अन्यथा मैं किसी प्रकार तुझे वनमें नहीं जाने दूँगी और सुन ले, यह भी कुछ ही दिन की बात है, फिर तो तुझे घर रहना ही है !'

बाद की बात बाद में देखी जायेगी! यहीं सोचकर मैंने मैया की बात स्वीकार कर ली। जितने दिन श्यामसुंदर के साथ बीतें सो ही भले। किंतु मेरा मन बाद की बात स्मरण कर उदास हो जाता था। एक दिन कन्हाईने पूछा- 'क्या हुआ रूप! तू उदास क्यों रहता है।

मुझसे कुछ अपराध बन पड़ा है क्या ?' मेरे नेत्र उसकी बात सुनकर भर आये। क्या कहूँ, कहने योग्य है ही क्या ?

'मुझसे न कहेगा ?'– उसने मेरा चिबुक ऊपर उठाते हुए पुनः पूछा । 'कन्हाई!'– मैं उसके वक्ष से सिर टेककर फूट पड़ी; हृदय की पीड़ा
आँसू बनकर झरने लगी।

 'मुझसे कह रूप! क्या दुःख है तुझको ?' – श्याम ने अपने पीताम्बर से मेरे आँसू पोंछे। 'मुझसे कह रूप!'- उसने पुनः आग्रह किया।

'मुझे विधाता ने छोरी क्यों बनाया ?' – हिचकियोंके मध्य इतनी बात कह पायी मैं और रुदन फिर उमड़ पड़ा।

‘किंतु इससे तेरा क्या बिगड़ता है रे? विधाता ने ऐसा क्यों किया यह तो मुझे ज्ञात नहीं! पर इस बात को जानने से तेरा दुःख मिटता हो तो मैं प्रयत्न करूँ जानने का कि उसने तुझे छोरा क्यों नहीं बनाया ? महर्षि शाण्डिल्य अवश्य इसका उत्तर जानते होंगे।'

'यह बात नहीं है कन्हाई ! मुझसे तेरा साथ छोड़ा नहीं जाता।'– मैंने कहा। 'तो कौन तुझसे छुड़वा रहा है बावरे ?' उसने हँस कर मुझे गले लगा लिया।

'मैया!'— मैंने कहा। 'मैया! कौन मेरी मैया ? '

'हाँ!'

'क्यों, क्या कहा ?"

'कह रही थी- नारी और पुरुष के शरीर की रचना एक सी नहीं होती ! नारी खुले शरीर नहीं रह सकती। जब मैं नहीं मानी तो उसने मेरा पटुका इस प्रकार बाँध दिया और चेतावनी दी कि यह भी कुछ ही दिनों की बात है, बादमें तुझे घर बैठकर बहु-बेटी की भाँति चौका-चूल्हा करना पड़ेगा। कल ससुराल जाकर क्या हम सबके मुँह पर कालिख लगवायेगी ? कन्हाई ! जो होना हो, सो हो ! यदि तुझसे दूर रहना पड़ा; तो मैं यमुना की शरण लूँगा।'

मेरी बात सुनकर श्यामसुन्दर कुछ सोचता रहा फिर बोला- 'देख रूप! जब तक मैं गाय चराने आता हूँ, तुझे कोई मेरे साथ आने से रोक नहीं सकेगा। मैं घर रहने लगू; तब की बात न्यारी है !'

'कन्नू ! सच कह रहा है तू! मैया को मना लेगा न?'– मैंने उसके कंठ में बाहें डाल दीं। तू!

'यह सर्वथा सच है रूप! कि यहाँ व्रज में कोई तुझे मुझसे दूर न कर सकेगा।' 'भैया मधुमंगल! मैं तो उसकी बात सुनकर फूली फूली फिरती रही,

मुझे कहाँ ज्ञात था कि वह हमें त्यागकर मथुरा चला जायेगा! मैं आनन्द में डूब उतरा रही थी कि तीसरे ही दिन क्रूर अक्रूर हमारी आँखों का प्रकाश छीन ले गया। भैया! मेरे कारण ही वह मथुरा गया और और लौटकर नहीं आता। कोई जाकर उससे कह दो-तेरा रूप अब रूप नहीं, रूपा है। वह घरमें घाघरी फरिया पहनकर बैठी है, अब गाय चराने नहीं जायेगी।' 'भैया! वह किसीका दुःख नहीं देख सकता इसी से चला गया। सारे व्रज को दुःखी करने वाली मैं हूँ भैया; मैं हूँ ! कोई मुझे शाप दो, मैं सबकी हत्यारी हूँ। सबकी ह.... त्या... री.... ।'

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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